ममता क्यों बोलीं- 2024 में अकेले चुनाव लड़ेंगे, विपक्षी एकता खटाई में?
ममता बनर्जी ने घोषणा की है कि तृणमूल कांग्रेस अगले साल लोगों के समर्थन से अकेले ही चुनाव लड़ेगी। ममता की घोषणा के अनुसार 2024 में वह 42 सीटों को प्रभावित कर सकती हैं। माकपा और कांग्रेस पर भाजपा के साथ साठगांठ का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा, 'अगर अपवित्र गठबंधन होगा तो कांग्रेस भाजपा से कैसे लड़ेगी? वामपंथी भाजपा से कैसे लड़ेंगे... सीपीएम और कांग्रेस कैसे भाजपा विरोधी होने का दावा कर रही हैं?'
वह पश्चिम बंगाल के सरदिघी में हुए उपचुनाव के संदर्भ में बोल रही थीं जहां कांग्रेस ने सत्तारूढ़ तृणमूल से विधानसभा की सीट छीन ली है। ममता ने कहा है कि कांग्रेस, वामपंथी और भाजपा सभी ने सरदिघी में 'सांप्रदायिक कार्ड' खेला है। उन्होंने कहा कि अंतर यह है कि 'बीजेपी ने इसे खुले तौर पर खेला है, लेकिन सीपीएम और कांग्रेस ने इसे काफी हद तक खेला है'। तृणमूल के इस बयान का साफ़ मतलब है कि विपक्षी एकता की कोशिशों में लगे दूसरे दलों को इससे तगड़ा झटका लगने वाला है। सवाल है कि यदि तृणमूल कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता होती भी है तो वह कितनी मज़बूत होगी? और क्या विपक्ष साथ आ पाएगा भी या नहीं?
ममता बनर्जी का यह बयान इसलिए अहम है कि हाल में कई दल 2024 से पहले विपक्षी एकता के प्रयास में लगे हैं। विपक्षी एकता के लिए बार-बार प्रयास के बाद भी अब तक उनको इसमें ठोस सफलता नहीं मिली है। विपक्षी एकता का प्रयास होता हुआ दिखता भी है कि फिर उसमें फूट पड़ जाती है। लेकिन क्या अब इसमें कुछ बदलाव आने की संभावना है? दिल्ली के कथित शराब घोटाले में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद क्या सभी विपक्षी दलों के सुर एक हो रहे हैं?
जब से सीबीआई ने सिसोदिया को गिरफ़्तार किया है तब से अधिकतर प्रमुख विपक्षी दल अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का समर्थन करते दिखे हैं। इन दलों ने सरकार पर राजनीतिक बदले की कार्रवाई करने का भी आरोप लगाया। ऐसा करने वालों में तृणमूल कांग्रेस से लेकर उद्धव ठाकरे खेमे की शिवसेना, नीतीश का जेडीयू, तेलंगाना की सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति, तेजस्वी यादव का राष्ट्रीय जनता दल, अखिलेश की सपा और कांग्रेस की सहयोगी झारखंड मुक्ति मोर्चा भी शामिल हैं। इन सबने सिसोदिया की गिरफ्तारी की निंदा की है।
जब से बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार सत्ता में आई है, विपक्ष उस पर केंद्रीय एजेंसियों के ज़रिए उन्हें निशाना बनाने का आरोप लगा रहा है। पिछले साल जुलाई में जब एक हफ़्ते में तीन बड़े नेताओं पर कार्रवाई हुई थी तब भी विपक्ष की प्रतिक्रया साथ आने वाली नहीं दिखी थी।
तब पहले सोनिया गांधी की ईडी के सामने पेशी हुई थी। फिर मनीष सिसोदिया के ख़िलाफ़ सीबीआई की जाँच और पार्थ चटर्जी की गिरफ़्तारी हुई थी। तीन अलग-अलग दलों के नेताओं के ख़िलाफ़ जाँच एजेंसियों का शिकंजा कसा था। लेकिन उन्होंने साथ मिलकर मोर्चा नहीं खोला। सभी दलों ने अलग-अलग प्रदर्शन ज़रूर किए। बल्कि वे समय समय पर आपस में लड़ते भी दिखे हैं।
विपक्षी दलों के बीच ऐसा झगड़ा राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान भी दिखा था। वे कोई आपसी सहमति से उम्मीदवार भी नहीं उतार पाए थे। टीएमसी ने प्रयास किया और एक चेहरा उतारा भी था, लेकिन बाद में ममता ही पलट गई थीं। ममता ने बाद में कहा था कि अगर उन्हें पता होता कि द्रौपदी मुर्मू सरकार की तरफ़ से उम्मीदवार होने वाली हैं तो वो कभी भी सिन्हा का नाम आगे नहीं बढ़ातीं। उपराष्ट्रपति के नाम पर मार्ग्रेट अल्वा का नाम इसलिये पसंद नहीं है कि उनसे इस बारे में कोई सलाह नहीं ली गई।
