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क्या चन्नी नई शुरुआत करा सकेंगे? 

क्या चन्नी नई शुरुआत करा सकेंगे? 

कांग्रेस को पंजाब में प्रभावशाली दलित समुदाय से बड़ी उम्मीद इस चुनाव में है। लेकिन क्या पंजाब के दलित मतदाता कांग्रेस के हक में एकजुट होकर वोट करेंगे?

विधान सभा चुनावों की चर्चा अचानक पंजाब की तरफ मुड़ गई है। पर यह बताना जरूरी है कि बीजेपी और केन्द्र सरकार ने पंजाब में अपनी खराब स्थिति और शुरुआती अकेलेपन को जानते हुए भी निरंतर अपनी चालें चली हैं और सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जालन्धर की जमीन पर उतारने के साथ अपना तुरुप का पत्त्ता भी चल दिया है। इस दिशा में उसे कांग्रेस से निकले अमरिन्दर सिंह का साथ मिलना एक ‘सफलता’ है तो बाबा राम रहीम जैसे विवादास्पद डेरा प्रमुख को जेल से बाहर लाने का धतकरम भी करना पड़ा है। 

कांग्रेस के नेता राहुल गांधी अगर पंजाब में जुटे हैं तो ‘आप’ भी पूरी ताकत से लगी हुई है। अकाली जीवन मरण की लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन ज्यादा कुछ आता नहीं दिखता। उसने जरूर बसपा को साथ लेकर दलित उपमुख्यमंत्री जैसी घोषणा करके जमीनी हकीकत को ज्यादा जानने का प्रमाण दिया है। एक जट सिख को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने का वादा आप ने किया है। 

उधर, कांग्रेस ने दलित मुख्यमंत्री सामने पेश कर और मुख्यमंत्री के तौर पर अगली दावेदारी भी घोषित करके अपना दांव साफ कर दिया है। 

जी हां, हम पंजाब चुनाव के इसी पक्ष की चर्चा करेंगे। देश में सर्वाधिक अनुपात वाली दलित आबादी के प्रदेश पंजाब में इस बार पहली बार दलित राजनीति केन्द्रित चुनाव हो रहा है। कांग्रेस के मजबूत और सम्मानित नेता सुनील जाखड़ हालांकि नाराज़ हैं कि उन्हें विधायकों का सबसे अधिक समर्थन था फिर भी वो मुख्यमंत्री नहीं बन पाये जबकि चन्नी को सबसे कम लोगों ने मुख्यमंत्री के तौर पर पसंद किया और वो मुख्यमंत्री बन गये। 

कांग्रेस ने चन्नी पर दांव लगाया क्योंकि वे दलित हैं और कांग्रेस को सिर्फ पंजाब में ही नहीं देश के अन्य इलाकों में भी इससे लाभ का भरोसा था।

आज चन्नी कांग्रेस की उम्मीदों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं तो उन पर हमले भी होने शुरु हो गए हैं। उनके भतीजे के कारोबार और कमाई को निशाना बनाने से लेकर कई तरह की घेराबन्दी हो रही है। इसमें दो प्रतिद्वन्द्वी दलों द्वारा दलित उपमुख्यमंत्री देने का वायदा भी शामिल है। लेकिन 117 सीटों की विधान सभा के 98 सीटों पर 20 से लेकर 49 फीसदी तक दलित आबादी चुनावी राजनीति में क्या गुल खुला सकती है ये सबको पता है।

पंजाब का दलित समाज देश के अन्य इलाकों से कुछ बेहतर और मजबूत स्थिति में पहले भी था हालांकि वो जाति और पंथों में बंटा भी रहा है। यहां पंजाब में ही जन्मे उस कांशीराम की भी नहीं चली जिन्होंने उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति को परवान चढ़ाया और देश में भी बसपा के माध्यम से मजबूत दखल दी। 

डेरों की भूमिका

पंजाब के दलितों पर किसी राजनैतिक सामाजिक संगठन की जगह डेरों का प्रभाव ज्यादा रहा है। सो नेता और राजनैतिक पार्टियों के लिए दलित वोट पाने का लोकप्रिय तरीका डेरों को अपनी तरफ करना रहा है। यह प्रयास इस बार भी हो रहा है और बाबा राम रहीम का जेल से बाहर आना उसी राजनीति का परिणाम है। उन्हें बीजेपी की हरियाणा सरकार ने छोड़ा है और उनकी रिहाई से पहले पन्द्रह-पन्द्रह लाख लोगों के संगत का आयोजन करके उनके डेरे ने अपनी ताकत दिखा दी थी। अब देखना है कि इस रिहाई से बीजेपी को कितना लाभ होता है और वह मुख्य मुकाबले में आ भी पाती है या नहीं। 

