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आपातकाल: जेपी आंदोलन में नहीं था आरएसएस, स्वयंसेवकों ने माफ़ी माँगी थी! 

आपातकाल: जेपी आंदोलन में नहीं था आरएसएस, स्वयंसेवकों ने माफ़ी माँगी थी! 

आपातकाल को उन लोगों ने भी बढ-चढकर याद किया, जो अपनी गिरफ़्तारी के चंद दिनों बाद ही माफ़ीनामा लिखकर जेल से बाहर आ गए थे, ठीक उसी तरह, जिस तरह विनायक दामोदर सावरकर अंग्रेजों से माफ़ी माँग कर जेल से बाहर आए थे।

आपातकाल की 46वीं बरसी के मौके पर कई लोगों ने मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए भारतीय लोकतंत्र के उस त्रासद और शर्मनाक कालखंड को अलग-अलग तरह से याद किया। याद करने वालों में ऐसे तो हैं ही जो आपातकाल के दौरान पूरे समय जेल में रहे थे या भूमिगत रहते हुए आपातकाल और तानाशाही के खिलाफ़ संघर्ष में जुटे हुए थे। आपातकाल को उन लोगों ने भी बढ-चढकर याद किया, जो अपनी गिरफ़्तारी के चंद दिनों बाद ही माफ़ीनामा लिखकर जेल से बाहर आ गए थे, ठीक उसी तरह, जिस तरह विनायक दामोदर सावरकर अंग्रेजों से माफ़ी माँग कर जेल से बाहर आए थे।

 सरकार से माफ़ी माँगी

आपातकाल को याद करते हुए कांग्रेस को कोसने वालों में वे लोग भी शामिल हैं जो जेल जाने से बचने के लिए रातोंरात अपनी राजनीतिक पहचान बदल कर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की जय-जयकार करने लगे थे। 

 

सरकार से माफ़ी माँग कर जेल से बाहर आने वालों ने अपने माफ़ीनामे में तत्कालीन इंदिरा गांधी के 20 सूत्रीय और संजय गांधी के पाँच सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करते हुए वादा किया था कि वे भविष्य में किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे।

ऐसा करने वालों में सर्वाधिक लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और तत्कालीन जनसंघ यानी आज की बीजेपी से जुड़े हुए थे। यह तथ्य कई सरकारी और गैर सरकारी दस्तावेजों में दर्ज भी है। 

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क्या कहना है बीजेपी का?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने भी आपातकाल को याद करते हुए कहा कि वह दौर कभी भुलाया नही जा सकता। हालांकि मोदी और शाह न तो उस दौर मे जेल गए थे और न ही आपातकाल विरोधी किसी संघर्ष से उनका कोई जुड़ाव था।

 

अमित शाह की तो उस समय उम्र ही 10-12 वर्ष के आसपास रही होगी। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ''आपातकाल के दौरान हमारे देश ने देखा कि किस तरह संस्थाओं का विनाश किया गया। हम संकल्प लेते हैं कि हम भारत की लोकतांत्रिक भावना को मजबूत करने का हर संभव प्रयास करेंगे और हमारे संविधान में निहित मूल्यों पर खरा उतरने की कोशिश करेंगे।’’ 

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हास्यास्पद दावे!

इसी तरह गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि कांग्रेस  ने देश पर आपातकाल थोप कर संसद और न्यायालय को मूकदर्शक बना दिया था।

 

आपातकाल की बरसी के मौके पर अमित शाह के नाम से कुछ अखबारों में लेख भी छपे हैं, जिनमें दावा किया गया है कि बीजेपी ही देश में एक मात्र ऐसी पार्टी है जो लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखती है और देश मे लोकतंत्र इसलिए बचा हुआ है, क्योंकि आज सरकार चला रहे नेता उन लोगों में से हैं, जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ़ दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ी थी। 

संसद, न्यायपालिका और चुनाव आयोग सहित विभिन्न संस्थानों की पिछले सात वर्षों के दौरान किस कदर दुर्गति हुई है, संविधान को किस कदर नजरअंदाज किया जा रहा है और असहमति की आवाजों का कितनी निर्ममता से दमन किया जा रहा है, यह सब एक अलग बहस का विषय है।

देवरस की चिट्ठी

 

