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मोदी जी! आतंकियों से निपटने की 'खुली छूट' सेना को  कब नहीं थी?

मोदी जी! आतंकियों से निपटने की 'खुली छूट' सेना को  कब नहीं थी?

मोदी राज में आतंकी हमलों, शहीद सैनिक और नागरिकों, आतंकवाद की राह पर जाने वाले युवाओं की संख्या बढ़ी है। पहले की सरकारों की तुलना में मोदी सरकार कश्मीर मोर्चे पर नाकाम रही है।

पुलवामा आतंकी हमले से देश वैसे ही आक्रोशित है जैसे उरी, नागरोटा और पठानकोट जैसे हमलों के बाद था। संसद पर हमला, मुंबई में आतंकी हमले और करगिल युद्ध के वक़्त भी तो देश कमोबेश ऐसे ही आक्रोश में नज़र आया था। तो फिर इस बार अलग क्या है? एक पत्रकार के नाते मैं दो दिनों से इसी सवाल का जवाब तलाश रहा हूँ। 

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इस बार फ़र्क़ सिर्फ़ इतना दिख रहा है कि पाकिस्तान को सबक़ सिखाने का सारा दारोमदार सेना पर छोड़ दिया गया है! ख़ुद प्रधानमंत्री ने यह 'चतुराई' दिखाई है। उन्होंने सेना को ‘पूरी स्वतंत्रता’ दे दी है।

  • प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों किया? क्या सेना अबकी बार पाकिस्तान का 'पूरा इलाज' कर देगी? क्या जो 'छूट' मोदीजी ने अब सेना को दी है, वह उसके पास पहले नहीं थी? क्या अभी तक सेना सचमुच ‘पूरी स्वतंत्रता’ के लिए तरस रही थी? कुछ नहीं कर पा रही थी? 

क्या कश्मीर समस्या सिर्फ़ एक सैनिक चुनौती है? क्या कश्मीर समस्या का सम्बन्ध आन्तरिक और वैश्विक राजनीति, विदेश नीति और आर्थिक मज़बूती से नहीं है? क्या पाकिस्तान पर हमला कर देने से, उसे एक बार और हरा देने से कश्मीर समस्या का हल निकल आएगा?

एक तीर से कई निशाने साध रहे मोदी

सेना को खुली छूट देने की बात कह कर नरेंद्र मोदी एक तीर से कई राजनीतिक निशाने साध रहे हैं! बीते कई वर्षों में अकसर सेना के कुछ अफ़सर ऐसे दावे करते रहे हैं कि अगर उनके 'हाथ बँधे' न होते तो उन्होंने जाने क्या-क्या कर दिया होता! ज़ाहिर है कि इन अफ़सरों का इशारा उनके समय के राजनीतिक नेतृत्व की तरफ़ होता रहा है कि उसने उन्हें ऐन उस समय अपने हाथ खींच लेने को कह दिया और ऐसा तब जब वह पाकिस्तान को बहुत तगड़ी 'चोट' देने के क़रीब थे। 

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  • अब अगर नरेंद्र मोदी ज़ोर-शोर से सेना को 'खुली छूट' देने की बात करते हैं, तो वह परोक्ष रूप से यह 'स्थापित' करना चाहते हैं कि पिछली तमाम सरकारों में 'साहस की कमी' थी, इसलिए उन्होंने सेना को वह नहीं करने दिया, जिसमें सेना 'सक्षम' थी! 

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पुलवामा हमले को चुनावी रंग दे रहे मोदी 

ज़ाहिर है कि चुनावी मौसम में ऐसा तीर मोदी और बीजेपी को बड़ा फ़ायदा पहुँचा सकता है! और नरेन्द्र मोदी तो अभी से ही अपनी सभाओं में पुलवामा हमले को चुनावी रंग देने ही लग गए हैं! दूसरी बात यह कि बीते 5 साल से जारी मोदी सरकार की कश्मीर नीति की विफलताओं पर पर्दा डालने में यह क़दम प्रधानमंत्री के लिए बड़ा सुविधाजनक उपाय भी हो सकता है! यानी अब आतंकवाद और पाकिस्तान का इलाज सेना को ही करना है, राजनीतिक सत्ता को नहीं! 

सवाल यह है कि सेना को किस बात की छूट है? कश्मीर से सारे के सारे आतंकवादियों के पूरे सफ़ाये की या सीमा पार चल रहे आतंकी ठिकानों पर हमला बोल देने की या पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ देने की? इसका जवाब स्पष्ट नहीं है।

सेना को अगर कश्मीर के भीतर के आतंकवाद से निपटने की ‘खुली छूट’ है, तो वह क्या तरीक़े अपनाएगी? इस 'खुली छूट' में सेना जो करेगी, उसका ठीकरा किसके सिर फूटेगा? किस पर उँगलियाँ उठेंगी? सेना पर ही न! और सेना अपना मुँह नहीं खोल सकती। उसे सार्वजनिक रूप से बयान देने का हक़ नहीं है। उस पर ‘अनुशासन’ की तलवार लटकती रहती है।

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सेना यह नहीं बता सकती कि उसके पास कितने सीमित संसाधन हैं? बाक़ी देश को तो पता ही है कि सेना में अफ़सरों, गोला-बारूद और अन्य साज़ो-सामान की भारी किल्लत है।

  • यही है तेज़ी से कड़े फ़ैसले लेने वाली मज़बूत सरकार का सबसे बड़ा फ़ैसला। अब बताइए कि क्या 70 सालों में कभी किसी सरकार ने इतना बड़ा फ़ैसला पहले कभी लिया है? यदि नहीं, तो आपके पास ‘मोदी-मोदी-मोदी’ की नारेबाज़ी करने के सिवाय सिर्फ़ एक ही विकल्प है कि आप आगामी आम चुनावों में अपना फ़ैसला सुनाएँ। 

