राजस्थान मानवाधिकार आयोग का यह कौन- सा रूप है। आयोग स्त्रियों का हितैषी है या अपमान करने वाला औजार। उन्हें स्त्रियों के हितों की इतनी चिंता होती तो क्या वे लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही किसी महिला को उपस्त्री यानी रखैल का दर्जा देते क्या आयोग को भारतीय संस्कृति का मामूली ज्ञान भी नहीं है कि कोई बालिग स्त्री-पुरुष अपनी मर्ज़ी से अपना संबंध बना सकते हैं या साथ रह सकते हैं क़ानून इसमें अड़चन नहीं डालेगा।
ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब सर्वोच्च न्यायालय का एक फ़ैसला आया था। इस निर्णय ने लिव-इन रिलेशनशिप के प्रति समाज और क़ानून दोनों का रवैया ही बदल दिया था। तब अदालत ने कहा था कि लिव-इन रिलेशनशिप संबंध मान्य है और उस रिश्ते में रहने वाली किसी भी स्त्री को कई सारे क़ानूनी अधिकार हासिल हैं। जैसे घरेलू हिंसा क़ानून भी लागू होगा, रिश्ते में रहते हुए अगर पुरुष साथी की मौत हो जाती है तो स्त्री उसकी संपत्ति से अपना हिस्सा माँग सकती है। संबंध में रहते हुए जो संतान होगी, वह वैध कहलाएगी और पिता की संपत्ति में उसका अधिकार होगा। लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर कोई क़ानून नहीं बना, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सबकुछ साफ़ कर दिया था। समाज में भी उसे स्वीकारने की मानसिकता बनने लगी थी। हमारे आसपास अचानक कई रिश्तों के खुलासे भी हुए। अब तक लिव-इन रिश्ते छुपाए जाते थे समाज और परिवार के भय से। दो दिलों के बीच क़ानून का भय कम होता है और समाज-परिवार का ज़्यादा। जैसे ही कोर्ट ने इस संबंध पर अपनी मुहर लगाई, उसे वैध घोषित किया, समाज का भय जाता रहा। सारी वर्जनाएँ, गोपनीयता भरभरा कर टूट गईं। कई जोड़े सामने आने लगे। ठीक वैसे ही जैसे धारा-377 के बाद समलैंगिकों ने अपने आप को उजागर किया।
मानवाधिकार आयोग का काम है नागरिकों के अधिकारों का हनन न होने देना। कहीं हनन हो तो उसे रोकना। न कि नागरिकों को मिली हुई स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की पैरोकारी करना। बहुत आश्चर्य और अफसोस की बात है कि महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर महिलाओं के जीने और उसके निर्णय के अधिकारों को छीनने की बात होने लगी है। अभी तो देश के एक राज्य से उठी है एक आवाज़, धीरे-धीरे ये आवाज़ फैल जाएगी। बड़ी लड़ाइयों और संघर्षों के बाद महिलाओं को स्वतंत्रता मिली है। अब लगता है कि स्त्री सुरक्षा का मुद्दा बना कर एक तरह से स्त्रियों को ही चुप कराने की साज़िश रची जा रही है। यह समाज को अपने पक्ष में करने की कोशिश है और लिव-इन रिलेशनशिप के ख़िलाफ़ माहौल बनाने की तैयारी है। इसे समझने की ज़रूरत है।
पढ़े-लिखे नागरिकों को इस कोशिश का विरोध करना चाहिए और स्त्रियों को इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए। ज़रूरत पड़े तो आयोग की इस मंशा को कोर्ट में चुनौती देनी चाहिए।
