राहुल बजाज के बोलने की धूम है। इसलिए कि उसके सामने बोले जिसे साक्षात आतंक माना जाता है। राहुल बजाज ने बात कोई नयी नहीं की। लेकिन उनका बोलना ही मायने रखता है। इसलिए कि वे पूँजीपतियों के समुदाय के सदस्य हैं जिसका धर्म सत्य की नहीं, अपने मुनाफ़े की रक्षा है। आश्चर्य नहीं कि वे सरकार से डरे हुए हैं। भारत का पूँजीपति वर्ग अमेरिका के मुक़ाबले अधिक राज्याश्रित है। इसलिए वह राज्य की आलोचना करने से बचता है। तो राहुल बजाज क्योंकर बोल पाए
राहुल ने इसका जवाब ख़ुद ही दिया। जो हिम्मत भारत के सबसे धनवान नहीं जुटा सके, वह पुरानी काट के पूँजीपति राहुल बजाज के लिए सहज इस कारण थी, जैसा उन्होंने ख़ुद बताया कि उनका जन्म ही सत्ता विरोध से जुड़ा हुआ है। बोलते हुए यह कहना शायद ज़रूरी नहीं था लेकिन उन्होंने कहा कि उनके दादा गाँधीजी के लिए पुत्रवत थे। यहाँ तक तो गनीमत थी। उन्होंने अपने बारे में कहा कि भले ही आज के आकाओं को यह बात न पसंद आए, उनका नाम जवाहरलाल नेहरू ने रखा था। जब उन्होंने यह बताया तो उस महफ़िल में, जो भारत के सबसे ताक़तवर लोगों की थी, हँसी की लहर दौड़ गई। यह हँसी किस पर थी या यह राहत की हँसी थी
राहुल बजाज का पूरा बयान जो बहुत संक्षिप्त है, अपनी सादगी और सीधेपन के लिए याद किया जाएगा। लेकिन इस बयान में गाँधी और नेहरू के ज़िक्र से उन्होंने इसे एक परंपरा से जोड़ दिया है। वह परंपरा सत्ता के समक्ष साहस के साथ खड़े होने की है, अभय की है।
उसके निर्माताओं में दो प्रमुख नाम गाँधी और नेहरू के हैं, यह इस देश की आज की पीढ़ियों को बारंबार याद दिलाने की ज़रूरत है। इसलिए भी कि नेहरू को सत्ता विरोध की जगह सत्ता का प्रतीक ही माना जाता है।
अपने नाम के बारे में पहले भी राहुल बजाज बोल चुके हैं। बरसों पहले शेखर गुप्ता को इंटरव्यू देते हुए उन्होंने बताया था कि जब उनकी माँ ने नेहरूजी से अपने बेटे के लिए नाम सुझाने को कहा तो नेहरू ने अपने मन में अपने नाती के लिए सोचकर रखा गया नाम ही प्रस्तावित किया, राहुल। बाद में इंदिरा ने उनकी माँ को उलाहना दिया कि उन्होंने उनके बेटे का नाम चुरा लिया! इसकी भरपाई इस तरह की गई कि राहुल बजाज ने अपने बेटे का नाम राजीव रखा और राजीव गाँधी और सोनिया गाँधी के बेटे का नाम राहुल रखा गया।
बजाज परिवार को इसका सौभाग्य था कि उसे गाँधीजी ने अपनाया और उसने भी गाँधी को अपना पितृपुरुष माना। साबरमती आश्रम छोड़ देने के बाद गाँधी ने जमनालाल बजाज के न्योते पर वर्धा को अपना केंद्र चुना। उनके लिए जगह मुहैया कराई बजाज परिवार ने। जमनालाल बजाज को गाँधी अपना पाँचवाँ पुत्र ही कहते थे। मगनवाड़ी और बजाजवाड़ी गाँधी, नेहरू और दूसरे राष्ट्रीय नेताओं के वर्धा में स्थायी आवास स्थल थे। बजाजवाड़ी में तो नेहरू का कमरा निश्चित था।
राहुल बजाज पुत्र हैं कमलनयन बजाज के जो जमनालालजी के बड़े पुत्र थे। उनके छोटे भाई थे रामकृष्ण बजाज। कमलनयन तो नहीं, लेकिन रामकृष्ण राजनीति में और कांग्रेस पार्टी में सक्रिय रहे। नेहरू से परिवार के कितने क़रीबी रिश्ते थे, यह तो पहले बताई गई घटना से ही ज़ाहिर है। लेकिन इसके कारण रामकृष्ण बजाज उनसे अपना विरोध प्रकट करने और उसे सार्वजनिक करने से नहीं चूके। मौक़ा था चुनाव में बंबई से वी. के. कृष्ण मेनन को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाए जाने का। रामकृष्ण का ख़्याल था कि मेनन कम्युनिस्टों के आदमी थे और उनके ज़रिए कम्युनिस्ट अपनी नीतियाँ लागू करवाने का काम करेंगे। मेनन को रामकृष्ण कांग्रेस के लिए अहितकारी मानते थे।
नेहरू-रामकृष्ण के रिश्ते कैसे
