संघ की अबतक कि सोच, कार्यपद्धति, और दिशा क्या रही है यह किसी छुपा नहीं है। ऐसे में संघ प्रमुख द्वारा गांधी, टैगोर, विवेकानंद औऱ दयानंद सरस्वति को अपनी विचारधारा और सोच में शामिल करना आगे आने वाले समय में संघ की तरफ से बड़ी वैचारिक लड़ाई की तरफ इशारा कर रहा है, जिसमें दूसरे कई मनीषियों को अपने पाले लाने का वैचारिक खेल खेला जाएगा। टैगोर और गांधी किसी भी सूरत में संघ के पाले में खड़े नजर नहीं आते हैं लेकिन अगर संघ ऐसा कर ले जाता है तो फिर कांग्रेस के पास नेहरू के अलावा शायद ही कोई बचे जो संघ को चुनौती दे पाए। हाल ही में पांचजन्य औऱ ऑर्गनाइजर को दिए साक्षात्कार में मोहन भागवत ने गांधी, टैगोर, विवेकानंद औऱ दयानंद सरस्वति के डिस्कोर्स को लेकर आगे बढ़ने की बात कही। कांग्रेस से इतर दूसरे महान लोगों को अपने पाले में लाने का प्रयास संघ काफी समय से कर रहा है। हालिया प्रयास आंबेडकर को लेकर चल रहे हैं। संघ प्रमुख द्वारा गांधी और टैगोर का नाम लेना वैचारिक लड़ाई के और तेज होने के संकेत देता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भारतीय सामाजिक और राजनीतिक पटल पर सबसे प्रभावशाली संगठन 2025 में सौ साल पूरे करने जा रहा है। संघ के साथ ही भारतीय वामपंथ की विचारधारा भी अपने सौवें साल में प्रवेश कर रही है। इससे पहले केवल कांग्रेस ही इकलौता दल और विचारधार है जिंसने सौ साल पूरे किये हैं। संघ-वामपंथ और कांग्रेस के बीच करीब चालीस सालों का लंबा फासला है। इन सौ सालों में संघ इकलौता संगठन है जिसने लगातार उत्तरोतर वृद्धि की है, इसके उलट कांग्रेस और वामपंथ लगातार सिकुड़ते गये हैं। संघ की सौ साल की यात्रा में आई चुनौतियों पर बात करते हुए भागवत ने कहा कि चुनौती बड़ा शब्द है, लेकिन हमें इसको पार करके आगे बढ़ना है। विरोध करके विरोधी नहीं बनना है। यह संघ की एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली रणनीति का ही हिस्सा है, जिसमें संघ माहिर है। इसके समझने के लिए गांधी की हत्या के बाद वाले संघ को देखना जरूरी हो जाता है, जब उस पर प्रतिबंध लगाए गये तो उसने अपने विचार और उद्देश्य को बदलने के बजाए अपने काम करने के तरीके को बदला। इस दौरान उसने कांग्रेस के जितने भी दक्षिणपंथी रुख वाले नेता थे उनको अपने पाले में लाने का प्रयास किया। यही वे परिस्थितियां थीं जहां से संघ को विरोध का सामना करना पड़ रहा था।
संघ प्रमुख का कहना कि “अब विरोध और उपेक्षा का समय गया तो” यह उनका आत्मविश्वास है जो संघ के एक घटक के सरकार में रहने और विचारधारा के स्तर पर बढ़त का हासिल है, जो उसकी अबतक की यात्रा से आया है, क्योंकि हाल-फिलहाल विचारधारा के स्तर पर संघ को रोक पाने की क्षमता अभी तो किसी के पास नहीं दिख रही है।
