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जनगणना से क्यों डर रही है सरकार?

जनगणना से क्यों डर रही है सरकार?

जिस जनगणना को विश्व युद्ध के दौरान भी रोका नहीं जा सका है, उसको आख़िर अब तक क्यों नहीं कराया गया? क्या विपक्ष के नेता के तौर पर इसको उठाने की ज़िम्मेदारी राहुल गांधी की नहीं है?

बजट से जुड़ा हलवा बाँटने वाले और हलवा खाने के रुपक के सहारे बात को जातिगत जनगणना तक ले जाने वाले राहुल गांधी ने अपनी राजनीति चल दी। अब इसका कितने लोगों पर कैसा असर हो रहा है इसका हिसाब अलग-अलग हो सकता है, लेकिन भाजपा पर इसका प्रभाव काफी पड़ा है। उसकी तरफ़ से राजनीति को हिन्दू-मुसलमान लाइन पर ले जाने का प्रयास बंद नहीं हुआ है लेकिन अब वह हर बात में जाति के सवाल को महत्व देने लगी है और राहुल गांधी तथा कांग्रेस को ही नहीं समाजवादी पार्टी और राजद को ही पिछड़ा और दलित विरोधी बताने का प्रयास भी कर रही है। लेकिन निश्चित रूप से वह जातिगत जनगणना के खिलाफ है और इसकी कोई उपयोगिता नहीं मानती-भले उसने बिहार में हुई जातिगत जनगणना का समर्थन किया था। लेकिन राहुल गांधी को अपनी इस राजनैतिक रणनीति या भाजपा की घेराबंदी में एक बार भी याद नहीं आया कि देश में वह सामान्य जनगणना भी नहीं हुई है जो विश्वयुद्ध के दौरान भी नहीं रुकी थी। और सरकार ने जिस करोना के नाम पर जनगणना रोकी थी (हालांकि दुनिया में ऐसा सिर्फ दो अन्य देशों में ही हुआ था) उसे गए जमाना हो गया है और अब आम चुनाव समेत सब काम रूटीन पर लौट आया है।

विपक्ष का नेता होने के चलते राहुल को यह पूछने की ज़रूरत थी क्योंकि इस बजट में भी जनगणना के लिए धन का प्रावधान नहीं हुआ है- यह रक़म पहले से कम कर दी गई है। और तब भले गृहराज्य मंत्री ने सदन में और गृह मंत्री ने बाहर कोरोना के चलते जनगणना रोकने और ज़्यादा व्यापक सवालों के साथ जनगणना कराने की बात कही हो, अब तो सरकार के अधिकारी कहने लगे हैं कि 1948 के जनगणना क़ानून में इस बात का कोई प्रावधान नहीं है कि हर दस साल पर अनिवार्य रूप से जनगणना हो ही। संभवत: ऐसा है भी लेकिन पिछले डेढ़ सौ साल की जनगणना की परंपरा और उसकी रोजाना के काम की उपयोगिता ने हमारे लिए क़ानून के पन्ने पलटने की ज़रूरत नहीं छोड़ी थी। चुनाव के क्षेत्र निर्धारण से लेकर सरकारी नीतियाँ बनाने और संसाधनों के आवंटन तथा आगे होने वाले हर सर्वेक्षण में जनगणना के आँकड़ों को आधार बनाने की आदत हमारे मन मस्तिष्क में इस तरह समा गई है कि हम सोच भी नहीं सकते कि अच्छे दिन लाने और देश को विकसित दुनिया की बराबरी पर लाने और विश्व गुरु बनाने के दावे करने वाली सरकार जनगणना रोक देगी।

इस सरकार का आँकड़ों से ‘बैर’ अब छुपा नहीं है। उसने जाने कितने आँकड़े जुटाने का काम रोका है, कितने जुटे आँकड़ों को प्रकाशित नहीं होने दिया है, कितने ही दूसरे अनुमानों को झुठलाया है, जीडीपी की गणना से लेकर न जाने किस किस हिसाब का आधार ही बदल दिया है। इन सबसे हमारे सारे आँकड़े संदेहास्पद हो गए हैं जबकि ब्रिटिश शासन काल से ही महा-सांख्यिकी लेखाकार के अधीन आँकड़े जमा करने की एक मजबूत व्यवस्था के अभी तक काम करते जाने के चलते दुनिया में हमारे आंकड़ों को बहुत सम्मान से देखा जाता था। और हद तो तब हो गई जब सरकार ने जीएसटी कर वसूली के निरंतर बढ़ते जा रहे आंकड़ों और कर वसूली बढ़ने के आंकड़ों को सर्वजनिक करने पर रोक लगा दी। देश विदेश के विभिन्न संस्थानों द्वारा जैसे जैसे जुटाए आँकड़े जब सरकार के पक्ष में होते हैं तो उनका शोर मचाया जाता है वरना उनको खारिज कर दिया जाता है। और बुनियादी दिक्कत यह है कि जब पंद्रह साल पुरानी जनगणना को रैंडम सैंपलिंग के लिए कितनी भी ईमानदरी से इस्तेमाल किया जाए तो नतीजे गलत आने की पूरी गुंजाइश है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण हो या परिवार स्वास्थ्य या उपभोग सर्वेक्षण, सभी जनगणना के आंकड़ों को ही आधार बनाते हैं।

