सरकारी कर्मचारियों को संघ में जाने पर रोक नहीं लगाई तो लोकतंत्र गंभीर संकट में!
सरकारी कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर 58 साल से लगा हुआ प्रतिबंध इस सरकार ने हटा लिया है। यह केन्द्र सरकार के संपूर्ण संघीकरण पर लगी हुई औपचारिक रोक को भी हटा कर समूची सरकारी ढाँचे पर संघ के निर्बाध प्रभाव-दबाव-वर्चस्व के ऐसे द्वार खोल देगा जिनको दूर करने में किसी वैकल्पिक सरकार को दशकों लग जाएँगे।
मुझे क्या आपत्ति है इस फ़ैसले पर?
संघ अगर केवल एक शुद्ध सांस्कृतिक संगठन होता जैसे रामकृष्ण मिशन है, चिन्मय मिशन है, भारतीय विद्या भवन है, तमाम धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन हैं तो उसपर प्रतिबंध लगता ही नहीं। ये संगठन धर्म-कार्य करते हैं, समाज सेवा करते हैं, हमारे धर्मग्रंथों-दर्शनों-आध्यामिक विषयों पर अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें, टीकाएँ प्रकाशित करते हैं। इनके भी पूर्णकालिक स्वयंसेवक होते हैं।
इनमें से कोई भी राजनीति में प्रत्यक्ष-परोक्ष हस्तक्षेप नहीं करता, इस या उस राजनीतिक दल के समर्थन-विरोध में काम नहीं करता, बयान नहीं देता।
संघ सांस्कृतिक-सामाजिक कम और राजनीतिक संगठन ज़्यादा है। इसे छिपाना असंभव है। भाजपा उसका सार्वजनिक राजनीतिक अंग है। भाजपा और उसकी सरकारों में संघ के अधिकारी बाक़ायदा नियुक्त किए जाते हैं, संघ-सरकार-पार्टी में समन्वय और मार्गदर्शन के लिए संगठन मंत्री बनाए जाते हैं।
संघ की सिफ़ारिश के बिना केंद्र और भाजपा राज्यों में शिक्षा-संस्कृति-प्रशासन-वित्त सहित सभी महत्वपूर्ण और शक्तिशाली विभागों-संस्थानों में नियुक्तियाँ नहीं होतीं।
संघ के सरसंघचालक सहित वरिष्ठ-कनिष्ठ अधिकारी नियमित रूप से राजनीति पर बोलते रहते हैं। सामान्य जागरूक किशोर भी जानता है कि संघ राजनीतिक है। संघ इसे छिपाने की कोई कोशिश भी नहीं करता अब।
इन हालात में सरकारी कर्मचारियों पर लगी हुई इस औपचारिक रोक को, जिसे किसी सरकार ने 58 साल में नहीं हटाया, हटाने का मतलब है सारे 40 लाख केन्द्रीय कर्मचारियों और एक करोड़ से ऊपर राज्य कर्मचारियों को संघ में शामिल होने, सक्रिय होकर उसके लिए काम करने का खुला आधिकारिक प्रोत्साहन देना।
संघ परिवार के लिए तो यह उत्सव का अवसर है लेकिन उसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर के भारतीयों के लिए गहरी चिंता का। यह हमारे लोकतंत्र के सबसे स्थाई स्तंभ- प्रशासनिक तंत्र की बची-खुची तटस्थता-निष्पक्षता-निर्भीकता और केवल लोकहित में काम करने की प्रतिबद्धता की धज्जियाँ उड़ा देगा।
अगर इस फ़ैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने गंभीरता से तुरंत स्वतः संज्ञान लेकर या जनहित याचिका पर विचार नहीं किया और रोक नहीं लगाई तो भारत का लोकतंत्र गंभीर संकट में पड़ जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी पीठ संघ को यह सिद्ध करने के लिए कहे कि वह राजनीतिक नहीं है। यही अंतिम क़ानूनी उपाय है।
उससे बड़ी जनता की अदालत है लेकिन उसके जागृत-संगठित-मुखरित और सक्रिय होने में लंबा समय लगेगा। भारत के पास उतना समय है कि नहीं, यह भविष्य बताएगा।