राहत इंदौरी का ये बहुत मशहूर शेर न्यूज़ चैनलों के बीच टीआरपी की गलाकाट लड़ाई में रिपब्लिक टीवी समेत तीन चैनलों पर लगे आरोपों के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हालत और अपनी-अपनी कमीज को दूसरों से ज़्यादा उजला बताने की मार्केटिंग का सच बयान करते दिखता है। इन पर आरोप है कि इन्होंने पैसे देकर टीआरपी बढ़ाई और इस घोटाले का खुलासा मुंबई पुलिस ने किया है। मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी समेत तीन चैनलों पर पैसे देकर टीआरपी हासिल करने के लिए धोखाधड़ी का मामला भी दर्ज किया है।
क्या बिल्ली के भाग्य से छींका फूटने की तर्ज पर मुंबई पुलिस रिपब्लिक टीवी से लगातार पिट रहे तमाम चैनलों की संकटमोचक बन कर उभरी है टीआरपी का ताज़ा आंकड़ा बृहस्पतिवार को आया। पिछले कुछ महीनों से टीआरपी में रिपब्लिक टीवी से पीछे चल रहे चैनल बिलबिला रहे थे।
दो महीने से नंबर दो के पायदान पर लुढ़का पड़ा आज तक परेशान था। ऐसे में मुंबई पुलिस की प्रेस कॉन्फ्रेन्स और रिपब्लिक टीवी पर टीआरपी घोटाले के आरोप इसके सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए अपनी मरती साख को बचाने के लिहाज से संजीवनी बूटी साबित हुए हैं।
पत्रकारिता को हुआ नुक़सान
हालाँकि पूरे मामले का तात्कालिक दुखद पहलू यह है कि चैनलों की टीआरपी की इस सड़कछाप लड़ाई में सबसे ज़्यादा नुकसान शालीन, गंभीर और ईमानदार टीवी पत्रकारों की साख को पहुंचा है। टीआरपी के फर्ज़ीवाड़े ने आम लोगों की निगाह में अब सबको संदिग्ध बना दिया है।
फ़ील्ड में काम करने वाले रिपोर्टर और डेस्क पर सिर झुकाकर काम करने वाले तमाम लोग अब अपने वरिष्ठों, संपादकों, एंकरों की सनक, बेहूदगी और बदतमीज़ी की वजह से आम लोगों के व्यंग्यबाणों और चिढ़ का निशाना बनेंगे। ऐसा लगता है कि वह समय बहुत दूर नहीं है जब टीवी के तमाम तथाकथित सेलेब्रिटी पत्रकार आम लोगों के बीच इज़्ज़त पाने की जगह बेइज़्ज़ती का सामना करेंगे और नफ़रत भी झेलेंगे लेकिन यह उनकी ही करनी का फल होगा।
जब संपादक गली के गुंडों की तरह अपने स्टूडियो से चुनौतियाँ देंगे, ललकार और हुंकार भरेंगे तो जल्द ही किसी दिन सड़क पर उनकी सरेआम पिटाई का दृश्य भी देखने को मिल सकता है।
चैनल के स्टूडियो से आग उगलने वाले, समाज को बांटने वाले, भड़काऊ कैंपेन चलाने वाले एंकर/संपादक सड़कों पर रिपोर्टिंग करने वाले अपने ही साथियों के लिए सरेआम बेइज़्ज़ती से लेकर पिटाई-कुटाई तक हर तरह की छीछालेदर का रास्ता तैयार करते हैं, जो दरअसल जेनुइन पत्रकारिता के लिए उठाए जाने वाले जोखिम से बिल्कुल अलग होता है। यह कोई पत्रकारीय सुख-संतुष्टि का मामला नहीं है।
रेवेन्यू पर फोकस, कंटेंट पर नहीं
इस हालत के लिए मुख्य रूप से चैनलों के मालिकान और संपादकगण कसूरवार हैं। मालिकों का ज़्यादा फोकस हमेशा रेवेन्यू पर रहा, कंटेंट पर नहीं, वर्ना किसी भी कीमत पर टीआरपी हासिल करने का दबाव नहीं होता और समूचे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का यह हाल नहीं होता। पत्रकारिता की साख और सम्मान को गिराने में टीवी न्यूज़ मीडिया ने प्रिंट के मुक़ाबले बहुत तेज़ी से शर्मनाक योगदान दिया है और इसकी क़ीमत पूरी इंडस्ट्री को चुकानी पड़ेगी।