बहरहाल, अमित शाह का यह दावा पूरी तरह हास्यास्पद है कि देश में लोकतंत्र इसलिए बचा हुआ है, क्योंकि आज सरकार चला रहे नेता उन लोगों में से हैं, जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ़ दूसरी आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी। 

 

वैसे तो उनके इस दावे को फ़र्जी साबित करने वाले कई तथ्य दस्तावेज़ों में मौजूद हैं, लेकिन यहाँ सिर्फ आरएसएस के तीसरे और तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बाला साहब देवरस के उन पत्रों का उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा, जो उन्होंने आपातकाल लागू होने के कुछ ही दिनों बाद पुणे के यरवदा जेल मे रहते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सर्वोदयी नेता आचार्य विनोबा भावे को लिखे थे। 

 

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बाला साहेब देवरस, इमर्जेंसी के दौरान संघ प्रमुख

पहली चिट्ठी

 

उन्होंने यरवदा जेल से इंदिरा गांधी को पहला पत्र 22 अगस्त, 1975 को लिखा था, जिसकी शुरुआत इस तरह थी: 

 

''मैंने 15 अगस्त, 1975 को रेडियो पर लाल क़िले से राष्ट्र के नाम आपके संबोधन को यहाँ कारागृह (यरवदा जेल) में सुना था। आपका यह संबोधन संतुलित और समय के अनुकूल था। इसलिए मैंने आपको यह पत्र लिखने का फ़ैसला किया।’’

 

इंदिरा गाँधी ने देवरस के इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया।

दूसरी चिट्ठी

 देवरस ने 10 नवंबर, 1975 को इंदिरा गांधी को एक और पत्र लिखा।

इस पत्र की शुरुआत उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दिए गए फैसले के लिए इंदिरा गांधी को बधाई के साथ की। 

 

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट साधनों के उपयोग का दोषी मानते हुए प्रधानमंत्री पद के अयोग्य क़रार दिया था। देवरस ने अपने इस पत्र मे लिखा- 

 

''सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने आपके चुनाव को वैध घोषित कर दिया है, इसके लिए आपको हार्दिक बधाई।’’

 

गौरतलब है कि लगभग सभी विपक्षी दलों और कई जाने-माने तटस्थ विधिवेत्ताओं का दृढ मत था कि सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला कांग्रेस सरकार के दबाव में दिया गया था। देवरस ने अपने इस पत्र में यहाँ तक कह दिया- 

सरकार ने अकारण ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम गुजरात के छात्र आंदोलन और जयप्रकाश नारायण के बिहार आंदोलन के साथ जोड़ दिया है, जबकि संघ का इन आंदोलनों से कोई संबंध नही हैं...।


इंदिरा गांधी को लिखी देवरस की चिट्ठी का अंश

बिनोवा भावे से गुजारिश

 

चूंकि इंदिरा गाँधी ने देवरस के इस पत्र का भी जवाब नहीं दिया। लिहाजा आरएसएस प्रमुख देवरस ने विनोबा भावे से संपर्क साधा, जिन्होंने आपातकाल को 'अनुशासन पर्व’ की संज्ञा देते हुए उसका समर्थन किया था।

 देवरस ने दिनांक 12 जनवरी, 1976 को लिखे अपने पत्र मे विनोबा भावे से आग्रह किया कि आरएसएस पर प्रतिबंध हटाए जाने के लिए वे इंदिरा गाँधी को सुझाव दें। 

 

विनोबा भावे ने भी देवरस के पत्र का जवाब नहीं दिया।

बिनोवा को दूसरी चिट्ठी

हताश देवरस ने विनोबा को एक और पत्र लिखा। उन्होंने इस पत्र में लिखा- 

 

''अख़बारों में छपी सूचनाओं के अनुसार प्रधानमंत्री (इंदिरा गाँधी) 24 जनवरी को वर्धा, पवनार आश्रम में आपसे मिलने आ रही हैं। उस समय देश की वर्तमान परिस्थिति के बारे में उनकी आपके साथ चर्चा होगी। मेरी आपसे याचना है कि प्रधानमंत्री के मन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में जो ग़लत धारणा घर कर गई है, आप कृपया उसे हटाने की कोशिश करें, ताकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सके और जेलों मे बंद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग रिहा होकर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की प्रगति के लिए सभी क्षेत्रों में अपना योगदान कर सके।’’ 