‘संस्कृति’ के झंडाबरदारों को इतना तो ज्ञान होना चाहिए कि हमारे यहाँ कई तरह की विवाह पद्धतियाँ स्वीकृत रही हैं। सबसे अधिक लोकप्रिय गंधर्व-विवाह था। जिस राजा के नाम पर भारत देश पड़ा है, उनकी पैदाइश ही शकुंतला और दुष्यंत के गंधर्व विवाह के कारण हुई। लिव-इन रिलेशनशिप एक तरह का गंधर्व-विवाह ही है जिसमें दो व्यस्क लोग एक-दूसरे का साथ अपनी मर्ज़ी से चुनते हैं, साथ रहने का फ़ैसला करते हैं। उन्हें सामाजिक विवाह मंज़ूर नहीं होता है। वे अपने संबंधों को विवाह से परे रखते हैं क्योंकि ‘विवाह संस्था’ की बुराइयों से वे त्रस्त हो चुके होते हैं। उन्हें विवाह के बंधन में नहीं बंधना होता है। उन्हें विवाह जैसे एक संबंध में रहते हुए अलग तरह का संबंध जीना होता है, जिसमें कभी अलगाव होने पर कागजी कार्रवाई की ज़रूरत न पड़े, कोर्ट का दरवाज़ा न खटखटाना पड़े। कोर्ट में लटकती तारीख़ों का शिकार न होना पड़े। समाज के दबाव में दमघोंटू रिश्ते न ढोना पड़े।
लिव-इन में कम से कम इतनी छूट तो होती है कि कपल जब चाहे, रिश्ते से आज़ाद हो सकते हैं। उन्हें दबाव नहीं झेलना पड़ता। मन के रिश्ते होते हैं, मन से तय होते हैं, मन से ही टूटते हैं। कितने वैवाहिक संबंध बिना प्रेम के निबाहे जा रहे हैं।
मुर्दा की तरह संबंधों से बेहतर तो लिव-इन हैं। जहाँ प्रेम ज़िंदा रहता है, संबंध बराबरी का होता है। जहाँ स्त्री को कोई पति कमतर नहीं समझता। लिव-इन रिश्ता तभी बनता है जब दो बालिग, समझदार लोग एक जगह राज़ी होते हैं। दोनों की सामाजिक, आर्थिक हैसियत बराबर होती है या वे बराबरी पर बात करते हैं। समाज द्वारा थोपे गए रिश्तों की आज़ादी का नाम है लिव-इन जहाँ बराबरी का दर्जा मिलता है। वैवाहिक संबंधों में बस कहने भर को बराबरी होती है और पति-पत्नी गाड़ी के दो पहिए होते हैं। सच तो यह है कि भारतीय समाज में स्त्रियाँ अभी तक समानता की लड़ाई लड़ रही हैं। जिसके हाथ में आर्थिक सत्ता है, वहीं निर्णय लेता है।
वैसे भी विवाह सिर्फ़ दो लोगों का मामला होता है जिसे भारतीय समाज पूरी भीड़ के साथ मिल कर तय करना चाहता है। विवाह सबसे अधिक असमान व्यवस्था है। प्रेम में जो संबंध समान होता है वही शादी तक आते-आते असमान कैसे हो जाता है कैसे विवाह एक अच्छे-ख़ासे, समझदार पुरुष को मालिक में बदल देता है। वह स्त्री पर मालिकाना हक जताता रहता है।
स्त्रियों का दोहरा शोषण
मौजूदा समय में सबसे ज़्यादा ख़तरा स्त्री के वैवाहिक संबंधों में है। सरकार को चिंता करनी है तो सबसे पहले ‘मैरिटल रेप’ क़ानून बनाए। स्त्रियों को दोहरे शोषण से बचाए। ‘मैरिटल रेप’ को अपराध न मानने वाली सरकारों के मुँह से स्त्री-सुरक्षा के नाम सुन कर हँसी भी आती है और कोफ्त भी होता है। यह स्त्री की स्वतंत्रता छीनने की नयी साज़िश है। पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर स्त्रियों ने बमुश्किल अपने जीवन और संबंधों के बारे में ख़ुद फ़ैसला लेना शुरू किया है। वे अपने मन का साथी चुन कर साथ रहने लगी हैं। वह साथी उसका अपना चयन होता है। स्त्री विवेकशील है, समझदार है, वह जोख़िम उठाने को तैयार है। वह अपनी मर्ज़ी से ऐसा रास्ता चुनती है। उसके इस फ़ैसले को क़ानूनी कटघरे में खड़ा करने वाला आयोग कौन होता है। आयोग को स्त्री सुरक्षा से संबंधी दूसरे काम करने चाहिए। आयोग ने मोरल पुलिसिंग शुरू कर दी है।
