नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने का एलान तो हो गया है लेकिन इसके साथ ही कई बड़े सवाल भी सामने खड़े हो गए हैं। सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या सिद्धू की मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ पटरी बैठ पाएगी? सिद्धू के उन आरोपों का क्या होगा जिन्हें लेकर वे अमरिंदर के ख़िलाफ़ 100 से ज़्यादा ट्वीट्स कर चुके हैं।
पंजाब की अवाम यह सवाल ज़रूर पूछेगी कि क्या अब सिद्धू इन आरोपों के बारे में बात करेंगे या नहीं। एक अहम बात यह है कि पार्टी ने जो चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए हैं, उनमें भी कैप्टन की पसंद की अनदेखी की गई है। तो क्या हाईकमान अब कैप्टन के बजाय सिद्धू में ही पंजाब कांग्रेस का भविष्य देख रहा है।
बीते कुछ महीनों में तो सिद्धू ने मीडिया को दिए इंटरव्यू में कैप्टन को हर दिन झूठ बोलने वाला शख़्स तक बताया। ऐसे में दोनों की कितनी और कब तक निभेगी, यह भी बहुत बड़ा सवाल है।
कैप्टन को घेरते रहे सिद्धू
सिद्धू बीते कुछ महीने से लगातार 2015 में हुए गुरू ग्रंथ साहिब के बेअदबी के और इससे जुड़े कोटकपुरा फ़ायरिंग के मामले, सरकार की नीतियों की वजह से राजस्व का नुक़सान होने, केबल, रेत, नशा माफ़िया के सक्रिय होने, अमरिंदर की बादल परिवार के साथ मिलीभगत होने सहित कुछ और मुद्दों पर कैप्टन को घेरते रहे हैं।
मीडिया में जो ख़बरें आईं, उनके मुताबिक़ कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बीते दिनों कहा कि वे सिद्धू से तब तक नहीं मिलेंगे, जब तक वह उनके ख़िलाफ़ किए गए ट्वीट्स को लेकर सार्वजनिक रूप से माफ़ी नहीं मांगते। तो क्या कैप्टन उनसे नहीं मिलेंगे या फिर सिद्धू माफ़ी मांगेंगे।
टिकट बंटवारे में होगी खींचतान
सिद्धू साढ़े चार साल पहले कांग्रेस में आए हैं जबकि कैप्टन लंबा वक़्त पार्टी में गुजार चुके हैं। एक बड़ी बात यह है कि टिकट बंटवारे में इन दोनों नेताओं के बीच जबरदस्त खींचतान होगी और इसका नुक़सान पार्टी को हो सकता है। सिद्धू जानते हैं कि अमरिंदर की उम्र ढल चुकी है इसलिए अगर वह अपने ज़्यादा समर्थकों को टिकट दिला पाए तो मुख्यमंत्री पद पर दावा ठोक सकेंगे।
2017 में पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद सिद्धू दो साल तक तो अमरिंदर सिंह की कैबिनेट में रहे लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे दिया और इसकी वजह अमरिंदर सिंह से उनकी तनातनी रही।
लंबे वक़्त से कहा जा रहा था कि सिद्धू की नज़र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर है लेकिन अमरिंदर सिंह खुलकर इसका विरोध कर चुके थे और सिद्धू को रोकने के लिए उन्होंने अपने सियासी विरोधी प्रताप सिंह बाजवा का भी नाम आगे बढ़ाया लेकिन शायद हाईकमान ‘सब कुछ’ तय कर चुका था।
विरोध दरकिनार
अमरिंदर सिंह इस बात को जानते हैं कि सिद्धू का अगला लक्ष्य मुख्यमंत्री की कुर्सी है और प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में उन्होंने बाक़ी लोगों को पछाड़कर यह बता दिया है कि हाईकमान उनके साथ है। अमरिंदर के खुलकर विरोध की तक हाईकमान ने परवाह नहीं की। अमरिंदर ने बीते शुक्रवार को पत्र लिखकर कहा था कि पार्टी हाईकमान पंजाब के मामलों में जबरन दख़ल दे रहा है।
लेकिन कांग्रेस हाईकमान को शायद सिद्धू ‘काम के आदमी’ लगते हैं। अच्छी हिंदी बोलने वाले और शेरो-शायरी से माहौल को चुटीला बना देने वाले सिद्धू से कांग्रेस को उम्मीद रहती है कि वे पंजाब के बाहर भी पार्टी के लिए वोट जुटा सकेंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें स्टार प्रचारक बनाकर उनकी दर्जनों सभाएं कराई थीं।
संतुलन बनाने की कोशिश
