क्या राहुल यात्रा के ज़रिये ‘लोक’ से जुड़ पा रहे हैं?
राहुल गांधी के नेतृत्व में चल रही भारत जोड़ो यात्रा अपने गंतव्य से अब कुछ ही दूर है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और यूपी से गुजरते हुए लगभग 3200 किलोमीटर की पैदल यात्रा पूरी करके राहुल गांधी हरियाणा पहुँच चुके हैं।
यहाँ से वे पंजाब होते हुए जम्मू कश्मीर पहुंचकर 26 जनवरी को श्रीनगर में तिरंगा फहराएंगे। 3570 किलोमीटर की साहसिक पैदल यात्रा ऐतिहासिक तो है ही, संभव है गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज हो।
निस्संदेह, भारत जोड़ो यात्रा ने देश के कथानक (नैरेटिव) को बदला है। तमाम डिजिटल प्लेटफॉर्म- सोशल मीडिया आदि से लेकर इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी भारत जोड़ो यात्रा की खूब चर्चा हो रही है। लेकिन भारत जोड़ो यात्रा ने कितना भारत जोड़ा है, यह प्रश्न अभी अनुत्तरित है।
भारत जोड़ो यात्रा कई मायनों में स्मरणीय है। बारिश में भाषण देते हुए राहुल गाँधी को देखकर सबका मन भीग गया है। राहुल गाँधी निरंतर बच्चों को दुलारते, बुजुर्गों को गले लगाते और नौजवानों को संबल देते हुए दिख रहे हैं। महिलाओं के साथ पूरे विश्वास और सहजता के साथ राहुल गाँधी चल रहे हैं। माँ सोनिया गांधी के जूतों के फीते बांधते और बहन प्रियंका गांधी को स्नेह करते राहुल गाँधी की तस्वीरें भावुक करने वाली हैं। जाहिर तौर पर इस यात्रा में राहुल गाँधी भावनात्मक तौर पर लोगों से जुड़ रहे हैं लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि इस भारत जोड़ो यात्रा के बाद क्या होगा? यात्रा से उपजा लोगों का उत्साह और उनकी उम्मीदें क्या बरकरार रहेंगी?
भाजपा के सूचना तंत्र और कारपोरेट मीडिया द्वारा डर और नफरत के जरिए समाज को बांटने के नेरेटिव में कहीं इस यात्रा का संदेश गायब तो नहीं हो जाएगा? राहुल गाँधी की छवियाँ सोशल मीडिया पर रहेंगी लेकिन क्या लोगों के दिलों में भी वे ठहरेंगी? दरअसल, लोग इन छवियों में खुद को तलाशेंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि राहुल गांधी लोगों से कनेक्ट को क्या 'लोक' में तब्दील कर पाए हैं?
लोगों के जेहन में लोक बसता है। उस लोक में दाखिल हुए बिना स्मृतियों की निरंतरता को कायम रखना मुमकिन नहीं है। लोक स्मृति में किस्से- कहानियाँ रमते हैं। लेकिन क्या राहुल गांधी किस्सों को गढ़ पाए हैं? अगर लोगों के बीच या कहिए लोक में राहुल गाँधी के किस्से नहीं होंगे तो उनकी छवियाँ स्मृति से जल्द ही गायब हो जाएंगी।चर्चित पत्रिका कारवाँ के पत्रकार सुनील कश्यप लिखते हैं, “भारत जोड़ो यात्रा 3 हजार किलोमीटर से ज्यादा चल चुकी है। 111 दिनों का यह सफर है। पर इसके यात्री राहुल गांधी के पास इस यात्रा का कोई किस्सा (कहानी जो लोगों की प्रेरणा से यात्रा में बनती है) नहीं है। जब ये यात्रा शुरू हो रही थी, हम लोग बात करते थे, राहुल गांधी पहली बार मेहनत करने जा रहे हैं और साथ ही बड़ी बात ये होगी कि उनके पास कितने शब्द होंगे, कितने किस्से-कहानियां होंगे; जो यात्रा में सुनाए जाएंगे; लोगों में संभावना और उम्मीद पैदा करेंगे। लेकिन मुझे ऐसा कुछ यात्रा में नजर नहीं आ रहा है, जो आशा और उम्मीद पैदा करे।"
अलबत्ता ऐसा नहीं है कि किस्से कहानियों के लिए राहुल गांधी को लोगों ने अवसर नहीं दिए। कर्नाटक में राहुल गांधी एक विकलांग नौजवान के साथ चले। दोनों हाथ नहीं होने के बावजूद वह साइकिल का पंचर लगाता है, फुटबॉल खेलता है। दुश्वारियों के साथ जीवन के उल्लास की उस नौजवान की कहानी लोगों में उत्साह और ऊर्जा पैदा करती। इस विकलांग नौजवान की कहानी कर्ज से हारते किसानों और बेरोजगारी के बोझ से निराश करोड़ों नौजवानों के लिए प्रेरक हो सकती है।
कर्नाटक और मध्य प्रदेश में बैसाखी और व्हील चेयर पर चलते दर्जनों विकलांग भारत जोड़ो यात्रा में चले। राहुल गाँधी ने बहुत धैर्य से इनसे बात की। मुश्किलों से जूझते हुए निरंतर बढ़ते जाना ही जीवन है। जिंदगी ठहराव नहीं परिवर्तन का नाम है। इस लिहाज से यह यात्रा सम्मानजनक जीवन के लिए राजनीतिक परिवर्तन का माध्यम बन सकती है।
