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चुनाव में कहीं नजर नहीं आ रहा है चुनाव आयोग, क्यों? 

चुनाव में कहीं नजर नहीं आ रहा है चुनाव आयोग, क्यों? 

चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर आखिर लगातार सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं? क्या ऐसे में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव संभव हैं?

इस समय पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। तीन राज्यों में वोट डाले जा चुके हैं और दो राज्यों में सात मार्च को मतदान की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। इन पांचों राज्यों के लिए जब से चुनाव घोषणा हुई है तब से लेकर अब तक लग ही नहीं रहा है कि देश में चुनाव आयोग नाम की कोई संस्था अस्तित्व में है। अगर है भी तो ऐसा लग रहा है कि वह एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था के रूप में नहीं बल्कि केंद्र में सत्तारूढ़ की सहयोगी पार्टी के रूप में काम कर रहा है।

नियमानुसार मतदान से 36 घंटे पहले प्रचार बंद हो जाता है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मतदान से एक दिन पहले इंटरव्यू दे रहे हैं, जिसका सभी चैनलों पर सीधा प्रसारण हो रहा है। वे मतदान वाले दिन भी अन्य चुनाव क्षेत्रों में चुनावी रैलियां कर रहे हैं।

वे खुलेआम चुनावी रैलियों में हिंदुओं से एकजुट होने की अपील कर रहे हैं और बिना किसी आधार के विपक्षी दलों को आतंकवादियों का मददगार बता रहे हैं। मतदान से एक दिन पहले ही सरकारी टेलीविजन पर सुबह से रात तक विभिन्न विभागों के केंद्रीय मंत्रियों के लाइव इंटरव्यू दिखाए जा रहे हैं, जिनमें वे अपने मंत्रालय की योजनाओं के माध्यम से भाजपा का प्रचार कर रहे हैं। चुनाव कानूनों और नियमों के मुताबिक यह सब नहीं होना चाहिए लेकिन हो रहा है और यह सब होता देख कर भी चुनाव आयोग खामोश बना हुआ है। 

उठते रहे सवाल

हमारे देश में कैसा भी चुनाव रहा हो और किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, आमतौर पर चुनाव आयोग की निष्पक्षता कभी संदेह से परे नहीं रही। इसके बावजूद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने यहां चुनावों को निष्पक्ष और विश्वसनीय बनाने के ठोस उपाय ढूंढने में नाकाम रहा है। इस सिलसिले में अगर हम मौजूदा चुनाव आयोग की भूमिका को देखे तो उसके कामकाज के तौर तरीके बताते हैं कि वह अपनी बची-खुची साख को भी मटियामेट करने के लिए दृढ़ संकल्पित है। 

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यही वजह है कि हर चुनाव में चाहे वह लोकसभा का हो या विधानसभा का या फिर स्थानीय निकाय का, मतदान के समय इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में गड़बड़ी, कई लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब हो जाने, मतदान के बाद ईवीएम बदले जाने, ईवीएम मशीनों की सील टूटी पाए जाने और मतगणना में धांधली की शिकायतें हर तरफ से आने लगती हैं। 

अब तो जिन क्षेत्रों में मतदान हो चुका है, वहां से उन स्ट्रांग रूम की सील टूटी पाए जाने की शिकायतें भी आने लगी है, जहां मतदान के बाद ईवीएम को मतगणना होने तक रखा जाता है।

इस समय जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है, उनमें जहां-जहां मतदान सम्पन्न हो चुका है, वहां मतदान के हर चरण में ईवीएम में गड़बड़ी की शिकायतें आई हैं। शिकायत आमतौर पर यही है कि वोट किसे भी दिया जाए, वह जा रहा है सिर्फ भाजपा के खाते में ही। इस तरह की शिकायतों का सिलसिला पिछले छह-सात साल से बना हुआ है। हैरानी की बात है कि किसी भी चुनाव में कहीं से यह शिकायत अभी तक सुनने को नहीं मिली है कि भाजपा को दिया गया वोट किसी अन्य पार्टी के खाते में चला गया हो। 

ऐसा क्यों हो रहा है, इसका कोई संतोषजनक जवाब चुनाव आयोग के पास नहीं है। यह मामला एक से अधिक बार सुप्रीम कोर्ट तक भी गया और सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की गडबडियों को दूर करने के सख्त निर्देश भी चुनाव आयोग को दिए, लेकिन गड़बड़ियों का सिलसिला अभी भी बना हुआ है। 

आयोग की विश्वसनीयता सिर्फ ईवीएम की गड़बड़ियों को लेकर ही सवालों के घेरे में नहीं है। जिन क्षेत्रों में मतदान हो चुका होता है, वहां से उन स्ट्रांग रूम की सील टूटी पाए जाने की भी खबरें हैं।

ऐसा पहले भी कई चुनावों में हो चुका है और इस समय उत्तराखंड तथा गोवा में भी हो रहा है। दोनों ही राज्यों में कांग्रेस के नेताओं को ईवीएम बदले जाने या उनमें किसी किस्म की गड़बड़ी की आशंका सता रही है। इसी आशंका के चलते वे हर जिले में मतगणना केंद्रों पर स्ट्रांग रूम के बाहर पहरा दे रहे हैं।