 

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बिनोवा भावे, गांधीवादी चिंतक

निजी माफ़ीनामा

 

विनोबा ने देवरस के इस पत्र का भी कोई जवाब नहीं दिया। यह भी संभव है कि दोनों ही पत्र विनोबा जी तक पहुंचे ही न हों।

जो भी हो, इंदिरा गांधी और विनोबा जी को लिखे गए ये सभी पत्र देवरस की पुस्तक 'हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति’ में परिशिष्ट के तौर पर शामिल हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन जागृति प्रकाशन, नोएडा ने किया है।

 

बहरहाल, इंदिरा गांधी और आचार्य विनोबा को लिखे देवरस के पत्रों से यह तो जाहिर होता ही है कि आरएसएस आधिकारिक तौर पर आपातकाल विरोधी संघर्ष मे शामिल नहीं था। 

संगठन के स्तर पर आपातकाल का समर्थन करने और सरकार को सहयोग देने की उसकी औपचारिक पेशकश जब बेअसर साबित हुई तो आरएसएस के गिरफ़्तार कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत तौर पर माफ़ीनामा देकर जेल से छूटने का रास्ता अपनाया।

जेल नहीं गए, पेंशन पा रहे हैं

 

ऐसे सारे लोग आज अपने-अपने प्रदेशों में राज्य सरकार से मीसाबंदी के नाम पर 10 से 25 हजार रुपए तक की मासिक पेंशन लेकर डकार रहे हैं। पेंशन लेने वालों में कई सांसद, विधायक और मंत्री भी शामिल हैं। 

ऐसे भी कई लोग हैं जो आपातकाल के दौरान जेल तो दूर, पुलिस थाने तक भी नहीं गए थे, लेकिन वे अपने जेल जाने के फ़र्जी दस्तावेज़ पेश कर मीसाबंदी की पेंशन ले रहे हैं। 

संजय गांधी की तसवीर लगाई

 

आपातकाल के दौरान आरएसएस के कई स्वयंसेवक तो इतने 'बहादुर' निकले कि उन्होंने आपातकाल लगते ही गिरफ़्तारी से बचने और अपनी राजनीतिक पहचान छुपाए रखने के लिए अपने घरों में दीवारों पर टंगी हेडगेवार, गोलवलकर और सावरकर की तस्वीरें भी उतार कर उनके स्थान पर महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तसवीरें लटका ली थीं।

 

ऐसे लोगों ने अपनी मूल राजनीतिक पहचान तब तक जाहिर नहीं होने दी थी, जब तक कि लोकसभा के चुनाव नहीं हो गए थे और जनता पार्टी की सरकार नहीं बन गई थी।

शाह आयोग 

इस तरह के तमाम लोगों ने भी आपातकाल को उसकी 46वीं बरसी पर याद करते हुए सोशल मीडिया पर बड़ी शान से बताया कि वे भी आपातकाल विरोधी संघर्ष में शामिल थे।

आपातकाल के दौरान जो लोग माफ़ीनामा लिख कर जेल जाने से बचे थे या जेल से छूटे थे, उनसे संबंधित दस्तावेज और संघ प्रमुख देवरस के इंदिरा गांधी तथा विनोबा जी को लिखे पत्र आपातकाल के दौरान हुई सरकारी ज्यादतियों की जाँच के लिए गठित शाह आयोग के समक्ष भी गवाहियों के तौर पर पेश किए गए थे। 

ऐसे सभी दस्तावेज अगर योजनापूर्वक नष्ट नहीं कर दिए गए हों तो आज भी आज गृह मंत्रालय की फाइलों में दबे हो सकते हैं। 

 

बहरहाल, उन तमाम राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों के संघर्ष को सलाम किया जाना चाहिए, जो तानाशाही हुकूमत के सामने झुके या टूटे बगैर जेल में रहे थे या वास्तविक तौर पर भूमिगत रहते हुए लोकतंत्र को बचाने के संघर्ष मे जुटे रहे थे और जिसकी वजह से उनके परिजनों ने तरह-तरह की दुश्वारियों का सामना किया था।

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