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राहुल ने क्यों कहा- लाएंगे हिन्दुओं का राज?

राहुल ने क्यों कहा- लाएंगे हिन्दुओं का राज?

जयपुर में कांग्रेस की महंगाई हटाओ महारैली में हिंदू और हिंदुत्व की परिभाषा स्पष्ट करने के पीछे राहुल गांधी का मक़सद क्या था? इसको किस नज़रिये से देखा जाए?

हिन्दू मतलब महात्मा गांधी, हिन्दुत्व मतलब नाथूराम गोडसे- राहुल गांधी ने नये अंदाज में हिन्दू और हिन्दुत्व की परिभाषा गढ़कर हिन्दू नामधारी सियासत के समक्ष बड़ी चुनौती पेश कर दी है। ऐसा करके उन्होंने सीधे तौर पर यह ख़तरा मोल लिया है कि उन्हें हिन्दू विरोधी कहा जाए, हिंदू या सनातन धर्म के बारे में नासमझ समझा जाए या फिर उन्हें अन्य धर्मों के बारे में बेखौफ रहने को लेकर कायर बता दिया जाए।

कहने की ज़रूरत नहीं कि राहुल विरोधी या संघ-बीजेपी समर्थक कांग्रेस समेत ग़ैर बीजेपी कुनबे में भरे पड़े हैं। राहुल गांधी चाहे कुछ भी बोलें, यह कुनबा उन्हें ग़लत ही ठहराएगा- यह तय है।

एक सोच यह है कि राहुल गांधी ने बीजेपी की ही पिच पर खेल खेला है। लिहाजा फायदा बीजेपी को होगा। लेकिन, क्या वाक़ई ऐसा ही होगा? खेल की समझ रखने वाले यह भी जानते हैं कि मुश्किल और आसान क्या होता है- दूसरे की पिच पर जाकर आक्रामक खेलना या अपनी ही पिच पर अच्छा प्रदर्शन करना? बेहतर खिलाड़ी कौन है- जो दूसरे की पिच पर अच्छा खेले या कि अपनी ही पिच पर? हर हाल में अच्छा खेलना अच्छे खिलाड़ी की पहचान होती है। 

जयपुर में राहुल गांधी ने हिन्दू और हिन्दुत्व का फर्क बताया। पहले भी वे ऐसा कर चुके हैं। लेकिन, इस बार संदेश में स्पष्टता थी- “हिन्दू मतलब सत्य की खोज में जीवन खपा देने वाला, हिन्दुत्व मतलब सत्ता के लिए ऐसे सत्यान्वेषी बापू का क़त्ल करने वाला।”

राहुल गांधी ने हिन्दू और हिन्दुत्व का फर्क जिस आसान अंदाज़ में समझाया है उससे बीजेपी सकते में है। सहिष्णुता का प्रतीक है हिन्दू तो आक्रामकता का प्रतीक है हिन्दुत्व।

राहुल ने सियासत में मचा दी है खलबली

थोड़ा और समझें तो राहुल गांधी ने एक साथ दो क़िस्म के लोगों को बेचैन कर दिया है। एक कुनबा है सत्ताधारी दल बीजेपी, आरएसएस और गोदी मीडिया का, जो हिन्दू और हिन्दुत्व पर बोलने को स्वयंसिद्ध अधिकार समझते हैं और इस विषय पर कोई और मुंह खोले तो यह बात उन्हें मंजूर नहीं होती।

दूसरा कुनबा वह है जो विपक्ष में दिखता ज़रूर है लेकिन कुछ करने के लिए राहुल गांधी की ओर ही मुँह तकता रहता है। इस कुनबे का ख़ुद का योगदान कुछ भी नहीं होता। विश्वास की कमी के कारण यह कुनबा राहुल गांधी के हर क़दम में खोट भी निकालता है ताकि असफलता की स्थिति में वे उन्हें कोसने का अधिकार बचाए रख सके। 

क्या हिन्दू और हिन्दुत्व की मनमानी व्याख्या का हक दक्षिणपंथी सियासतदानों के हवाले ही रहना चाहिए? अब तक चुनौतीविहीन तरीक़े से ऐसे तत्वों ने हिन्दू और हिन्दुत्व का इस्तेमाल किया है।

भारत और भारतीयता की तरह शाब्दिक अर्थ में हिन्दू और हिन्दुत्व को मान लिया जाए- इस सोच के साथ राहुल विरोधी दक्षिणपंथी सियासतदानों का साथ दे रहे हैं। लेकिन, राहुल गांधी ने हक़ीकत बयाँ कर हिन्दू और हिन्दुत्व की धारा को स्पष्ट कर दिया है।

एक बार फिर क्रिकेट की भाषा में बात करते हैं। राहुल के बयान को स्लॉग ओवर में की गयी बैटिंग कहें तो ज़्यादा बेहतर है। इसे ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ या फिर ‘करो या मरो’ की भावना से भी जोड़ा जा सकता है। ऐसे कुछेक शॉट समय-समय पर लगा देने के बाद मैच आसान हो जाता है और जीत की ओर क़दम बढ़ जाते हैं। 

हिन्दू-हिन्दुत्व तक सीमित नहीं रहेगा यह विमर्श 

राहुल ने जो विमर्श छेड़ा है वह हिन्दू-हिन्दुत्व तक सीमित रहने वाला नहीं है। यह राष्ट्रवाद और देशभक्ति तक भी पहुँचेगी। अगर राहुल गांधी इस सोच के साथ सामने आते हैं कि वे राष्ट्रवादी नहीं बनना चाहते क्योंकि हिटलर भी राष्ट्रवादी था और किम इल जोंग भी और शी जिनपिंग भी; तो यह सोच राष्ट्रवाद को लेकर परंपरागत सोच को निश्चित रूप से बाग़ी महसूस होगी।

