कोरोना का कोहराम चरम पर है। चंद रोज़ पहले तक सवा सौ करोड़ की आबादी के इस मुल्क में संक्रमण पर प्रभावी नियंत्रण दिखाई दे रहा था। लगता था कि एकाध महीने में हिन्दुस्तान महामारी को दबोच लेगा। लेकिन दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में धार्मिक जलसे के लिए आए अनेक देशों के जत्थों ने जो ग़ैर ज़िम्मेदार बर्ताव किया, उसने करोड़ों नागरिकों को क्षुब्ध कर दिया। अपने चरित्र के मुताबिक़ हमने इसे सांप्रदायिक रंग देने में रत्ती भर देर नहीं की। जमातों और उनके मेज़बानों ने इलाज और बचाव के उपायों को धता बताते हुए इसलाम के ख़िलाफ़ मान लिया तो बाक़ी देशवासियों ने भी इसे समूचे मुसलमानों की प्रतिनिधि राय समझ कर उनके साथ वैसा ही सुलूक किया। गाँव-गाँव में एक बार फिर इस सोच का आकार विकराल हो रहा है। यह कोरोना से भी भयावह है।
देश के नागरिक परेशान हैं कि इन धार्मिक जत्थों ने ऐसा क्यों किया क्या यह मुसलिमों की वही मानसिकता है, जो पाकिस्तान में बच्चों को पोलियो ड्रॉप पिलाने से रोकती है और मलाला पर हमले करती है। यह मानसिकता पाकिस्तान में भी कोरोना से लॉकडाउन का विरोध करती है और मसजिदों में सरकारी पाबंदी के बाद भी सामूहिक तौर पर जुमे की नमाज़ अदा करती है। यह कट्टरपंथी सोच तेज़ी से भाग रहे 2020 के विश्व के साथ नहीं जाना चाहता। इस सोच के ठेकेदारों को अपनी मज़हबी दुकानों के बंद हो जाने का ख़तरा है, जिनका ग्राहक अनपढ़ और आर्थिक दृष्टि से बेहद कमज़ोर मुसलमान हैं।
तब्लीग़ी जमात की ओर से 26 मार्च को कहा गया कि कोरोना के बहाने मुसलमानों को इसलाम और मसजिदों से दूर करने की साज़िश है। इसलिए एक साथ रहें। मौत हो भी जाए तो ग़म नहीं क्योंकि मसजिद में मौत अच्छी होती है। यानी मार्च के आख़िरी सप्ताह में भी वहाँ एकत्रित लोगों को रोक कर रखने की कोशिश थी। अगर देश भर में बिखर गए इन देसी-परदेसी लोगों को जबरन निकालकर एकांत चिकित्सा नहीं दी जाती तो हालात विस्फोटक हो सकते थे। इन जमातों से जुड़े लोगों के आँकड़े डराने वाले हैं। देश की कोई भी सरकार इस स्थिति में यही कार्रवाई करती।
तो क्या इन जमातों के ख़िलाफ़ कार्रवाई में देरी हुई शायद विलंब हुआ है। केवल इन धार्मिक जत्थों के विरुद्ध ही नहीं, कोरोना पर भी हम तनिक देर से जागे।
इस महामारी की आहट दिसंबर-जनवरी में ही मिल गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नया साल लगते ही आग़ाह कर दिया था। भारत में पहला मामला भी जनवरी में आ गया था। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष जनवरी से ही ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। पड़ोसी चीन के हाल बेहाल ही थे। दोनों देशों में आबादी का घनत्व अधिक है। नेपाल के ज़रिए दोनों में आवागमन भी होता रहा। जब जनवरी में वहाँ क्वरेन्टाइन, उड़ानों, रेलों, बसों पर पाबंदी और लॉकडाउन जैसे फ़ैसले ले लिए गए थे तो भारत ने दो महीने और क्यों लिए तब्लीग़ी अनुयाइयों को वीज़ा क्यों दिया गया दिया गया तो रद्द क्यों नहीं किया गया उन श्रद्धालुओं को भारत आने ही देना था तो उनको कोरोना निरोधक प्रमाणपत्र लाना ज़रूरी क्यों नहीं किया गया, जबकि इंडोनेशिया, मलेशिया, ईरान, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल जैसे सोलह देशों में जनवरी से कोरोना दस्तक देने लगा था।
इन देशों से उड़ानें रद्द करने में भी हमने काफ़ी समय लगाया। अगर तब्लीग़ी नुमाइंदे आ ही गए थे तो एयरपोर्ट पर स्वास्थ्य परीक्षण की ज़रूरत नहीं समझी गई। जिन नुमाइंदों में कोरोना पॉजिटिव निकलता, उन्हें एयरपोर्ट से लौटा देना बेहतर विकल्प था। कोरोना पीड़ित मुल्कों ने अपने यहाँ धार्मिक उत्सव रद्द कर दिए थे। ये जत्थे तो एक वेन्यू की तलाश में थे, जो उन्हें भारत के रूप में मिल गया। इसके बाद ये श्रद्धालु निज़ामुद्दीन पहुँच गए।
उस समय दिल्ली सरकार ने सामूहिक कार्यक्रमों पर रोक लगा दी थी। इस बंदिश की धज्जियाँ उड़ गईं क्योंकि दिल्ली पुलिस राज्य सरकार के नियंत्रण में नहीं है। अर्थात इन पाखंडी जमातियों को क़दम-क़दम पर अनजाने में ही राहत मिलती रही।
कट्टरपंथी अतिरेक का ज़हर हर जगह घातक है। चाहे वह इसलामी हो या हिंदुत्व का। जब निज़ामुद्दीन में जलसा हो रहा था तो उन्हीं तारीख़ों में कमोबेश सारे प्रमुख हिन्दू मंदिर- तीर्थ खुले थे। वहाँ श्रद्धालुओं की ठसाठस भीड़ थी। तर्क दिया जा सकता है कि इनमें संक्रमित देशों से श्रद्धालु नहीं थे, फिर भी बचाव के सरकारी उपायों के मुताबिक़ तो यह भी नहीं होना चाहिए था। एक धार्मिक नेता ने कहा कि भगवान राम कोरोना से लोगों की रक्षा करेंगे। इसलिए रामनवमी पर एकत्रित हों। कहीं-कहीं सामूहिक हवन पूजन भी हुए। उनमें राजनेता भी गए। सिख पंथ के रागी पद्मश्री निर्मलसिंह परदेस से आए और चंडीगढ़ में कीर्तन दरबार में शामिल हुए। उन्हें जान गँवानी पड़ी, लेकिन मृत्यु से पहले न जाने कितने लोगों को वे कोरोना बाँट गए- कोई नहीं जानता। मध्य प्रदेश के मुरैना में एक मृत्युभोज के कारण 28000 लोगों में संक्रमण की आशंका है।
दूसरी ओर संसद की कार्रवाई 23 मार्च तक जारी रही। इस कारण संसद परिसर में क़रीब हज़ार-डेढ़ हज़ार लोग मौजूद थे। कोरोना - काल में ही मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार गिरी और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने। उनके शपथ समारोह में सौ से अधिक लोग थे। इससे आम जनता में संदेश गया कि ख़ुद सियासतदान ही कोरोना से बचाव को लेकर अनमने हैं। वह तो अचानक देश की आँख तब खुली, जब प्रधानमंत्री ने तीन सप्ताह के लिए पूर्ण लॉकडाउन का एलान किया। तब तक अन्य एजेंसियाँ क्या करती रहीं