जानलेवा साबित होते बैंक, 24 घंटे में तीन ग्राहकों की मौत
कहा जाता है कि लोकतंत्र दुनिया की सबसे आदर्श व्यवस्था होती है जिसमें लोग अपनी सरकार ख़ुद चुनते हैं और वह सरकार उन लोगों की भलाई के लिये काम करती है। लेकिन जिस तरह का लोकतंत्र हमारे देश में देखने को मिल रहा है, वहां लोग अब महज आंकड़ों में सिमटते जा रहे हैं। इन आंकड़ों को साधकर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ी जा रहीं हैं और इन सीढ़ियों को चढ़कर सत्तासीन होने वाले लोगों के कानों में वे आवाज़ें ही नहीं सुनाई देतीं। लोकतंत्र में जनता का विश्वास जीतने की बात अब उनका विश्वास छीनने जैसी लगने लगी है। इस विश्वास का अपहरण होते देख भी जनता ख़ामोश है?
महाराष्ट्र में पिछले पांच सालों में 16 हज़ार किसानों ने आत्महत्या की लेकिन सरकार उन परिवारों के दुःख-दर्द साझा करने के बजाय इस बात को ही प्रचारित करने में जुटी हुई है कि उसने किसानों के लिए जो कर्जमाफ़ी की योजना लागू की है वह ऐतिहासिक है और अब तक की सबसे बड़ी योजना है!
किसानों को उनकी उपज के सही दाम मिलते हैं या नहीं यह सरकारी आंकड़ों का खेल बन गया है और सभी सरकारें इसे अपनी सुविधाओं के अनुसार ख़ुशनुमा पैकेजों में प्रस्तुत करती रहती हैं। कभी ‘इंडिया शाइनिंग’, कभी ‘फ़ील गुड’, कभी ‘अतुलनीय भारत’ और कभी ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ की पैकिंग में लपेट कर परोसे जाने वाले शासन का जायका जनता के लिए तो कड़वा ही साबित हुआ है।
सरकार ने बेहतरी के लिए कड़वी दवा पीने की बात कही और जनता ने सहज होकर वह घूँट भी पी लिया लेकिन मर्ज है कि घटने का नाम ही नहीं ले रहा है।
लोग पहले नोटबंदी में नोट बदलवाने के लिए लाइन में खड़े हो गए और अब इसलिए लाइन में खड़े हैं कि उन्होंने अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए जो नोट बैंक में जमा किये थे, वे सुरक्षित हैं या नहीं? इसे ‘नया इंडिया’ कहा जा रहा है। यहां पर सरकार यह कहकर अपनी नाकामियों को छुपा ले रही है कि जब तीन दिन में करोड़ों रुपये के सिनेमा के टिकट बिक जाते हैं तो मंदी कैसी!
मुंबई में पंजाब-महाराष्ट्र को ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक डूब गया! डूबने की कहानी वही है जो इन दिनों देश में आम हो चली है यानी विलफ़ुल डिफ़ॉल्टर। बैंक के संचालक मंडलों ने जनता के पैसे को अपनी जागीर समझ कर उड़ा डाला।
कहने को तो बैंकिंग प्रणाली पर चौकसी रखने के लिए हमारे देश में बहुत भारी यंत्र है और सरकार स्वयं चौकीदारी भी करती है लेकिन नतीजे देख कर ऐसा लगता है किसी को कोई मतलब नहीं है। देश में पिछले पांच सालों में लाखों करोड़ के विलफ़ुल डिफ़ॉल्टर सामने आए। ऐसे दर्जनों लोग इसी देश में हैं और कुछ विदेश भी भाग गए। लेकिन पीएमसी बैंक के संचालकों के डिफ़ॉल्टर होने का प्रभाव सीधे जनता पर पड़ रहा है और यह जानलेवा बन गया है। इसकी कहानी को सिर्फ़ आर्थिक मंदी से जोड़कर सरकारें अपना पीछा नहीं छुड़ा सकतीं, यह बहुत बड़ी बदहाली का संकेत दे रही है।
देश की आर्थिक राजधानी में अब हर व्यक्ति के जेहन में यह सवाल खड़ा होने लगा है कि उसकी अपनी कमाई का जो थोड़ा-बहुत बचा हुआ पैसा है वह कहां रखें? वित्त मंत्री इसे लेकर गंभीर नहीं दिखतीं। मुख्यमंत्री अभी चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। उनका बयान आया है कि सरकार बन जाने के बाद इस मसले पर वह केंद्र सरकार से बात करेंगे।
लेकिन यह तो रिज़र्व बैंक का मसला है, यह चुनाव तक क्यों रुका है। क्या चुनाव तक इसके खाताधारक बग़ैर पैसे के रह सकते हैं? क्या हमारे नेता बग़ैर नोटों के चुनाव लड़कर दिखा सकते हैं? लोकसभा चुनाव के दौरान आचार संहिता के लागू रहते हुए भी यदि किसानों के खाते में या गन्ना उत्पादकों के खाते में सरकार सीधे पैसा भेज सकती है तो इस मामले में आचार संहिता की दुहाई क्यों दी जा रही है?