राहुल गांधी की यह बात कई लोगों को अप्रिय लग सकती है कि हिन्दुत्ववादियों को पराजित कर फिर से हिन्दुओं का राज कायम किया जाए। फौरी तौर पर ऐसा ज़रूर लगता है कि यह हिन्दुत्व और सॉफ्ट हिन्दुत्व का मामला है क्योंकि लोकतंत्र में ‘हिन्दुओं का राज’ प्रकारांतर से ख़तरनाक हिन्दुत्व ही है जिस पर खुद राहुल हमला कर रहे हैं। इससे पहले राहुल गांधी की ओर से जनेऊ पहनने का सार्वजनिक दिखावा या फिर अपना गोत्र बताना भी सॉफ्ट हिन्दुत्व माना गया था। हालाँकि ऐसा कहते वक़्त यह सतर्कता ज़रूरी है कि हिन्दुत्व दूसरों को परेशान करता है, वह जान लेता है और राहुल की भाषा में वह गोडसे का मार्ग है।

 - Satya Hindi

राहुल ने सॉफ्ट हिन्दुत्व को भी खारिज किया

राहुल ने हिन्दुत्व पर हमला करके इस बात को भी खारिज किया है कि वे सॉफ्ट हिन्दुत्व के मार्ग पर चलना चाहते हैं। इस बात की समीक्षा ज़रूरी है कि क्या राहुल गांधी खुद हिन्दुत्व की राह पर हैं जो उस हिन्दुत्व से थोड़ा अलग है जिसके साथ बीजेपी-संघ का कुनबा है और यह हिन्दुत्व सॉफ्ट या हार्ड में सियासी रूप में बँट गया है? अगर राहुल गांधी सॉफ्ट हिन्दुत्व की राह पर हैं तो ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल भी उसी राह पर क्यों नहीं हैं?

विपक्ष के बाक़ी नेताओं और राहुल गांधी में एक फर्क ज़रूर है कि राहुल को छोड़कर किसी नेता ने कभी ‘हिन्दुओं का राज’ लाने की बात नहीं कही। आखिर राहुल एक साथ हिन्दुत्व का प्रतिकार और ‘हिन्दुओं का राज’ लाने की बात क्यों करते हैं?

‘हिन्दुओं का राज’ का मतलब है गांधी का राज?

चूँकि कांग्रेस ने देश की विभिन्न पार्टियों के मुक़ाबले कट्टरवाद का सबसे अधिक मुक़ाबला किया है। हिन्दुस्तान से पाकिस्तान के अलग होते वक़्त भी कट्टरवाद से लड़ने का काम कांग्रेस ने ही किया था। लंबे समय तक हिन्दुस्तान में शासन करने वाली पार्टी भी कांग्रेस है। ऐसे में यह समूचा काल किसी धर्म का विरोधी रहा हो- इसे कांग्रेस या राहुल गांधी नहीं मान सकते। 

लिहाजा राहुल गांधी सही फरमा रहे हैं कि वह दौर ‘हिन्दुओं का राज’ वाला दौर था लेकिन हिन्दू का मतलब गांधी है ना कि गोडसे। सहानुभूतिपूर्वक सोचें तो राहुल गांधी ‘हिन्दुओं का राज’ लाने की बात कहकर गांधी का राज लाने का दर्शन सामने रख रहे हैं। जाहिर है यह हिन्दुत्व का मार्ग नहीं है।

वास्तव में राहुल गांधी के ‘हिन्दुओं का राज’ लाने का मतलब यह है कि बीजेपी जो हिन्दुओं का राज कायम करने का दावा करती रही है, वह ग़लत है। ‘हिन्दुओं का राज’ तब आएगा जब हिन्दुत्ववादी ताक़तें परास्त होंगी।

जनेऊ दिखाते राहुल गांधी अब सॉफ्ट हिन्दुत्व के रास्ते पर चलते नहीं दिखाई देते बल्कि कट्टरपंथ की सोच पर हमला करते हुए आक्रामक हिन्दूवादी बनकर सामने हैं। राहुल के तेवर में यह बड़ा बदलाव है। इस बदलाव का मतलब यह है कि राहुल ने मान लिया है कि वे परंपरागत तरीक़ों से बीजेपी का मुक़ाबला नहीं कर सकते। उन्हें उसी अंदाज में बीजेपी पर हमले करने होंगे जिस अंदाज़ में बीजेपी हमले बोल रही है।

सच यह है कि हिन्दुत्व का मुक़ाबला करने के लिए या सियासत में हिन्दू या सनातन धर्म के दुरुपयोग को रोकने के लिए राहुल, ममता, अखिलेश या केजरीवाल के लिए ऐसा करना अपरिहार्य हो चुका है। कट्टर हिन्दुत्व की धारा ने इन नेताओं पर हिन्दू विरोधी होने का ख़तरा पैदा कर दिया है। मुल्ला मुलायम, बेगम बनर्जी, राहुल खान जैसे तमगे इसका प्रमाण हैं। फिर भी यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राहुल गांधी जिस रास्ते पर कांग्रेस को ले चल रहे हैं वह परंपरागत रास्ता नहीं है। यह वक़्त के अनुरूप अपनाया गया नया मार्ग है।

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