विपक्षी एकता को लेकर ममता बनर्जी का रवैया अजीबोगरीब रहा है। वह कई बार ऐसी एकता की बात कर चुकी हैं। कभी तीसरा मोर्चा के प्रयास करने वालों के साथ भी नज़र आई हैं। उन्होंने पिछली बार तब विपक्षी एकता को धता बता दिया था जब वह नवंबर 2021 में दिल्ली पहुँची थीं।
दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से मिलने वाली ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से मुलाक़ात को लेकर एक सवाल के जवाब में पहले तो कहा था कि 'वे पंजाब चुनाव में व्यस्त हैं', लेकिन बाद में उन्होंने कहा कि 'हमें हर बार सोनिया से क्यों मिलना चाहिए? क्या यह संवैधानिक बाध्यता है?' ममता बनर्जी के इस बयान में तल्खी तो दिखी ही थी, इसके संकेत भी साफ़-साफ़ मिले थे।
उनके उस बयान को उस संदर्भ में देखा गया था जिसमें ममता अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का पूरे देश में विस्तार करने में जुटी थीं और उसमें कई नेता कांग्रेस छोड़कर शामिल हो चुके थे।
तब ममता बनर्जी लगातार कांग्रेस के नेताओं को तोड़ रही थीं। गोवा से लेकर दिल्ली, हरियाणा और यूपी में जिन नेताओं को तृणमूल अपने खेमे में ला रही थीं उनमें सबसे ज़्यादा नुक़सान कांग्रेस का ही हो रहा था। तब दिल्ली में कीर्ति आज़ाद टीएमसी में शामिल हुए थे। गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लुईजिन्हो फलेरो के अलावा महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं सुष्मिता देव, उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहे ललितेश पति त्रिपाठी और राहुल गांधी के पूर्व सहयोगी अशोक तंवर भी कांग्रेस से टीएमसी में शामिल हो गए थे।
पहले माना जाता रहा था कि ममता बनर्जी और सोनिया गांधी के बीच अच्छे समीकरण रहे हैं। दोनों नेता अक्सर विपक्षी एकता की बात करती रही हैं और बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए के ख़िलाफ़ एकजुटता की बात करती रही थीं।
ममता का ऐसा रवैया होने के बाद भी विपक्षी एकता लाने के प्रयास होते रहे। पिछले साल ही सितंबर में सोनिया गांधी, नीतीश कुमार और लालू यादव की मुलाक़ात हुई थी। लेकिन इसपर कितना आगे बढ़ा गया, यह अब तक कुछ भी साफ़ नहीं है।
नीतीश कुमार कह रहे हैं कि उनका काम विपक्षी दलों को एकजुट करना है और अगर 2024 में विपक्ष एकजुट हुआ तो नतीजे अच्छे आएंगे। वह यह भी कह चुके हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी दलों को एकजुट करने की तमाम कोशिशें हुई थीं लेकिन ये कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकी थीं।
तब तेलुगू देशम पार्टी के मुखिया और आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोशिश की थी कि विपक्षी दलों को एकजुट किया जाए लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी ऐसा नहीं हो सका था।
नीतीश ने हाल में कहा है कि अगर विपक्ष एकजुट हो जाए तो बीजेपी 100 सीटों से नीचे आ जाएगी, लेकिन इसके लिए कांग्रेस का साथ चाहिए।
इसके बाद कांग्रेस की ओर से बयान आया था कि मजबूत कांग्रेस के बिना मजबूत विपक्षी एकता नामुमकिन है। इस तरह कांग्रेस ने भी गैर बीजेपी खेमे का संकेत दिया है।
रायपुर में कांग्रेस के पूर्ण अधिवेशन में भी कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने विपक्षी एकता की बात कही। उन्होंने कहा कि 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर वो विपक्षी एकता में शामिल होने और कुर्बानी देने के लिए तैयार है। तो सवाल वही है कि इन सब बयानों के बाद क्या सच में विपक्षी एकता हो पाएगी या फिर ये दल आपस में लड़ते ही रहेंगे?