आयोग की सबसे आपत्तिजनक बात तो यह है कि लिव-इन में रहने वाली स्त्री को उपस्त्री कहना। उपस्त्री मतलब दुनिया समझती है। कोई बताए कि अपनी मर्ज़ी से अपने पुरुष साथी के साथ रहने वाली कोई स्त्री कैसे रखैल हुई
यह कौन-सी भाषा है आयोग की। क्या आयोग भाषा की तमीज भी भूल गया। ये स्त्री के अपमान का मामला बन सकता है।
दरअसल, आयोग भी इसी भारतीय समाज का आईना है जो हमेशा उपस्त्री का प्रावधान रखता रहा है, जहाँ उप-पुरुष की कोई अवधारणा नहीं होती। यह तो वैसे ही हो गया कि एक नगर में कोई स्त्री चरित्रहीन हो और सारे नागरिक चरित्रवान। आयोग की यह चिंता मूर्खतापूर्ण है। किसी व्यस्क नागरिक का जीने का हक आप नहीं छीन सकते। यह फ़ैसला नागरिक पर ही छोड़ा जाए कि वह अकेले जीना चाहता है या किसी साथी के साथ। आज लिव-इन पर समस्या है, कल को सिंगल वीमेन पर आवाज़ उठेगी। क्या क़ानून बना कर विवाह को अनिवार्य कर देंगे
क्या हरेक बालिग लड़की को विवाह करना आवश्यक होगा क्या कोई लड़की एकल जीवन नहीं चुन सकती।
‘वैवाहिक संस्था’ से मोहभंग क्यों
सोचना हो तो इस दिशा में सोचिए कि आपके ‘वैवाहिक संस्था’ से युवा पीढ़ी का या ख़ास ग्रुप का मोहभंग क्यों हो रहा है क्यों वे धारा के विरुद्ध जाकर रिश्ते बुन और चुन रहे हैं कहीं न कहीं उन्हें संबंधों के भीतर आज़ादी का अनुभव होता है, अहसास होता है। जहाँ वे दोयम दर्जे की नहीं समझी जाती हैं, जहाँ उसकी ज़िंदगी पर किसी का स्वामित्व नहीं होता है।
विवाह ने क्या दिया एक स्त्री को जो लिव-इन नहीं दे सकता। जब क़ानून उसे महत्व दे रहा है, वैध क़रार दे रहा है, विवाह के सारे क़ानून उस पर लागू हैं फिर कहाँ दिक़्क़त है। और क्यों नैतिकता के ये नए ठेकेदार अपनी ही संस्कृति के विरुद्ध क्यों चले जा रहे हैं। पुराण कथाएँ तो ऐसे ही संबंधों और विवाहों से भरी पड़ी हैं। प्रेम अनैतिक होता ही नहीं। जबरन संबंध थोपने और संबंध के नाम पर स्त्री को कैदी बना देने से बढ़कर कुछ भी अनैतिक नहीं हो सकता।
बेहतर हो, नैतिकता के ठेकेदार अपनी प्राचीन सभ्यताओं के पन्ने पढ़ लें। संस्कृति के सारे अध्याय खंगालें। उस दौर में जाएँ जब स्त्री को कितनी आज़ादी थी कि वह अपनी मर्ज़ी से अपना साथी चुन सकती थी और चुपके से विवाह कर के संतान तक पैदा कर लेती थी। क्या हम उन्हें खारिज कर सकते हैं
लिव-इन को प्रोमोट क्यों नहीं करते
अब आते हैं, स्त्री सुरक्षा पर। इतनी ही चिंता है तो लिव-इन को प्रोमोट करें। बढ़ावा दें। सामाजिक मान्यता दें। उससे इनकार न करें। क्या पितृसत्ता उस दौर की वापसी चाहती है जब सामंत लोग अपने लिए एक उपस्त्री का प्रावधान रखते थे। मजबूर स्त्रियाँ उपस्त्री बन कर सदियों धनाढ्यों की यौन प्रताड़ना झेलती रही हैं। उनके मनोरंजक खेल का हिस्सा रही हैं। उनकी देह, दिमाग तक सब कब्जे में। अब वे दिन लद गए। जमींदारी गई, मनोरंजन के स्थल जमींदोज हुए, आर्थिक हालात बिगड़े, उनके चंगुल से उपस्त्रियाँ छूट गईं।
उन स्त्रियों की तुलना आज की सचेतन, अधिकार सजग, चेतना संपन्न स्त्रियों से करना महाधृष्टता है। घोर आत्तिजनक है। स्त्री समुदाय को गाली है।