राजस्थान का रण : महारानी की राह में बस काँटे ही काँटे

03:50 pm Nov 21, 2018 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

राजस्थान में विधानसभा चुनाव के लिए 7 दिसंबर को वोट डाले जाएंगे। धौलपुर राजघराने की महारानी और सीएम वसुंधरा राजे के सामने सत्ता में बने रहने की कठिन चुनौती है। पिछले चुनाव में बीजेपी को 200 में से 163 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन पिछले पांच साल में हालात बदल चुके हैं। विधानसभा चुनाव में वसुंधरा के सामने क्या चुनौतियाँ हैं, इस पर डालते हैं एक नज़र।

आनंदपाल एनकाउंटर से नाराज़ हैं राजपूत

राजस्थान में गैंग्स ऑफ शेखावटी का गैंगवार बहुत चर्चित रहा है और इसका सबसे बड़ा किरदार आनंदपाल सिंह था। आनंदपाल को राजस्थान में अपराध की दुनिया का बड़ा नाम माना जाता था। आनंदपाल के बारे में कहा जाता है कि वह राज्य के राजपूत युवाओं में काफ़ी लोकप्रिय था और कई युवा उसके स्टाइल को फॉलो करते थे। आनंदपाल को अदालत भगौड़ा घोषित कर चुकी थी और जब उसका एनकाउंटर हुआ तो, बड़ी संख्या में राजपूत सड़कों पर उतरे थे और काफ़ी हिंसा हुई थी। प्रदेश सरकार ने हिंसा करने वालों पर मुकदमे लगा दिए थे।

राज्य की आबादी में राजपूत 6 से 7 फ़ीसदी हैं और यह समुदाय लगभग 50 विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखता है। राजपूत नेताओं का कहना है कि मुकदमे वापस न लेने के कारण उनके समुदाय के लोग बीजेपी से नाराज़ हैं। इसके अलावा राज्य में पद्मावती फ़िल्म को दिखाए जाने के ख़िलाफ़ भी राजपूतों ने बड़ी संख्या में प्रदर्शन किया था। बाद में वसुंधरा सरकार को इस पर बैन लगाना पड़ा था। राजपूतों में इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि जोधपुर के समरऊ गाँव में जाटों ने उनके घरों को जलाया लेकिन पुलिस ने उनकी मदद नहीं की। राजपूत नेताओं का दावा है कि उनके कारण ही बीजेपी को अलवर और अज़मेर में हार का सामना करना पड़ा।

मानवेन्द्र के जाने से होगा नुकसान

पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के बेटे और विधायक मानवेन्द्र सिंह के बीजेपी छोड़ने और काँग्रेस में शामिल होने से भी वसुंधरा को नुकसान होगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जसवंत सिंह का टिकट काट दिया था। तब बाड़मेर से निर्दलीय प्रत्याशी जसवंत सिंह को हार का सामना करना पड़ा और बीजेपी प्रत्याशी कर्नल सोनाराम की जीत हुई थी। तभी से यह टीस जसवंत और मानवेन्द्र के मन में थी। 

पिता के बाद अपनी उपेक्षा ने उन्हें बीजेपी से अलग होकर कांग्रेस का हाथ पकड़ने को मजबूर कर दिया। बीजेपी छोड़ते हुए मानवेन्द्र ने एक रैली में कहा था, मेरी वजह से मेरे समर्थकों को परेशान किया गया। मैंने पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष को भी बताया, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। मानवेन्द्र ने 'कमल का फूल, हमारी भूल' का नारा दिया। इस पर वहां मौजूद लोगों ने भाजपा छोड़ने के नारे लगाए।मानवेन्द्र के कांग्रेस में शामिल होने से बीजेपी को मारवाड़ के पाली, सिरोही, जोधपुर और जालौर जिलों में नुक़सान उठाना पड़ सकता है। यहां मानवेन्द्र का प्रभाव ज्यादा है। मानवेन्द्र राजपूत समुदाय से हैं और अपने समुदाय के अलावा सिंधी और मुस्लिम समुदाय में भी उनका अच्छा प्रभाव है।

वसुन्धरा ने की मनाने की कोशिश

वसुंधरा ने राजपूतों की नाराजगी दूर करने के लिए राजस्थान में गौरव यात्रा निकाली। इस दौरान उन्होंने समुदाय के गौरवशाली इतिहास को भी याद किया और कई ऐतिहासिक स्मारकों का भी लोकार्पण किया। राजे ने बीजेपी से नाराज चल रहे राजपूत समुदाय के 17 नेताओं को टिकट दिलाकर उन्हें मनाने की कोशिश की है।

सवर्ण मतदाताओं में भी है नाराजगी

एससी-एसटी ऐक्ट पर केंद्र सरकार की ओर से अध्यादेश लाने के कारण राज्य के सवर्ण मतदाता बीजेपी से नाराज हैं। सवर्ण जातियों की ओर से इस अध्यादेश के ख़िलाफ़ भारत बंद बुलाया गया था। राजस्थान में भी बंद का काफ़ी असर देखने को मिला था। इसके अलावा गुर्जर आरक्षण के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे किरोड़ी सिंह बैंसला भी राजस्थान सरकार से नाराज हैं।

तिवाड़ी और बेनीवाल पड़ सकते हैं भारी

छह बार विधायक रह चुके घनश्याम तिवाड़ी और निर्दलीय विधायक हनुमान बेनीवाल चुनाव में बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकते हैं। तिवाड़ी ने पहले अपनी पार्टी बनाई थी लेकिन अब उन्होंने बेनीवाल की पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी को समर्थन देने की घोषणा की है। इन दोनों नेताओं का राजस्थान के कई इलाकों में अच्छा प्रभाव माना जाता है। 

बेनीवाल की रैलियों में जुटी भीड़ से पता चलता है कि वह उलटफेर करने में सक्षम हैं। बेनीवाल जाट हैं और राज्य में जाटों की आबादी 9 से 10 फ़ीसदी है। दूसरी ओर तिवाड़ी ब्राह्मण हैं और राज्य में इस समुदाय की आबादी 4 से 5 फ़ीसदी है। बेनीवाल की रैलियों में अल्पसंख्यक समुदाय की भी भागीदारी रही है। इसलिए वह बीजेपी के लिए मुसीबत साबित हो सकते हैं।

इन सारे कारणों के बाद भी वसुंधरा राजे अपने समर्थकों को टिकट दिलाने में कामयाब रही हैं जबकि बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व से उनके रिश्ते ठीक नहीं हैं। इसका मतलब यही है कि राज्य में बीजेपी के पास उनका विकल्प नहीं है। तमाम विरोध के बावजूद वह अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहीं। अब देखना यह है कि विधानसभा चुनाव में वह अपने विरोधियों को हराने में सफल होती हैं या नहीं।