अब पंजाब कांग्रेस में मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनों ही पदों पर जट सिख आ गए हैं जबकि इससे पहले अध्यक्ष पद पर सुनील जाखड़ थे और इससे हिंदू-सिख समुदाय का एक बेहतर जोड़ पार्टी के पास था। दोनों पद एक ही वर्ग के पास जाने से समाज के दूसरे वर्गों के नेताओं को साधना पार्टी के लिए मुश्किल हो सकता था इसलिए जो चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए हैं, उसमें इस बात का ध्यान रखा गया है।
अमरिंदर के क़रीबियों की अनदेखी
लेकिन कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति में भी पार्टी हाईकमान ने अमरिंदर के क़रीबियों की अनदेखी की है। अमरिंदर ने जो हिंदू अध्यक्ष वाला दांव चला था, उसमें उन्होंने वरिष्ठ नेताओं मनीष तिवारी और विजय इंदर सिंगला का नाम आगे बढ़ाया था जबकि दलित वर्ग से राजकुमार वेरका और संतोष चौधरी को वह कार्यकारी अध्यक्ष बनवाना चाहते थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और पार्टी ने अपने हिसाब से कार्यकारी अध्यक्षों को निुयक्त कर दिया।
जातीय-क्षेत्रीय समीकरण साधे
कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति में जातीय और क्षेत्रीय समीकरण को साधने की पूरी कोशिश की गई है। जो चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए हैं, उनमें सुखविंदर सिंह डैनी दलित वर्ग से आते हैं जबकि संगत सिंह गिलजियां पिछड़े वर्ग से। इसी तरह पवन गोयल को हिंदू सवर्ण और कुलजीत सिंह नागरा को सिख चेहरे के तौर पर जगह दी गई है।
सुखविंदर सिंह डैनी माझा से, संगत सिंह गिलजियां दोआबा से जबकि पवन गोयल और कुलजीत सिंह नागरा मालवा से आते हैं। इस तरह पंजाब के तीनों इलाक़ों को जगह दी गई है।
बाजवा से गले मिले थे सिद्धू
बीजेपी से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले सिद्धू पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से मुलाक़ात करने और पाकिस्तानी सेना के प्रमुख क़मर जावेद बाजवा से गले मिलने को लेकर खासे विवादित रहे हैं।
बीजेपी में रहते हुए राहुल गांधी से लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर जोरदार हमले करने वाले सिद्धू के लिए कांग्रेस हाईकमान ने पुराने नेताओं के विरोध को भी दरकिनार किया है, इसका मतलब है कि सिद्धू ने 10, जनपथ का ‘भरोसा’ जीत लिया है।
अमरिंदर 79 साल के हो चुके हैं और विधानसभा चुनाव में अगर कांग्रेस को जीत मिलने के बाद वे मुख्यमंत्री बन भी जाते हैं तो वह सियासत में कितनी लंबी पारी खेल पाएंगे, कहना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि सिद्धू को भविष्य में मुख्यमंत्री बन पाने से रोकना उनके लिए आसान नहीं होगा।
अगले ‘कैप्टन’ होंगे सिद्धू?
यह भी माना जाना चाहिए कि कांग्रेस हाईकमान भी सिद्धू जैसे ऊर्जावान दिखने वाले और लोकप्रिय नेता को मुख्यमंत्री पद से लंबे समय तक दूर नहीं रखेगा क्योंकि सिद्धू पंजाब से बाहर के मतदाताओं के बीच भी जाने-पहचाने और भीड़ जुटाने वाले चेहरे हैं और उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाकर हाईकमान ने इसका संकेत भी दे दिया है कि वे पंजाब कांग्रेस के अगले ‘कैप्टन’ हैं।
पंजाब में अकाली दल-बीएसपी के गठबंधन और आम आदमी पार्टी की बढ़ती सक्रियता के बीच कांग्रेस के लिए जीत हासिल करना मुश्किल काम होगा क्योंकि बीते कुछ महीनों में कैप्टन और सिद्धू के बीच चले झगड़े के कारण पार्टी की ख़ासी सियासी फ़जीहत हो चुकी है।
चुनावी जीत दिला पाएंगे?
कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को चुनाव में जीत दिलाने की है। लेकिन इनके सियासी रिश्तों को देखते हुए लगता नहीं कि सरकार और संगठन साथ आ पाएंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो पंजाब में कांग्रेस की नाव डूबनी तय है और अगर दोनों नेता मिलकर लड़े तो फिर से कांग्रेस राज्य की सत्ता में आ सकती है।