अपने अगले पड़ाव पर राहुल गांधी तेलंगाना में रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला और उसके परिवार से मिले। भारत जोड़ने के लिए साथ चलती राधिका वेमुला से सुनी रोहित वेमुला के जीवन संघर्ष और आकांक्षाओं की कहानी को अगर राहुल गांधी दूसरे स्थानों पर कहते तो नौजवान होती दलित पीढ़ी सीधे तौर पर उनसे जुड़ती। हालांकि राहुल गांधी मध्य प्रदेश में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की जन्मस्थली महू गए। यहाँ उन्होंने दलितों के जीवन से जुड़ी कुछ कहानियाँ सुनाईं। लेकिन रोहित वेमुला की मां के साथ संवाद को राहुल गाँधी ने यहाँ भी याद नहीं किया। रोहित वेमुला की स्मृति के जरिए हिंदुत्ववादी सरकार में दलितों पर होने वाले जुल्म और अन्याय को रेखांकित करके सामाजिक न्याय के प्रश्न को बुलंद किया जा सकता है।
इसके बाद राजस्थान में राहुल गांधी औरतों के साथ हाथ वाली मशीन से चारा काटते हुए दिखे। बेहद सहजता से संवाद करते, हंसते मुस्कुराते राहुल गांधी की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर कुछ समय तक तैरते रहे। उत्तर भारत की आदिवासी,दलित और पिछड़े समुदाय की औरतों की मेहनतकश जिंदगी बहुत संघर्षमय है। लकड़ियाँ बीनने, चारा काटने से लेकर खेतीबाड़ी और पशुपालन में लगी औरतें बेहद दुष्कर जीवन जीती हैं। राहुल गांधी इन महिलाओं के संघर्ष की कहानी अपने भाषणों में पिरोते तो करोड़ों महिलाएं खुद को इनमें निहारतीं।
भारत जोड़ो यात्रा में हर वय के लोग शामिल हो रहे हैं। एक तरफ बुजुर्गों के साथ पैदल चलते राहुल गाँधी गर्व और गंभीरता से लवरेज दिखते हैं तो वहीं दूसरी तरफ बच्चों के साथ वे उतने ही आह्लादित और खिलंदड़ अंदाज में दिखते हैं। कंधों पर उठाए बच्चों को दुलारते राहुल गाँधी एक रंगरेज की तरह लगते हैं जो अपनी कूची के हजारों रंगों से सुंदर सपनों को सजाने के लिए उतावला है।
कभी उम्मीदों की छलांग लगाकर बच्चे राहुल गाँधी को चूमते हैं। इन दृश्यों को देखकर पलभर के लिए दुर्निवार वर्तमान ठहर सा जाता है। कुछ बच्चों ने अपनी गुल्लक राहुल गाँधी को सौंपी। राहुल गाँधी इन बच्चों की दास्तान सुनाकर करोड़ों उम्मीदों, सपनों को पंख लगा सकते हैं। वैर और कटुता से भरे समाज में बच्चों की कहानियों से राहुल गाँधी लोगों के मन में इंद्रधनुष बना सकते हैं।
लोक में सिद्धांतों और विचारों से ज्यादा ताकतवर किस्से-कहानियाँ और मुहावरे होते हैं। ज्यादा सहजता और आसानी से जन सामान्य किस्सों कहावतों से कनेक्ट करता है। यात्रा में जुड़ने वालों के किस्सों के जरिए राहुल गाँधी लोक स्मृति में स्थाई जगह बना सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि उनके भाषण लिखने वालों को क्या लोकमानस की पहचान है? उनके रणनीतिकार राहुल गांधी को जन नेता बनाना चाहते हैं या मार्क्स (दाढ़ी में उनका गेटअप!) की तरह सिद्धांतकार अथवा चेग्वेरा की तरह संघर्षशील योद्धा बनाना चाहते हैं?
कुछ लोग राहुल गाँधी को सन्यासी बनाने पर उतारू हैं। भाजपा और आरएसएस के लोग भी यही चाहेंगे कि इस साहसिक यात्रा के बाद राहुल गाँधी को लोगों की नजरों में सन्यासी बना दिया जाए। संघ प्रचारक और रामजन्मभूमि ट्रस्ट के महासचिव चंपतराय के बयान को इस संदर्भ में समझा जा सकता है। चंपतराय ने राहुल गाँधी की प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रेरक करार दिया। आरएसएस ने गांधी और अंबेडकर जैसे अपने धुर विरोधियों को पहले ही प्रातः स्मरणीय बनाकर उनके विचारों को भोथरा बनाने की कोशिश की है। वे राहुल गांधी के साथ भी यही कर सकते हैं।
इसलिए चुनावी राजनीति में भाजपा को पराजित करने के लिए जरूरी है कि राहुल गांधी जननेता बनकर उभरें। इसके लिए जरूरी है कि यात्रा में उनसे जुड़ने वालों, संवाद करने वालों और चलने वालों के किस्से लोक में गूँजें। किस्से और मुहावरे लोक में छवियों को गाढ़ा करते हैं। उन्हें स्थाई बनाते हैं। लेकिन क्या राहुल गांधी अपनी अग्रिम यात्रा में ऐसा कर पाएंगे?