सबसे बड़ी बात यह है कि चुनाव के दौरान नेता वोटों की रोटियां सेंकने कहीं भी पहुंच जाते हैं, शहर में 24 घंटे में तीन लोगों की जान चली गयी लेकिन ना तो कोई सरकारी मंत्री या सत्ताधारी दल का नेता पीड़ित परिवारों के पास पहुंचा है और ना ही विरोधी दल का कोई नेता।
पिछले 24 घंटों में इस बैंक में अपने जीवन की जमा पूंजी जमा कराने वाले लोगों का जीवन ही उनका साथ छोड़ गया! मुंबई में किला कोर्ट के पास पीएमसी बैंक के खाताधारक अपने पैसे पाने को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे लेकिन भीड़ बन गए शहर में शायद उनकी आवाज दब कर रह गयी है। इसी बैंक के ग्राहक थे संजय गुलाटी। 51 साल के गुलाटी की पूरी जमा-पूंजी इस बैंक में है। उनके चार अकाउंट थे, जिनमें 90 लाख रुपये जमा थे।
गुलाटी जेट एयरवेज़ में काम करते थे, नौकरी चली गई थी तो यही जमा-पूंजी भविष्य का सहारा थी। प्रदर्शन के बाद घर आने पर शाम को हार्ट अटैक आया और उनकी मौत हो गई। 46 साल की पत्नी, एक बेटा है, 80 साल के पिता हैं, 75 साल की मां हैं, इन्हें इससे कितना बड़ा सदमा लगा होगा, आप समझ सकते हैं।
इसी बैंक के एक और ग्राहक मुंबई के मुलुंड में हार्डवेयर की दुकान चलाने वाले फत्तूमल पंजाबी की भी दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयी है। बताया जाता है कि बैंक में उनके क़रीब 10 लाख रुपये जमा थे। उनके दो बच्चे हैं जिनकी शादियां हो चुकी हैं। पिछले साल पत्नी का स्वर्गवास होने के बाद वह अकेले ही रहते थे और पास के गुरुद्वारे में सेवा करके अपने अंतिम दिन गुज़ार रहे थे।
इसमें तीसरा नाम मुंबई के वरसोवा इलाक़े में रहने वाली 39 वर्षीय डॉक्टर का भी जुड़ गया है। लेकिन पुलिस इसे आत्महत्या का मामला बता रही है। डॉक्टर निवेदिता बिजलानी (39) ने मंगलवार रात को ज़्यादा मात्रा में नींद की गोलियाँ खा ली थीं, उनके इस बैंक में 1 करोड़ से ज़्यादा रुपये जमा थे।
गुरुवार को इस मामले में बैंक के खाताधारकों ने अपनी आवाज़ को बुलंद करने और लोकतंत्र के अँधेरे को प्रकाशित करने के लिए कैंडल मार्च का आयोजन किया है। देखना है कि उनकी मोमबत्ती कितना प्रकाश फैला पाती है? सरकार की तरफ़ से बताया जाता है कि इस बैंक से छह महीने में 40 हज़ार रुपये निकाल सकते हैं यानी हर महीने में 6666 रुपया। लेकिन इतने पैसे से किसी परिवार की या किसी एक शख़्स की कितनी ज़रूरतें पूरी हो पायेंगी, यह बताने के लिए सरकार तैयार नहीं है।