मुखर आलोचक भी अब राहुल गांधी के कसीदे क्यों पढ़ रहे हैं?
विक्टर ह्यूगो का एक मशहूर कथन है कि दुनिया की कोई ताक़त उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया है। व्यक्ति जब विचार बन जाए तो फिर उसे भी समय आने पर नहीं रोका जा सकता। राहुल गांधी आज एक व्यक्ति से बढ़कर विचार बन चुके हैं। एक ऐसा विचार; जो देश में मोहब्बत की दुकान खोलना चाहता है। हिंसा मिटाना चाहता है। नफरत की दीवारें गिराकर लोगों को जोड़ना चाहता है। सम्मान और सौहार्द के साथ देश के लोगों को भारत के विकास की मुख्यधारा में शामिल करना चाहता है। राहुल गांधी आज समाजवादी मूल्यों और सामाजिक न्याय की राजनीति के नायक बन चुके हैं। वह राहुल गांधी जो चांदी नहीं बल्कि सोने की चम्मच लेकर के पैदा हुए हैं। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी; तीन प्रधानमंत्री वाले परिवार में जन्मे राहुल गांधी सत्तापरक राजनीति से हमेशा दूर रहे। 2004 से लेकर 2014 के बीच रही यूपीए सरकार में राहुल गांधी मंत्री बन सकते थे और प्रधानमंत्री भी हो सकते थे। लेकिन उन्होंने एक सांसद और पार्टी कार्यकर्ता के रूप में अपना सफर जारी रखा।
जो भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस आज सत्ता में है, टकटकी लगाए यूपीए सरकार की उपलब्धियों और उसके भीतर के अंतरविरोधों को देख रही थी। 2012-13 में एक छद्म आंदोलन खड़ा किया गया। इसके जरिए यूपीए सरकार नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी और उसके नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी को सबसे ज्यादा निशाना बनाया गया। एक अनुमान के मुताबिक राहुल गांधी के कद और छवि को बिगाड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने कॉर्पोरेट घरानों के सहारे प्रतिवर्ष 500 करोड़ रुपए ख़र्च किए। नतीजा यह हुआ कि सारे देश में राहुल गांधी को कमजोर नेता, परिवारवादी शहजादे के रूप में प्रचारित किया गया। व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक और तमाम सोशल मीडिया माध्यमों से राहुल गांधी की छवि को धूमिल किया जा रहा था। लोग इसके शिकार हो रहे थे। वे नहीं समझ पा रहे थे कि उस नफरत से देश को कितना बड़ा नुक़सान उठाना पड़ सकता है। राहुल गांधी के खिलाफ दुष्प्रचार के अंधेरे में झूठ और लूट का पूरा साम्राज्य खड़ा किया गया।
इसी झूठ और लूट के सहारे अंबानी और अडानी दुनिया के बड़े धनपति कुबेर बनकर उभरे। जबकि दूसरी तरफ 81 करोड़ लोग भूख और गरीबी के दलदल में धंसते चले गए। इतिहास के प्रसंगों से लेकर वर्तमान मुस्लिम समाज, धर्म और उनके पूजा स्थलों को लगातार टारगेट करके साम्प्रदायिक नफरत फैलाई गई। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म द्वारा सम्प्रदायिक छवियों को लोगों की आंखों में झोंका जाता रहा। इसलिए वे नहीं देख पा रहे थे कि महंगाई के कारण उनकी थाली से आधा भोजन गायब हो गया। उनके बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा ख़त्म कर दी गई।
जो नरेंद्र मोदी 2 करोड़ प्रतिवर्ष रोजगार का वादा करके आए थे, सरकारी नौकरियों पर कुंडली मारकर बैठ गए। उन्हें विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले नौजवान नहीं चाहिए थे, बल्कि नफ़रत की ध्वजा पताका लहराने वाली विध्वंसक और कुंठा की शिकार एक ऐसी भीड़ चाहिए थी जिसे कहीं भी झोंका जा सके। एक ऐसी भीड़ जो झंडा और डंडा लेकर मोदी की सत्ता के लिए रास्ता बनाए। राहुल गांधी ऐसे तमाम नौजवानों के लिए नफरत के केंद्र बन चुके थे। उनके जेहन में राहुल गांधी के प्रति इतनी नफरत भरी गई थी कि वे अपना वर्तमान और भविष्य नहीं देख पा रहे थे। अलबत्ता, राहुल गांधी इस नफरत को मिटाने और नौजवानों को जगाने के लिए पैदल चल पड़ते हैं।
कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में राहुल गांधी ने नाउम्मीद हो चुके देश के लोगों में उम्मीद और आशा पैदा की। इस यात्रा के दरम्यान राहुल गांधी ने देश के मिजाज को बारीकी से समझा। घृणा और कुंठा को रचनात्मक ऊर्जा में तब्दील करने के लिए राहुल गांधी संदेश देते रहे। इसके बाद पुनः राहुल गांधी एक नई यात्रा यानी ‘न्याय यात्रा’ पर निकल पड़े। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लिए मणिपुर से मुंबई की इस यात्रा में राहुल गांधी ने प्यार और मोहब्बत के साथ अधिकारों की बात की।
लोकसभा चुनाव के दरमियान राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी द्वारा हो रहे भारत के संविधान पर हमले का मजबूती से सामना किया।
अपने हाथ में बाबासाहेब आंबेडकर का संविधान लेकर राहुल गांधी ने लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए बीजेपी और आरएसएस की हिंदुत्ववादी राजनीति को हराने का आह्वान किया। नतीजा यह हुआ कि जो 'अबकी बार 400 पार का नारा दे रहे थे और संविधान बदलने की मुनादी कर रहे थे, वह 240 पर सिमट गए। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस पार्टी को भले ही 99 सीटें मिली हों लेकिन चुनाव के मैन ऑफ द मैच राहुल गांधी रहे। इसके बाद राहुल गांधी ने लीडर ऑफ अपोजिशन की जिम्मेदारी संभाली।
संसद से लेकर सड़क तक राहुल गांधी गरीबों- वंचितों के हक में और देश के संसाधनों पर होने वाली लूट के खिलाफ डटकर खड़े हुए। राहुल गांधी का एक-एक भाषण लोगों के जेहन में घर करने लगा। चुनाव के बाद भी लगातार उनकी यात्राएं जारी हैं। आज राहुल गांधी सिर्फ एक व्यक्ति नहीं बल्कि विचार बन गए हैं। एक ऐसा विचार जो फासीवादी हिंदुत्व से सीधे मुकाबले में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हक-हुकुम की लड़ाई लड़ रहा है। तमाम ऐसे लोग जो पिछले 10-15 साल से नरेंद्र मोदी के भक्त और राहुल गांधी के मुखर आलोचक थे, वे भी आज राहुल गांधी के कसीदे पढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, अब तो भाजपा के भीतर भी राहुल गांधी के प्रशंसक पैदा हो गए हैं। हालिया उदाहरण स्मृति ईरानी का है।
स्मृति ईरानी की पूरी राजनीति राहुल गांधी के खिलाफ ही विकसित हुई है। जिन्होंने हमेशा राहुल गांधी का मजाक उड़ाया और अपमान किया, वे स्मृति ईरानी आज राहुल गांधी की राजनीति को गंभीरता से लेने की बात कर रही हैं। चेतन भगत हों या कुमार विश्वास या फिर स्मृति ईरानी आज ये सब राहुल गांधी की सादगी, उनके संघर्ष और साधारण लोगों के साथ खड़े होने को अच्छी राजनीति कह रहे हैं। आज राहुल गांधी भले ही प्रधानमंत्री नहीं हों लेकिन देश के लोगों के सर्वप्रिय नेता और संरक्षक के रूप में वे ही समादृत हैं। भविष्य में वह प्रधानमंत्री होंगे या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि राहुल गांधी खुद सत्ता की राजनीति से दूर सत्य की राजनीति कर रहे हैं। एक ऐसा सत्य जिसे आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी सत्याग्रह के जरिए हासिल करना चाहते थे, जिसे नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की संकल्पना में पाला पोसा था। एक ऐसा सत्य जिसे डॉ. आंबेडकर ने संविधान के ज़रिए लोगों के अधिकारों में पिरोया। हजारों साल की वंचना और पराधीनता से मुक्त करके अधिकार देने वाले संविधान के सत्य पर आगे बढ़ते हुए राहुल गांधी आज एक ऐसी शख्सियत बन चुके हैं जिन्हें अब ना तो रोका जा सकता है और ना ही नजरअंदाज किया जा सकता है।