रामचरितमानस विवाद से क्या बीजेपी को होगा राजनीतिक लाभ?
उत्तर प्रदेश और बिहार में "रामचरितमानस" को लेकर जो विवाद शुरू हुआ है उसके पीछे 2024 के लोक सभा चुनावों की पेश बंदी साफ़ दिखाई देने लगी है। दोनों राज्यों में पिछड़ों के नेतृत्व वाली पार्टियों के कुछ नेता तुलसी दास लिखित "मानस" की कुछ चौपाइयों को आदिवासी, दलित और पिछड़ों के लिए अपमानजनक बता रहे हैं। इस विवाद के ज़रिए दलितों और पिछड़ों को एक करने की कोशिश साफ़ दिखाई दे रही है। यह विवाद जाति जनगणना के पीछे छिपी राजनीति की अगली कड़ी भी है।
उत्तर प्रदेश में इस विवाद को समाजवादी पार्टी के विधायक और पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने शुरू किया। स्वामी प्रसाद को आनन-फ़ानन में पार्टी का महासचिव बना कर पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने साफ़ कर दिया कि इस विवाद पर उन्हें कोई एतराज़ नहीं है। इसके पहले बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने "मानस", मनुस्मृति और आरएसएस के पूर्व प्रमुख गोलवलकर की किताब "बंच ऑफ़ थाट्स" के कुछ हिस्सों को दलितों और पिछड़ों के लिए अपमानजनक कहा था। चंद्रशेखर की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के कई नेताओं ने उनका समर्थन किया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली।
अति पिछड़ों का वोट बटोरने की राजनीति
उत्तर प्रदेश और बिहार में चुनावी गणित पूरी तरह से पिछड़ों पर निर्भर है। लेकिन पिछड़े दो खेमों में बँटे हुए हैं। अति पिछड़े अलग से राजनीतिक शक्ति बनने की कोशिश कर रहे हैं। "मानस" और जाति पर विवाद अति पिछड़ों के वोट पर क़ब्ज़े की लड़ाई की तरह है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को यादव और मुसलमानों का वोट तो आसानी से मिल सकता है, लेकिन अति पिछड़ों और दलित वोटों के बिना बड़ी जीत हासिल करना आसान नहीं होगा। अति पिछड़ों और दलितों के एक बड़े हिस्से पर बीजेपी का मज़बूत प्रभाव है। मानस के विरोध या जाति जनगणना की माँग के ज़रिए दलितों और अति पिछड़ों को बीजेपी के खेमे से बाहर करने की कोशिश दिखाई दे रही है। यही स्थिति बिहार में है।
अति पिछड़ों और अति दलितों को एकजुट करके नीतीश कुमार 15 सालों से सत्ता में हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में अति पिछड़ों के कई नेता और पार्टियाँ खड़ी हो गयी हैं। विधानसभा के पिछले चुनाव में नीतीश को इसका नुक़सान उठाना पड़ा। उनकी पार्टी के विधायकों की संख्या घट गयी और बीजेपी की ताक़त बढ़ी।
आज़माया हुआ नुस्ख़ा है मानस और मनु स्मृति विरोध
सबसे पहले दक्षिण के द्रविड़ नेता रमास्वामी पेरियार ने तमिलनाडु में मानस और मनु स्मृति के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन ने राज्य से कांग्रेस का हमेशा के लिए सफ़ाया कर दिया और द्रविड़ पार्टियाँ राज्य की राजनीति पर हावी हो गयीं। उत्तर प्रदेश में इसी तरह का अभियान कांशीराम ने चलाया जिससे बहुजन समाज पार्टी एक बड़ी ताक़त बन गयी। इस रास्ते से हटने के बाद बहुजन समाज पार्टी कमज़ोर होती गई। स्वामी प्रसाद मौर्य बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी में भी रह चुके हैं। अति पिछड़ों के एक वर्ग पर उनका अच्छा प्रभाव है।
बीजेपी नेता और गृहमंत्री अमित शाह ने कुछ दिनों पहले अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण पूरा कर जनवरी 2024 में पूजा शुरू करने की घोषणा की थी। ज़ाहिर है कि मई 2024 के चुनावों में राम मंदिर एक बड़ा मुद्दा होगा और बीजेपी इसे भुनाने की कोशिश करेगी।
मानस और मनु स्मृति विवाद को इसकी काट के रूप में भी देखा जा रहा है। दोनों राज्यों में पिछड़ों की आबादी 60 से 70 प्रतिशत होने का अनुमान है। इसमें अति पिछड़े 40 से 50 प्रतिशत बताए जाते हैं। ज़ाहिर है कि उनका वोट निर्णायक है लेकिन पिछड़ी जातियाँ आपस में भी बंटी हुई हैं।
बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती
बिहार में बीजेपी अब भी सवर्ण जातियों के दबदबा वाली पार्टी मानी जाती है। 2014 के मोदी लहर को छोड़ दें तो बीजेपी हमेशा नीतीश कुमार की बैसाखी पर निर्भर रही है। 2015 के विधान सभा चुनाव में नीतीश और लालू की पार्टी के साथ आते ही बीजेपी की मुश्किलें बढ़ने लगीं। लेकिन 2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनावों में नीतीश के साथ होने के कारण बीजेपी की स्थिति बेहतर हो गयी। इसका एक बड़ा कारण बीजेपी को अति पिछड़ों का समर्थन था। अब फिर से नीतीश और लालू की पार्टियाँ एक साथ हैं। ये अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। उत्तर प्रदेश में भी बहुजन समाज पार्टी का अति पिछड़ा आधार खिसक कर अखिलेश के साथ चला जाए तो बीजेपी का ये गढ़ भी दरक सकता है।