एक ज़माना था जब कहा जाता था कि जिसका कोई नहीं, उसका सहारा है सुप्रीम कोर्ट। जिसे कहीं इंसाफ़ न मिले, उसे सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ़ मिलता था। भारत के सुप्रीम कोर्ट की मिसाल दुनिया भर में दी जाती थी। लेकिन पिछले कुछ सालों से सुप्रीम कोर्ट और देश के मुख्य न्यायाधीशों की छवि को तगड़ा धक्का लगा है। यह कहा जाने लगा है कि सुप्रीम कोर्ट अब इंसाफ़ का मंदिर नहीं रह गया है, वह सरकार का दफ़्तर बन गया लगता है।
पिछले दिनों जब कोरोना के मसले पर कई हाई कोर्टो ने सरकारों को फटकारा और फिर अचानक सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना मामले का स्वतः संज्ञान लिया तो सवाल खड़ा हो गया कि क्या ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को बचाने के लिये किया? सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश की भूमिका पर वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष ने मशहूर वकील प्रशांत भूषण से बात की। प्रशान्त को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना मामले में खुद सुप्रीम कोर्ट दोषी ठहरा चुकी है।
आशुतोष : प्रशांत जी, आपने ‘द हिंदू’ अख़बार में एक लेख लिखा है और उसमें आपने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट में पिछले कुछ मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में ज़बरदस्त गिरावट आयी है, एक स्वतंत्र संस्था की वजह वह एक सरकारी संस्था बन कर रही गयी है। आपने सुप्रीम कोर्ट के लिये इतनी तीखी भाषा का इस्तेमाल क्यों किया?
प्रशांत : देखिये, उम्मीद पर दुनिया क़ायम है। जब कोई नया चीफ़ जस्टिस आता है तो बड़ी उम्मीद होती है कि यह पहले की तरह नहीं होंगे। जब पिछले चीफ़ जस्टिस से बहुत निराशा होती है तो हम उम्मीद करते हैं कि नये वैसे नही होंगे । ये (जस्टिस एस. ए. बोबडे) जब आये थे तो बड़ी उम्मीद थी। जस्टिस रंजन गोगोई ने कई मसलों पर बहुत निराश किया।
रफ़ाल का मसला हो या अयोध्या का मुद्दा हो या और भी कई मुद्दों पर जो बहुत संवेदनशील थे, राजनीतिक थे और जिनमें सरकार का बहुत ज़ोर लगा हुआ था, साफ़ ज़ाहिर था कि सरकार की मदद करने के लिये फ़ैसले लिये गये। उन्होंने रिटायरमेंट के बाद राज्यसभा में नौकरी भी ले ली। उनके पहले भी दो और चीफ़ जस्टिस हुये थे, उनके समय में भी यही कुछ देखा गया।
जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ तो महाभियोग भी चला था। मेडिकल कालेज का उनका केस था, उन्होंने उसकी सुनवाई खुद कर ली। उनके पहले जस्टिस खेहर साहब थे, उनके समय बिरला सहारा वाला केस था। कलिको पुल वाला भी केस था, जिसमें भी यही सब देखा गया। खुद बचने के लिये सरकार की मद की गयी।
जब बोबडे साहब आये तो हमें लगा शायद कुछ उम्मीद हो। जब 18 महीने का इनका कार्यकाल देखा गया तो बहुत ही निराशा हुयी। जितने मामले देखे या जिन मामले की सुनवायी ही इन्होंने नही होने दी, या जजों की नियुक्ति का मसला हो, जिसमें चीफ जस्टिस की अहम भूमिका होती है, हर चीज में इन्होंने निराश किया।
बहुत सारे मामले निपटारे के लिये सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं, जैसे धारा 370 हो या कश्मीर के बंदी प्रत्यक्षीकरण का मामला हो, नागरिकता क़ानून मामला हो, उनकी कोई सुनवायी नहीं की गयी। जो अर्जेंट केस याचिका भी डाली जैसे एलेक्टोरल बॉन्ड्स का हो या रोहिंग्या के प्रत्यर्पण का मामला हो, उनमें भी जिस तरह की सुनवाई की गयी या फ़ैसले आये, उस वजह से मुझे तीखा लेख लिखना पड़ा। मैं नहीं चाहता था कि रिटायरमेंट के दिन ऐसा लिखा जाये। लेकिन मजबूरन लिखना पड़ा।
जस्टिस एस. ए. बोबडे, मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट
आशुतोष: आपको क्या कारण लगता है? पिछली बार भी जब प्रवासी मजदूर सड़कों पर उतर रहे थे तो सुप्रीम कोर्ट ने सॉलीसिटर जनरल की एक अप्रैल की बात मान ली थी कि एक भी आदमी सड़क पर नहीं है, जबकि हज़ारों लाखों लोग पैदल जा रहे थे। यह धारणा बनी कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को बचाने के लिये यह काम किया था। इस बार भी ऐसा लग रहा है, लोगों को?
