नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है....
कहती हुई 'ताज बीबी' ने वृन्दावन को अपना आँगन बना लिया। कान्हा के प्रेम में मीरा संग चल दी, दुनिया एक तरफ और उनकी दुनिया दूसरी तरफ, कान्हा की बेलौस मोहब्बत में ताज बीबी, वहीं मिट्टी में जा के सो रहीं,जिसकी खुशबू के साथ अपनी सारी ज़िन्दगी काट दी।
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था,
हर नग़्मा-ए-कृष्ण बाँसुरी का ।
वो नूर-ए-सियाह या कि हसरत,
सर-चश्मा फ़रोग़-ए-आगही का ।।
हसरत मोहानी के दिल की तड़प
यह गुनगुना रहे थे हसरत, मक्का से वृंदावन के बीच दौड़ते हसरत मोहानी के दिल की तड़प किसने नहीं सुनी। उनकी ज़ुबान पर कुरान और सीने से लगी बाँसुरी का स्वाद कौन भूल सकता है। कान्हा की तड़प ऐसी कि कोई साल न गुज़रा कि हसरत वृंदावन की मिट्टी तक न पहुँचे, यही तो था कान्हा का दर्शन।
कान्हा ने हर उस हृदय में दस्तक दी,जिसमें प्रेम था, जहाँ संवेदना थी,वहाँ उनकी बाँसुरी के सुर जीवन डालते, त्याग,समर्पण,बंधुत्व के लिए कान्हा की मुस्कुराहट ऊर्जा देती। हसरत मोहानी हों, ताज बीबी हों, रहीम हों या फिर रसखान हों, कवि दाऊद हों या हज़रत तोराब, हर एक ने अपने दिल में मौजूद प्रेम के बीज को कान्हा के विराट व्यक्तित्व से सींचा।
कान्हा हमारी संस्कृति
कान्हा हमारी संस्कृति हैं, उन्हें धर्म के छोटे से दायरे में बांधना उनके साथ अन्याय करना होगा। कुरुक्षेत्र में उनके बोले लफ्ज़ दर्शन का शिखर हैं, पवित्र गीता में छिपा दर्शन और रहस्य पर पूरे संसार के प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है क्योंकि जो शब्द अर्जुन के सारथी के होंठ से होकर गुजर रहे थे,वह सम्पूर्ण मानवता के लिए सन्देश हैं।
आज जन्मष्ठमी है। मेरे कान्हा के आने का दिन, मैं बार बार कहता हूँ कि अपने हृदय में प्रेम,सहिष्णुता,त्याग,समर्पण के फूल बिखेर दो,तभी मेरे कान्हा उसमें पाँव धरकर आएँगे, जिसके हृदय में एक बार यह आ गए, उसकी खुशबू दुनिया महसूस करेगी।
जन्मष्ठमी की बहुत बधाई!
बस प्रार्थना की कान्हा हमें धर्म- अधर्म में अंतर करना, न्याय के लिए खड़े होना और प्रेम के लिए झुक जाना और मानवता के लिए निज का त्याग करने के मार्ग पर चलने की ऊर्जा दें। जन्मष्ठमी पर सभी लोगों को बहुत बहुत मुबारकबाद!
(हफ़ीज़ किदवई की वाल से)
ऐ हिन्द के राजा
ऐ देखने वालो
इस हुस्न को देखो
इस राज़ को समझो
ये नक़्श-ए-ख़याली
ये फ़िक्रत-ए-आली
ये पैकर-ए-तनवीर
ये कृष्ण की तसवीर
मअनी है कि सूरत
सनअ'त है कि फ़ितरत
ज़ाहिर है कि मस्तूर
नज़दीक है या दूर
ये नार है या नूर
दुनिया से निराला
ये बाँसुरी वाला
गोकुल का ग्वाला
है सेहर कि एजाज़
खुलता ही नहीं राज़
क्या शान है वल्लाह
क्या आन है वल्लाह
हैरान हूँ क्या है
इक शान-ए-ख़ुदा है
बुत-ख़ाने के अंदर
ख़ुद हुस्न का बुत-गर
बुत बन गया आ कर
वो तुर्फ़ा नज़्ज़ारे
याद आ गए सारे
जमुना के किनारे
सब्ज़े का लहकना
फूलों का महकना
घनघोर घटाएँ
सरमस्त हवाएँ
मासूम उमंगें
उल्फ़त की तरंगें
वो गोपियों के साथ
हाथों में दिए हाथ
रक़्साँ हुआ ब्रिजनाथ
बंसी में जो लय है
नश्शा है न मय है
कुछ और ही शय है
इक रूह है रक़्साँ
इक कैफ़ है लर्ज़ां
एक अक़्ल है मय-नोश
इक होश है मदहोश
इक ख़ंदा है सय्याल
इक गिर्या है ख़ुश-हाल
इक इश्क़ है मग़रूर
इक हुस्न है मजबूर
इक सेहर है मसहूर
दरबार में तन्हा
लाचार है कृष्णा
आ श्याम इधर आ
सब अहल-ए-ख़ुसूमत
हैं दर पए इज़्ज़त
ये राज दुलारे
बुज़दिल हुए सारे
पर्दा न हो ताराज
बेकस की रहे लाज
आ जा मेरे काले
भारत के उजाले
दामन में छुपा ले
वो हो गई अन-बन
वो गर्म हुआ रन
ग़ालिब है दुर्योधन
वो आ गए जगदीश
वो मिट गई तशवीश
अर्जुन को बुलाया
उपदेश सुनाया
ग़म-ज़ाद का ग़म क्या
उस्ताद का ग़म क्या
लो हो गई तदबीर
लो बन गई तक़दीर
लो चल गई शमशीर
सीरत है अदू-सोज़
सूरत नज़र-अफ़रोज़
दिल कैफ़ियत-अंदोज़
ग़ुस्से में जो आ जाए
बिजली ही गिरा जाए
और लुत्फ़ पर आए
तो घर भी लुटा जाए
परियों में है गुलफ़ाम
राधा के लिए श्याम
बलराम का भय्या
मथुरा का बसय्या
बिंद्रा में कन्हैय्या
बन हो गए वीराँ
बर्बाद गुलिस्ताँ
सखियाँ हैं परेशाँ
जमुना का किनारा
सुनसान है सारा
तूफ़ान हैं ख़ामोश
मौजों में नहीं जोश
लौ तुझ से लगी है
हसरत ही यही है
ऐ हिन्द के राजा
इक बार फिर आ जा
दुख दर्द मिटा जा
अब्र और हवा से
बुलबुल की सदा से
फूलों की ज़िया से
जादू-असरी गुम
शोरीदा-सरी गुम
हाँ तेरी जुदाई
मथुरा को न भाई
तू आए तो शान आए
तू आए तो जान आए
आना न अकेले
हों साथ वो मेले
सखियों के झमेले।
(हफ़ीज़ जालंधरी की लिखी नज़्म 'कृष्ण कन्हैया', अलीगढ़ से फ़ारूख मंसूर के सौजन्य से।)