पर जनगणना का काम सिर्फ दूसरे सर्वेक्षणों का आधार बनना या उनकी पृष्ठभूमि तैयार करना नहीं है। उसका काम है देश की आबादी का, उसके आर्थिक, सामाजिक, भौतिक जीवन की वास्तविकता को सामने लाना। मकान की गिनती और स्थिति से शुरू होकर अब यह परिवार और व्यक्ति को लेकर बीसियों सूचनाएं जुटाता है और फिर उनको जमा करने के साथ वर्गीकृत करता है, विश्लेषित करता है। और अगर अमित शाह की कुछ समय पहले कही बात अब भी सच है तो इस बार की जनगणना में कुछ और नई जानकारियां जुटाने का काम होना है। इनके आधार पर ग्राम पंचायत और शहर के वार्ड से लेकर पंचायत और नगरपालिका, विधान सभा और संसदीय क्षेत्र का आकार-प्रकार बदला और तय किया जाता है। इनके आधार पर शहरी घोषित हो गए गाँव और कस्बे में सुविधाओं और क़ायदे-क़ानून में बदलाव होता है। जिन आंकड़ों के आधार पर सरकार और स्वशासी संस्थाओं के बजट का आवंटन होता है। 

कई जानकारों का अनुमान है कि जिन पैमानों पर सरकार 81.5 करोड़ लोगों को आज मुफ़्त राशन दे रही है, अगर आबादी के नए हिसाब (अनुमान ही) को ध्यान में रखा जाए तो 93 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन मिलना चाहिए। अब राजनैतिक मजबूरी के चलते सरकार बिहार जैसे पिछड़े राज्य को जो धन दे रही है वह काम काफी पहले हो जाना चाहिए था।

लेकिन इससे भी बड़ी बात संसदीय क्षेत्रों का पुनर्गठन, समाज के विभिन्न जमातों में आबादी की वृद्धि की रफ्तार, गरीबी कम-ज्यादा होने का हिसाब, मकान-दुकान-वाहन-खेती-संपत्ति का हिसाब है। सरकार इसमें से कई का हिसाब सामने आना देना नहीं चाहती। इससे उसकी राजनीति कमजोर होगी (खासकर मुसलमानों की आबादी बढ़ाने की रफ्तार की असलियत से), दक्षिण और उत्तर के राज्यों के बीच संसदीय क्षेत्रों के पुनर्गठन और उनकी संख्या घटने-बढ़ने के सवाल पर उलझ जाएगी। इस बार की जनगणना रोकना राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और सीएए जैसे विवादास्पद प्रावधानों की उलझन के चलते हुआ है। 

इन दो कानूनी प्रावधानों की जो दुर्गति हुई है, सब देख रहे हैं। कुछ दर्जन केस भी सामने नहीं आए हैं। नागरिकता के उलझे सवाल पर सरकारी नज़रिए का दोष जाहिर हुआ है और राजनैतिक लाभ की जगह घाटा हो गया है। यह भी हुआ कि जैसे ही सरकार ने जनगणना के साथ जनसांख्यिकी रजिस्टर और नागरिकता रजिस्टर वाली बात उठायी, अनेक राज्यों ने विरोध कर दिया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो एनआरसी वाली जानकारी भरने वाले जनगणाकारों का घेराव और धर-पकड़ का आह्वान कर दिया था। सरकार इससे भी डर गई। सरकार के डरने और जनगणना रोकने का तीसरा कारण जातिगत जनगणना की मांग हो सकती है। राहुल ने वह काम तो नेता विपक्ष बनकर कर दिया है लेकिन जनगणना की मांग को छोड़ दिया।

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