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पंजाब में ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि वहां भाजपा बड़ी ताकत के तौर पर चुनाव नहीं लड़ी है। इसलिए वहां 'चुनाव के बाद नतीजा चाहे जो सरकार भाजपा की ही बनेगी’ वाली स्थिति नहीं है। इसलिए वहां कांग्रेस या अन्य पार्टियां को चिंता नहीं है। 

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में तो इससे आगे की भी बात सुनने को मिल रही है, जो कि बहुत चिंताजनक है। उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों में घूम रहे कई स्वतंत्र पत्रकारों और टिप्पणीकारों ने इसे सुना है और सोशल मीडिया में शेयर किया है कि विपक्षी पार्टियों के नेता प्रचार के दौरान मतदाताओं से अपने उम्मीदवार को 10 हजार से ज्यादा वोटों से जिताने की अपील कर रहे हैं।

कई जगह सुनने को मिला कि 10 हजार वोट का मार्जिन चुनाव आयोग के लिए लेकर चलना है। चुनाव आयोग से उनका मतलब आयोग से लेकर स्थानीय प्रशासन तक से है। वे कह रहे है कि अगर 10 हजार से कम वोट का अंतर रहा तो गिनती के समय धांधली हो सकती है। इन नेताओं और उम्मीदवारों को एक चिंता पोस्टल बैलेट को लेकर भी है। 

पोस्टर बैलेट पर चिंता

पोस्टल बैलेट को पहले कभी भी चुनावी राजनीति में बहुत अहम नहीं माना गया। शायद ही कभी इसकी वजह से नतीजे प्रभावित हुए होंगे। लेकिन अचानक पोस्टल बैलेट का महत्व बढ़ रहा है। चुनाव लड़ रही भाजपा विरोधी पार्टियों को पोस्टल बैलेट का डर सता रहा है। उनको चुनाव आयोग पर भी संदेह है और प्रशासन पर भी। इसीलिए उन्हें लग रहा है कि सिस्टम का फायदा उठा कर भाजपा पोस्टल बैलेट के सहारे नतीजों को प्रभावित कर सकती है।

ध्यान रहे पहले पोस्टल बैलेट से वोटिंग का अधिकार सेना के जवानों-अधिकारियों और चुनाव कराने वाले कर्मचारियों को ही था, लेकिन अब 80 साल से ज्यादा उम्र वाले और गंभीर रूप से बीमार लोगों को भी पोस्टल बैलेट से वोट डालने की अनुमति मिल गई है। 

पहले मतगणना शुरू होने पर पोस्टल बैलेट की गिनती सबसे पहले होती थी और उसके बाद ईवीएम खोले जाते थे लेकिन अब मतगणना खत्म होने तक पोस्टल बैलेट गिने जाते है। पहले पोस्टल बैलेट बूथ लेवल ऑफिसर यानी बीएलओ के जरिए दिए जाते थे, अब डाक से भेजे जा रहे हैं।

सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि पोस्टल बैलेट से वोट भेजने वाले सरकारी कर्मचारियों को अपने पहचान पत्र की कॉपी उसके साथ लगानी होती है। इससे वोट की गोपनीयता भंग होती है और अगर सरकारी कर्मचारी ने सरकार की विरोधी पार्टी को वोट किया हो तो उसके लिए अलग खतरा पैदा होता है।

उत्तर प्रदेश में पहले चरण के मतदान के समय गाजियाबाद के एक बूथ पर ऐसी घटना हुई कि वोट डालने पहुंचे मुस्लिम परिवार के कई सदस्यों के वोट पोस्टल बैलेट से डाले जा चुके थे, जबकि उनको इसके बारे में कुछ पता हीं नही था। तभी विपक्षी पार्टियों को आशंका सता रही है कि पोस्टल बैलेट के जरिए उनके उम्मीदवारों की जीत को हार में बदला जा सकता है, खास कर उन सीटों पर, जहां जीत-हार का अंतर कम होगा।

चुनाव आयोग पर यह आरोप तो अब आम हो चुका है कि वह सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेतृत्व की सुविधा के मुताबिक चुनाव कार्यक्रम घोषित करता है। यह भी माना जाता है कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में आयोग सिर्फ विपक्षी नेताओं के खिलाफ ही कार्रवाई करता है और सत्तारूढ़ दल के नेताओं को क्लीन चिट दे देता है। 

चुनाव की निष्पक्षता पलड़ा हमेशा ही सरकार और सत्तारूढ़ दल के पक्ष में झुका देखते हुए अब तो कई लोग उसे चुनाव मंत्रालय और केंचुआ तक कहने लगे हैं।

हैरानी उस समय और ज्यादा होती है जब चुनाव आयोग की निष्क्रियता या उसके पक्षपातपूर्ण रवैये जब कोई विपक्षी दल सवाल उठाता है तो उसका जवाब चुनाव आयोग नहीं, बल्कि उसकी ओर से भाजपा के नेता और केंद्रीय मंत्री देने लगते हैं। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद भी अपनी चुनावी रैलियों में विपक्ष की शिकायतों का फूहड़ तरीके से मजाक उड़ाते हुए चुनाव आयोग का बचाव करते नजर आते हैं।

जाहिर है कि केंद्र सरकार ने अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह चुनाव आयोग स्वायत्तता का भी अपहरण कर लिया है। अब चुनाव आयोग एक तरह से सरकार का रसोईघर बन गया है और मुख्य चुनाव आयुक्त रसोइए की भूमिका निभाते हुए वही पकाते हैं जो केंद्र सरकार और सत्ताधारी पार्टी चाहती है।

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