प्रशांत : जी हाँ। सुप्रीम कोर्ट का जो रोल पिछले सालों से दिख रहा है, उससे यह लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सामने घुटने टेक दिये हैं। पिछले पाँच साल में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला सरकार के ख़िलाफ़ नहीं आ पाया है। कोई भी फ़ैसला लें। बिरला सहारा का लें, जज लोया का लें, राम मंदिर का लें या रफ़ाल का लें। ये फ़ैसले एक के बाद एक सरकार के हक़ में गये। और ऐसे- ऐसे फ़ैसले जिनका कोई सिर पैर भी नहीं है।
जैसे कि रफाल के मसले पर एक काल्पनिक सीएजी की रिपोर्ट पर ही कह दिया कि सीएजी ने आडिट कर लिया है, जबकि सीएजी ने आडिट किया ही नहीं था। सरकार ने बंद लिफ़ाफ़े में कुछ दे दिया। बंद लिफाफे में क्या है, किसी को नहीं मालूम। इसकी वजह क्या है, यह अलग मुद्दा है।
लेकिन यह तो साफ़ दिखता है कि पिछले पाँच सालों में चार चीफ जस्टिसों के समय सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सामने घुटने टेक दिये। यह देखने में आया है कि जब कोई हाईकोर्ट अच्छा काम करता है, सरकार से स्वतंत्र हो कर तो सुप्रीम कोर्ट बीच में आ जाता है, सरकार के बचाव में।
जस्टिस रंजन गोगोई, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट
आशुतोष : क्या कारण है कि हाईकोर्ट स्वतंत्र काम करता हैं और सुप्रीम कोर्ट नहीं कर पा रहा है। जैसे की आपातकाल के समय में हुआ था। ये पैटर्न दिख रहा है। क्या सरकार का दबाव है या कुछ और कारण है?
प्रशांत : देखिये। हाईकोर्ट में अगर स्वतंत्र चीफ़ जस्टिस होते हैं तो काम अच्छा हो जाता है। अगर आप सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस को क़ब्ज़े में कर लें, किसी तरह से, बहुत तरीक़े होते हैं। जैसे रिटायरमेंट के बाद के लिये गाजर लटका दीजिये। मानवाधिकार में नियुक्ति का हो या राज्यपाल बनाने का या राज्यसभा की सदस्यता दे देंगे, तो कुछ लोग तो उसी से लुढ़क जाते हैं। कुछ लोग डर जाते हैं।
अगर ऐसी सरकार हो जैसे आज की मौजूदा सरकार है जो बहुत मज़बूत और फासीवादी है, जो कि धड़ाधड़ लोगों को गिरफ़्तार करती है, कोई भी क़ानून की परवाह नहीं करती है जब यह दिखता है कि सारी संस्थाओं ने सरकार के सामने घुटने टेक दिये है, चाहे वह मीडिया हो या चुनाव आयोग हो या कैग हो आदि आदि तो फिर कई बार जज भी डर जाते हैं। चीफ़ जस्टिस भी डर जाते हैं। वे सरकार की हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं।
एक और बहुत ख़तरनाक तरीक़ा है, जो हाल में मुझे दिखता है। जैसे कलिको पुल के सुसाइड नोट का मसला जिसमें जस्टिस खेहर के ख़िलाफ़ बड़े गंभीर आरोप लगाये गये कि जब अरुणाचल का केस हुआ तो इनके रिश्तेदारों ने पैसे माँगे। उस समय जो लेफ़्टिनेंट गवर्नर थे, उन्होंने कहा था कि सीबीआई की जाँच होनी चाहिये। सरकार ने नहीं होने दिया। बाद में पुल की पत्नी आयी, जाँच की माँग की, पर जाँच नहीं हुयी।
उनके बाद जस्टिस दीपक मिश्रा का मामला आया। मेडिकल कालेज का घोटाला था। जस्टिस गोगोई आये। उनके आते ही सेक्सुअल हैरेसमेंट का केस आया। वह लेडी सामने आयी। मुझे ऐसा लगता है कि सरकार सारी एजेंसियों का इस्तेमाल करती है। विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़, मीडिया के ख़िलाफ़, या फिर इंडिपेंडेंट एक्टिविस्ट हो, सबके ख़िलाफ़ आयकर विभाग हो ईडी हो या सीबीआई हो का इस्तेमाल होता है। तो ये लगता है कि कहीं न कहीं एजेंसियों का भी इस्तेमाल हो रहा है।
आशुतोष: बोबडे के ख़िलाफ़ तो कोई मामला नहीं आया, लेकिन जो अगले चीफ़ जस्टिस बनने वाले हैं जस्टिस रमना उनकी बेटी पर बेहद गंभीर आरोप हैं। क्या यह महज़ इत्तफ़ाक़ है?
प्रशान्त : देखो, कलिको पुल की कोई जाँच नहीं हुयी। जस्टिस दीपक मिश्रा के मामले में भी मुझे नहीं लगता कि पूरी जाँच हुयी।
उसके बाद सेक्सुअल हैरेसमेंट का केस आया। उसमें कोई जाँच होने नहीं दी गयी। अब जो नये चीफ़ जस्टिस हैं, उनके ख़िलाफ़ एक मुख्यमंत्री ने बड़े सीरियस आरोप लगाये हैं। मुख्यमंत्री ने बड़े गंभीर आरोप लगाये, दस्तावेज़ी सबूत दिये। लेकिन जाँच होगी, लगता नहीं है। ऐसे में क्या इसका इस्तेमाल ब्लैकमेल के हथियार के तौर पर होगा।