मेनन के विरोध का मतलब था नेहरू का विरोध। उस वक़्त नेहरू की ताक़त के बारे में क्या कहना लेकिन रामकृष्ण अपना विरोध करने से चूके नहीं। मेनन के ख़िलाफ़ कृपलानी का उन्होंने साथ दिया। इंदिरा गाँधी ने कृपलानी पर आक्षेप किया। फिर भी वे चुनाव जमकर लड़े। मेनन जीत गए। रामकृष्ण ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया। नेहरू से उनके रिश्ते तनावपूर्ण हुए, लेकिन नेहरू ने अपनी सत्ता का इस्तेमाल उन्हें ख़ामोश करने में नहीं किया।
इंदिरा गाँधी का आपातकाल के समय विरोध करने से भी रामकृष्ण नहीं चूके। विद्याचरण शुक्ल ने उनके विश्व युवा केंद्र पर निशाना साधा। आरोप लगाया गया कि वह राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का अड्डा बन रहा है। नेहरू के मुक़ाबले समय बदल चुका था। सरकार ने बजाज के व्यावसायिक केंद्रों पर छापे मारे। कुछ अनियमितता न मिल सकी। रामकृष्ण डरे नहीं।
सारे उद्योगपतियों से यह उम्मीद नहीं की जाती। सामाजिक दायित्व का बोध उनमें हो, यह उम्मीद कुछ ज़्यादा है। एक बार निजी उद्यमियों के बारे में इंदिरा गाँधी ने कहा था कि उनमें उद्यमिता कम है, जो कुछ है वह प्राइवेट है।
जब जयप्रकाश नारायण डाकुओं के आत्म समर्पण में लगे थे, मीनू मसानी ने एक इंटरव्यू में उनसे पूछा कि डाकुओं और व्यवसायियों में वे किनमें सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना पैदा करने में अधिक कामयाब हुए हैं। जयप्रकाश ने बिना चूके उत्तर दिया, ‘मुझे लगता है व्यवसायियों का सुधार कहीं मुश्किल है। इसी वजह से भारत में यह बीमारी घर कर रही है जिसे राज्यवाद कहते हैं।’ मेरे एक मित्र इसे हर क्षेत्र का सरकारीकरण कहते हैं।
उद्योगपति सरकार का विरोध न करने का उदात्त कारण देते हैं। उन्हें अपने उद्योगों में लगे हज़ारों लोगों की रोज़ी की फ़िक्र है। वे बाक़ी नागरिकों की तरह छुट्टे नहीं हैं। निजी संपत्ति के अधिकार के साथ नत्थी है प्रत्येक व्यक्ति की निजता के अधिकार की रक्षा। राज्य अगर इस निजता का अपहरण कर रहा हो तो निजी संपत्ति के अधिकार के कारण अकूत संपदा के मालिकों का क्या फ़र्ज़ है
संपत्ति आपको साहस नहीं देती, बल्कि अक्सर कायर ही बनाती है। जिन नारायणमूर्ति को आधुनिक भारतीय पूँजीवाद का शीर्ष बौद्धिक मानकर भारत का राष्ट्रपति तक बनाने की मुहिम चलाई गई थी वे कहते फिर रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था पिछले 300 सालों में इतनी अच्छी सेहत में कभी न थी। जिन्हें उद्यमिता का आदर्श बताया जाता है, उनके ओंठ सिले हुए हैं।
इसीलिए राहुल बजाज का वह बयान विस्फोटक बन गया जिसमें कुछ भी नया न था। वे एक ऐसे समुदाय के सदस्य हैं जो प्रायः खुदगर्ज है।
ताज्जुब नहीं कि बंबई में ही कलाकारों और लेखकों में तो कइयों ने बिना झिझके वह कई बार कहा है जो राहुल अब बोल रहे हैं। लेखक, अध्यापक, छात्र तो बोल ही रहे हैं। उन्हें इसकी सज़ा भी मिल रही है।
उनकी स्थिति और राहुल बजाज की स्थिति में फर्क है। उनके बोलने के कारण उनपर आज तक हमला किया जा रहा है। राहुल बजाज के बोलने पर जवाब देना पड़ा और वह भी स्वर मुलायम करके।
राहुल बोले और अकेले ही रहे, इस कारण हमें न बोलने वालों पर हमला नहीं करना चाहिए। भय अत्यंत स्वाभाविक भाव है। वह संभावित ख़तरे से बचाव की एक युक्ति है। भय की स्थिति में सब की प्रतिक्रिया एक सी नहीं होती। जो भय के स्रोत के ख़िलाफ़ खड़े न हो सके, उन्हीं पर हमला कर बैठना मूर्खता है। भय के स्रोत पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। इसलिए जो न बोल सके उनका हम मज़ाक़ न उड़ाएँ या उन्हें न ललकारें। जो डरा हुआ है, वह नहीं, जो डरा रहा है, वह अपराधी है।