टीआरपी बढ़ाने के घोटाले का एक फौरी असर यह भी होगा कि नंबर वन चैनल की असली परख अब विज्ञापनदाताओं की अदालत में होगी। वो किसकी बात और साख पर भरोसा करते हैं यह देखना होगा। हालाँकि कंटेंट के मामले में रिपब्लिक के ही हमराह हिंदी चैनल और अंग्रेजी चैनल भी अब अपनी चादर बेदाग होने का दावा करें तो उसे हास्यास्पद और ढोंग ही मानना चाहिए।
सच तो यह है कि टीआरपी के हम्माम में सब नंगे हैं, बस अपना नंगापन नज़रअंदाज़ करते हुए एक-दूसरे पर उंगली उठा रहे हैं, आइना दिखा रहे हैं। पुलिस पहली बार इसमें कूदी है। नतीजा क्या होगा, देखना दिलचस्प होगा।
सुरेंद्र प्रताप से लेकर अर्णब
कैसी विडम्बना है कि जिस हिंदी टेलीविज़न पत्रकारिता का शुरूआती चेहरा सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे धाकड़ संपादक थे, जिनकी गंभीर, गरिमामयी और खरी-खरी प्रस्तुति की बदौलत हिंदी समाचार प्रस्तुतिकरण को दूरदर्शन के सरकारी समाचारों के दायरे से बाहर करोड़ों लोगों का प्यार, सम्मान और भरोसा हासिल हुआ था, उस हिंदी पत्रकारिता का फिलहाल सबसे चर्चित चेहरा अर्णब गोस्वामी है।
हिंदी वाले इस विकास क्रम पर अपने जुड़ाव-झुकाव के आधार पर गर्व/शर्म/प्रशंसा/आलोचना/क्षोभ/क्रोध आदि का अनुभव कर सकते हैं। अर्णब गोस्वामी ने हिंदी की टीवी पत्रकारिता में खबरों के प्रस्तुतिकरण के अब तक के समस्त व्याकरण को कूड़े के ढेर में फेंक दिया है और पूरी दबंगई से अपना कस्बाई सड़कछाप मुहावरा, नयी शैली का झंडा बाज़ार में फहरा रहे हैं।
समाज को बांटने की कोशिश
अर्णब पिछले छह-सात सालों में तेज़ी से हावी होने वाली राष्ट्रवादी पत्रकारिता का चमकदार महानगरीय चेहरा हैं, कैम्ब्रिज ब्रांड अंग्रेजी बोलने वाला, नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया वाला लेकिन हिंदी में गांव, कस्बे की भदेस अभिव्यक्तियों से लैस। उनका दावा है कि वो देश के लिए लड़ते हैं। हालाँकि कड़वी हकीकत ये है कि अर्णब और उन जैसे तमाम राष्ट्रवादी पत्रकार देश के लिए लड़ने का नहीं, समाज को लगातार बांटने का काम कर रहे हैं। इन जैसों को पत्रकारिता का उज्ज्वल रोल मॉडल मानने वाले समाज को भी अपने पैमानों के बारे में सोचने की ज़रूरत है।
सच तो यह है कि सुदर्शन न्यूज़ का संपादक सुरेश चव्हाणके अर्णब के आगे बहुत बेचारा लगता है। अर्णब गोस्वामी के तूफान का मुकाबला करने के लिए ज़्यादातर चैनलों ने सुबह-दोपहर-शाम चीख-चिल्लाहट, ड्रामा, नौटंकी, तमाशा, गाली-गलौज की मात्रा बढ़ा दी।
सड़कछाप गपबाजी से होड़
सबको टीआरपी चाहिए, आंकड़ों के फ़ासले को कम करने के लिए यही फ़ॉर्मूला अपनाया और गाँवों की चौपालों से लेकर पान की गुमटियों के इर्द-गिर्द होने वाली सड़कछाप गपबाजी से होड़ करने लगे। समाज का एक हिस्सा हमारे यहाँ कपड़ाफाड़ होली की शैली को भी पसंद करता आया है। लिहाजा इसके दर्शक भी मिल गए।