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अन्य डेरों पर भी राजनेता मत्था टेक रहे हैं। पर सैकडों की संख्या में मौजूद छोटे-बडे डेरों के साथ दूसरे पंथों, जातियों और इलाकों का अलग अलग प्रभाव भी रहा है। मुख्यमंत्री चन्नी जिस समुदाय से आते हैं उसका दोआबा की पचीस सीटों पर काफी दबदबा है (सिर्फ संख्या बल वाला)। प्रदेश भर में भी इस बडे़ समाज की कुल दलित आबादी में लगभग चालीस-बयालीस फीसदी की हिस्सेदारी है।

दूसरा दलित समाज मजहबी सिखों और बाल्मीकियों का है जिसका हिस्सा लगभग एक तिहाई है। पर यह आबादी ज्यादातर शहरी है और मालवा में इसका प्रभाव ज्यादा है। लेकिन जैसा पहले कहा गया है दलित संख्या बल के आधार पर तो चुनाव को प्रभावित करते रहे हैं लेकिन उनकी राजनैतिक गोलबन्दी अभी तक ज्यादा नहीं रही है। 

चरणजीत चन्नी और कांग्रेस इस कोशिश में हैं कि इस बार दलित गोलबन्द होकर कांग्रेस को जिताएं और एक दलित को मुख्यमंत्री के रूप में मजबूती दें। उनका काम इस चलते भी आसान लगता है कि न अकाली-बसपा के पास कोई मजबूत दलित चेहरा है और न सत्ता की मजबूत दावेदार बनकर उभरी आप के पास।

उप मुख्यमंत्री का वायदा और मुख्यमंत्री की कुर्सी के साथ आगे का भरोसा हो तब अंतर किसी को भी समझ आ सकता है। 

इससे भी बड़ी बात यह है कि पंजाब में अभी तक मुकाबला तीन कोणों वाला लगता है-इसे चौकोना बनाने के लिए ही बीजेपी और अमरिन्दर काफी जोर लगा रहे हैं। किसान संगठन भी मैदान में हैं और कई जगह उनके उम्मीदवार मजबूती से उभरे हैं। और इस बात की सम्भावना भी कई लोग मान रहे हैं कि आने वाले तीन चार दिनों में चुनाव बहुकोणीय की जगह कांग्रेस बनाम आप के सीधे मुकाबले में बदल सकता है।

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इस स्थिति के बारे में कुछ न कहें तो यह कहना आसान लगता है कि बहुकोणीय मुकाबले में एक तिहाई आबादी वाले दलित समुदाय की ही सबसे ज्यादा चलने की सम्भावना है। और ऐसी स्थिति में भी कांग्रेस और चन्नी न जीतें तो फिर कब जीत पाएंगे।

पंजाब चुनाव के दलित रंग के बारे में यह बताना जरूरी है कि कई क्षेत्रों में दलितों की आबादी लगभग आधी है। और लगभग एक तिहाई सीटों में यह आबादी 35 फीसदी से लेकर 49 फीसदी तक है।

अगर ऐसा निर्णायक बल हाथ में हो तब कौन सामाजिक समूह हाथ आए अवसर को गंवाएगा। और पंजाब के दलितों के लिए यह कहना और मुश्किल है क्योंकि उनकी आर्थिक सामाजिक हैसियत देश के अन्य हिस्सों के दलितों से बेहतर है, उनमें शिक्षा और राजनैतिक जागरुकता का औसत अन्य जगहों से बेहतर है।

हां, अभी तक उनमें राजनैतिक गोलबन्दी का अभाव रहा है। अब चाहे जिस कारण से हो, चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद हो रहे चुनाव में इसके लिए उपयुक्त अवसर भी बन गया है। चन्नी का मुख्यमंत्री पद पर होना इस गोलबन्दी में एक उत्प्रेरक का काम करता है या नहीं यह पंजाब चुनाव के लिए मुख्य दिलचस्पी का विषय है।

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