चुनाव अब सिर पर हैं। चुनाव में मोदी सरकार की ओर से गाना गाया जाएगा कि उसने न सिर्फ़ सर्ज़िकल स्ट्राइक की, बल्कि सेना को भी पूरी छूट दी। इसके बावजूद यदि आतंकवाद बेक़ाबू है तो इसके लिए मोदी सरकार की कोई जवाबदेही नहीं है। इसके लिए पूर्ववर्ती काँग्रेसी सरकारें ज़िम्मेदार हैं। 

अचानक बिन बुलाए लाहौर पहुँच जाने वालों और पठानकोट में पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के अफ़सरों की अगवानी करने वालों में खोट देखने वालों को तो न जाने कब से राष्ट्रद्रोही बताया ही जा रहा है।

जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों में मारे गए नागरिक, सैनिक और आतंकवादी

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यदि मोदी सरकार की कश्मीर नीति को आँकड़ों के साँचे में ढालकर देखना राष्ट्रद्रोह नहीं हो तो लगे हाथ यह भी जान लीजिए कि कड़े फ़ैसले लेने वालों के शासनकाल में जम्मू-कश्मीर में हुए आतंकी हमलों की संख्या में ख़ासी तेज़ी ही दर्ज़ हुई है। इसकी वजह से इन हमलों में हताहत हुए सैनिकों की संख्या भी बढ़ी है। देखें चार्ट। 

यूपीए-2 के मुक़ाबले मोदी राज में आतंकवाद की राह पकड़ने वाले कश्मीरी युवाओं की संख्या भी दस गुना इज़ाफ़ा हुआ है। ये आँकड़े भी उसी सरकारी तंत्र के हैं, जिस पर उसके ही आला अफ़सरों ने आँकड़ों को छिपाने का आरोप लगाते हुए इस्तीफ़ा दे दिया है।

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मोदी राज में सिर्फ़ बयानबाज़ी हुई 

मोदी सरकार की कश्मीर नीति सही है या नहीं? इस सवाल पर अनन्त चर्चा और बहस हो सकती है। लेकिन बीते 5 साल के अनुभव ने इतना तो साफ़ कर ही दिया है कि पूर्ववर्ती सरकारों की नीति ग़लत नहीं थी, क्योंकि नीतिगत स्तर पर तो बयानबाज़ी के सिवाय मोदी राज में कुछ भी नया नहीं हुआ।

केंद्र की नीति में नया कुछ भी नहीं 

सेना की ओर से आतंकवादियों के ख़िलाफ़ पहले भी ज़ोरदार कार्रवाई ही हुआ करती थी। सीमा पार से होने वाली अकारण गोलीबारी का पहले भी मुँहतोड़ जवाब देने की सेना को पूरी छूट हुआ करती थी। सर्ज़िकल हमले भी पहले होते ही रहे हैं। ‘आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकते’ वाली नीति भी पुरानी ही है। पाकिस्तान को वैश्विक स्तर पर अलग-थलग करने की नीति में भी नया कुछ नहीं है।

  • ज़ाहिर है कि यदि पुरानी नीति ही क़ायम है तो फिर मोदी राज और पूर्ववर्ती शासनों के बीच उपलब्धियों और नाकामी की ही तुलना हो सकती है। इसी तुलना से पता चलता है कि मोदी राज में आतंकी हमलों, इसमें मारे जाने वाले सैनिकों और नागरिकों की संख्या और आतंकवाद की राह पकड़ने वाले युवाओं की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में मोदी सरकार कश्मीर मोर्चे पर कहीं अधिक नाकाम रही है। 

झूठा निकला कश्मीरी पंडितों से किया वादा 

सियासी मोर्चे पर भी बीजेपी-पीडीपी गठबन्धन का हश्र हमारे सामने है। बीजेपी का चुनावी वादा था कि कश्मीरी पंडितों को उनके घरों में वापस भेजा जाएगा। लेकिन बीते 5 साल में एक भी कश्मीरी पंडित की घाटी में वापसी नहीं हुई। मोदी सरकार यह सब जानती है। चुनाव में इन सभी मुद्दों का उभरना स्वाभाविक है। इससे बचाव के लिए ही प्रधानमंत्री ने सेना को ‘पूरी स्वतंत्रता’ देने का दाँव चला है।

  • सेना सफल हो गई, तो श्रेय मोदी सरकार का, सेना अगर इच्छित परिणाम न ला पाई, तो ठीकरा सेना के मत्थे क्योंकि सरकार ने तो सेना को 'खुली छूट' दे ही रखी थी। लेकिन इस दाँव का एक और बड़ा ख़तरा है। कश्मीर जैसे मामलों में अगर सेना मनमर्ज़ी से सब कुछ करने लगे, तो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में कहीं हम सेना के 'निरंकुश' हो जाने का जोखिम नहीं ले रहे हैं।

विवादास्पद बयान दे रहे सेनाध्यक्ष

हमारे सेनाध्यक्ष पिछले दिनों विदेश नीति, कूटनीति और राजनीति से जुड़े कई मामलों में विवादास्पद बयान देकर ख़ासे चर्चित हो चुके हैं। जबकि ऐसे मामलों पर 'स्टैंड' लेने का काम राजनीतिक नेतृत्व का है, सेना का नहीं। लेकिन 'खुली छूट' की शुरुआत से खुलने वाले रास्ते की मंज़िल कहाँ तक हो सकती है, इस पर गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है। 

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