सारे धतकरम करके भी दूसरे चैनल साफ़-सुथरा दिखने का पाखंड करते हैं जो और भी निंदनीय है। न पक्ष, न विपक्ष, केवल 'निष्पक्ष' की दुहाई देने वाले चैनल पर चर्चाओं का टोन देख लीजिये, निष्पक्षता की परिभाषा को शीर्षासन करा दिया गया है।
सुशांत राजपूत के मामले में अर्णब गोस्वामी की फर्ज़ी और पूर्वाग्रही मुहिम धराशायी हो गई। हालांकि टीआरपी में अर्णब से पिटे चैनल भी इस मामले में बेदाग़ नहीं हैं। गंदगी सबने खूब मचाई है। फिसल पड़े तो हर गंगे वाली बात है बस। लेकिन सुशांत केस में रिपब्लिक पर सारा दोष थोप कर अचानक हाथरस कांड के बहाने बेटियों पर मुहिम के झंडाबरदार बनने की प्रतियोगिता कर रहे कुछ अन्य चैनल भी कम कसूरवार नहीं।
रिया चक्रवर्ती के ख़िलाफ़ हिंदी-अंग्रेज़ी के तमाम न्यूज़ चैनलों ने इरादतन जो अभियान चलाया, उसने इनके तथाकथित 'नारी सम्मान' की कलई खोल दी है। ये नीर-क्षीर विवेक वाले हंस नहीं, बगुला भगत टाइप लोग हैं । इनकी भी निंदा होनी चाहिए।
नफऱत फैलाने का एजेंडा
पिछले कुछ बरसों की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पत्रकारिता ने यह बात आईने की तरह साफ़ कर दी है कि कुछेक अपवादों को छोड़कर मुख्यधारा के तमाम हिंदी-अंग्रेजी टीवी चैनल, उनके संपादक, एंकर-रिपोर्टर सरकारपरस्ती के साथ-साथ दुर्भावना के तहत देश-समाज में घृणा, अशांति फ़ैलाने के विघटनकारी एजेंडे के तहत काम करते हैं। असल में देशद्रोही अगर कोई है तो वह इस देश का तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया और उसके संचालक लोग हैं।
देखिए, इस विषय पर चर्चा-
मीडिया के इस हालात के लिए समाज ख़ुद भी कुछ कम कुसूरवार नहीं है। बुराइयों के सारे बीज उसकी देखरेख में ही विशाल पेड़ बन गये हैं। वो मज़े लेता रहा है। ताली-थाली बजाता रहा है। अपने टीवी सेट के आगे बैठकर रिया चक्रवर्ती की मीडिया लिंचिंग का हिंसक सुख लिया है इस समाज ने। इसकी क़ीमत तो देनी ही पड़ेगी।
नफरत, क्रूरता और हिंसा से भरे हुए लोगों का झुंड बनता जा रहा है हमारा समाज जिसे हम न जाने क्यों अब भी सिविल सोसाइटी कहते हैं। भीतर-बाहर से भयानक जानवरों जैसे। बस चले तो पत्थर मार-मार कर सामने वाले की जान ले लें।
तथाकथित सिविल सोसाइटी के कुछ प्रतिनिधि हैं जिन्हे टीवी चैनलों पर रोज़ देखा जा सकता है। बेहूदा बातें करने वाले, सनसनी फ़ैलाने वाले मीडिया के नामी चेहरे इसके लीडर हैं, रोल मॉडल हैं। रोज़ी-रोटी की चिंता नहीं है, अपनी ज़िन्दगी, देश, समाज की बेहतरी भी इनका मकसद नहीं है। घिन आती है। मीडिया खून पीने वाला ड्रैकुला बन गया है।
हाल ही में चर्चित हुई वेब सीरीज आश्रम का एक दिलचस्प संवाद था- ‘जहां नोटों से होती है कायदे-कानून की ऐसी की तैसी, उसी को इंडिया में कहते हैं डेमोक्रेसी।’ लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाने वाला मीडिया टीआरपी घोटाले में नोटों के जरिये कायदे-कानून और पत्रकारिता की ऐसी-तैसी करने के आरोपों में घिर गया है।
टीआरपी के इस गोरखधंधे की जांच पड़ताल से सच-झूठ का फर्क साफ़ हो सके तो टेलीविज़न पत्रकारिता के लिए अच्छा होगा। वर्ना सबके चेहरों पर कालिख ही नज़र आएगी, भले ही कोई किसी भी पायदान पर खड़े होने का दावा करता रहे।