मोहन भागवत यहीं पर संघ के कैडर को संदेश भी दे रहे हैं कि उपेक्षा और विरोध का सामना करना आसान था लेकिन अनूकूलता के साथ जो सुविधा और संपन्नता आई है, वह ज्यादा बड़ा संकट है। इस बात को इस तरह से समझा जा सकता है कि संघ के पुराने दौर का कैडर बहुत मामुली संसाधनों में रहकर मिशन मोड पर काम करता था। लेकिन अब यह संभव नहीं है। राजनीतिक सत्ता आने और विचारधारा के विस्तार पर संघ के स्वयं सेवक भी सत्ता के साथ आने वाले लाभ को कमाने में जुट गए हैं। पिछले कुछ सालों में संघ में बहुत सारे ऐसे लग भी जुड़े हैं जो केवल सत्ता की मलाई पाने के लिए संघ का झंडा बुलंद कर रहे हैं, ऐसे लोगों को विचारधारा से बहुत मतलब नहीं है। यही लोग संघ का नाम भी खराब करते हैं, संघ जैसे वैचारिक संगठन के लिए मुश्किल स्थिति है क्योंकि संघ के यहां तक पहुंचने में विचारधारा के साथ उसके कैडर की ईमानदारी एक ब़ड़ा गुण रही है। अब यह गुण उसके विचलन का आधार बन रहा है, ऐसे में केवल विचारधारा के आधार पर संघ कितना आगे जा पाएगा यह बड़ा सवाल संघ के सामने है।
यहीं पर भागवत अब केवल संगठन औऱ कैडर से आगे निकलकर घर परिवार को ही संगठन मानकर काम करने की बात कह रहे हैं जो एक महत्वपूर्ण जरूरी बात है जिस पर आगे के सालों में ध्यान रखा जाना जरूरी होगा क्योंकि संघ की पूरी कार्यपद्धति ऊपर से नीचे की ओर काम करती है।
संघ और राजनीति एक दूसरे के पूरक रहे हैं लेकिन संघ ने कभी भी इसको स्वीकार नहीं किया औऱ हमेशा इससे अपने को दूर बताया और एक सामाजिक संगठन होने का दावा किया। भागवत के इस साक्षात्कार से साफ तौर पर समझा जा सकता है कि संघ सीधे तौर पर चुनावी राजनीति में है और जो राष्ट्रहित के हिसाब से काम करेगा वह इसका समर्थन करता है। संघ के राष्ट्रहित, देशहित के मूल्य हिंदू हित में निहित हैं। जिसके लिए वह अपनी शुरुआत से ही मुखर रहा है औऱ आगे भी वह यह काम करता रहेगा, फिर चाहे इसका जितना भी विरोध झेलना पड़े। संघ ने पहले भी कभी अपने उद्देश्यों को नहीं छिपाया औऱ आगे भी ऐसा नहीं करेगा। भागवत के इस कथन को समझा जाए तो वे साफ तौर पर कह रहे हैं कि संघ की “हिंदूराष्ट्र बनाने” को लेकर जो नीति रही है, वह इसपर कायम रहेगा।
“भागवत का ऐसा कहना स्वीकारोक्ति है कि संघ से जुड़े लोग जो भी करेंगे संघ उसकी जिम्मेदारी लेगा।” संघ के अबतक के इतिहास में यह पहला मौका है जब उसने जिम्मेदारी के सवाल पर सीधा स्टैंड लिया हो।
“संघ केवल संगठन करता है, स्वयं सेवक जो करते हैं वह भी संघ पर मढ़ा जाता है, ऐसा न भी किया जाए तो भी संघ थोड़ा बहुत उत्तरदायी तो है ही, क्योंकि स्वयं सेवक संघ में ही तैयार हुए हैं। “भागवत का ऐसा कहना स्वीकारोक्ति है कि संघ से जुड़े लोग जो भी करेंगे संघ उसकी जिम्मेदारी लेगा।” संघ के अबतक के इतिहास में यह पहला मौका है जब उसने जिम्मेदारी के सवाल पर सीधा स्टैंड लिया हो। गांधी हत्या से लेकर जेपी आंदोलन या फिर हालिया अन्ना आंदोलन सभी में संघ और उसके कैडर के लोग शामिल रहे लेकिन संघ की तरफ से कभी इसको स्वीकार नहीं किया गया। आने वाले दिनों में संघ जिम्मेदारी लेता है तो वह उसकी बदली हुई रणनीति का हिस्सा होगा। सौ साल की उम्र पूरी करने जा रहा संघ इस स्थिति में तो आ गया है कि वह किसी भी बात की जिम्मेदारी ले सके।
भागवत ने अपने साक्षात्कार में प्रणब मुखर्जी तक बात पहुंचाने और काम हो जाने की बात कहकर यह भी साफ कर दिया है कि संघ अब केवल भाजपा तक ही सीमित नहीं है। अब वह जरूरत के हिसाब से किसी दूसरे दल को भी समर्थन दे सकता है। क्योंकि वहां भी उसकी विचारधारा और सोच के लोग हैं। इसको भाजपा द्वारा संघ का कद कम किये जाने की छटपटाहट के तौर पर भी देखा जा सकता है।