लेजेंडरी लेखक मॉरिसन और बॉयड अपनी पुस्तक ‘ऑर्गेनिक केमिस्ट्री’ में लिखते हैं कि “नो वन कैन चैलेंज द पोजीशन ऑफ प्रोटीन इन द बॉडी”। अर्थात शरीर में प्रोटीन की स्थिति सबसे महत्वपूर्ण है। अन्य सभी अवयवों की उपयोगिता के बावजूद शारीरिक अस्तित्व का दारोमदार प्रोटीन पर है। क्या आपने कभी सोचा है कि संसदीय लोकतंत्र में प्रोटीन जैसी स्थिति वाला ऐसा कौन सा अवयव है जिसके चारों ओर संसदीय लोकतंत्र घूमता है? ऐसा एक कौन है जिसके ऊपर संसदीय लोकतंत्र टिका है? ऐसा कौन है जो अपनी नैतिकता से लोकतंत्र की विभिन्न संस्थाओं को आच्छादित किए रहता है और जिसकी अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख होने पर लोकतंत्र वैसे ही भरभरा कर गिर जाएगा जैसे बिना प्रोटीन के शरीर गिर जाता है?
संसदीय लोकतंत्र में यह स्थान है प्रधानमंत्री का।
भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री का पद किसी भी व्यक्ति के लिए उसके राजनैतिक शिखर का अंतिम पड़ाव है। उसे इस ऊँचाई पर पहुंचते ही देश के सभी नागरिकों की आकांक्षाओं का भार एक साथ सहन करना होता है। देश की सीमाओं के साथ-साथ हर धर्म, हर जाति और हर वर्ग, हर लिंग के व्यक्ति की रक्षा/सुरक्षा के आश्वासन की आशा प्रधानमंत्री से की जाती है। इसलिए इस बात से फ़र्क नहीं पड़ता कि प्रधानमंत्री किस दल से चुनकर आया है या चुने जाने से पूर्व उसकी व्यक्तिगत विचारधारा क्या थी। देश की हर समस्या के लिए प्रधानमंत्री की आलोचना पूर्णतया जायज़ है और यह प्रवृत्ति एक स्वस्थ लोकतंत्र की ओर इशारा भी करती है।
प्रधानमंत्री को संविधान में जो शक्तियाँ प्राप्त हैं उससे उसे दया का पात्र समझने वाले और हर बात के लिए ज़िम्मेदार न ठहराया जाए, ऐसी वकालत करने वाले राजनैतिक शास्त्री इस पद के मूल महत्व को समझने में ग़लती कर बैठते हैं। आम नागरिक के लिए वो उसका प्रधानमंत्री है जो सेनाओं के माध्यम से देश की रक्षा करता है, पुलिस के माध्यम से अपराधियों को पकड़ता है, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करता है, जनता के शोषण के ख़िलाफ़ हमेशा खड़ा रहता है, महंगाई व बेरोजगारी से उन्हें निजात दिलाता है। हो सकता है कि संवैधानिक स्थिति के अनुसार यह सब कर पाना इतना आसान न हो, लेकिन ‘नागरिक दृष्टि’ से ये अनुचित भी नहीं है।
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान पूर्णरूप से लागू हो गया। संविधान बनाने की प्रक्रिया में कांग्रेस समेत लगभग सभी विचारधाराओं के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था।
संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार ‘राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की नियुक्ति करेगा’ जैसे सामान्य शब्दों से प्रधानमंत्री की यात्रा शुरू होती है। लेकिन इसके बाद प्रधानमंत्री ‘भय-पक्षपात’ को नकारते हुए भारत की ‘एकता और अखंडता को अक्षुण्ण’ रखने की शपथ लेता है।
यह शपथ उसने यूं ही नहीं ली। अगर उसे देश की अखंडता बचाने का दायित्व मिला है तो उसे ऐसी शक्तियां भी मिली हैं जिन्हे एच. आर. जी. ग्रीव्स के शब्दों में ही सही से समझा जा सकता है- “सरकार देश की मालिक है, और प्रधानमंत्री सरकार का मालिक है”।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में भारत में प्रधानमंत्री नाम की संस्था का एक अलग ही स्वरूप देखा गया है। लगभग हर विपरीत परिस्थिति में भारत के प्रधानमंत्री या तो ज़िम्मेदारी नहीं लेते या तो अपनी ज़िम्मेदारी राज्यों पर टालते देखे गए हैं या फिर सारी ज़िम्मेदारी जनता पर डालकर उन्हें ‘आत्मनिर्भर’ बनाने की राह पर चल निकले हैं। हाल में ही राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ कोविड को लेकर बैठक में प्रधानमंत्री जी ने पेट्रोल-डीजल का मुद्दा उठाना शुरू कर दिया। ऐसा संदेश देने की कोशिश की गई कि महंगाई के लिए ज़िम्मेदार राज्य सरकारें हैं। कोविड के कुप्रबंधन और ऐतिहासिक माइग्रैशन के लिए भी राज्यों को ज़िम्मेदार ठहराया गया।
बिजली संकट हो या सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की घटनाएँ हों, किसानों का आंदोलन हो या CAA-NRC का आंदोलन, लगभग हर बात के लिए प्रधानमंत्री द्वारा या तो नागरिकों पर प्रश्न उठाया गया या फिर राज्य की सरकारों पर। भारत सरकार के प्रधानमंत्री कभी भी इन नीतियों के असफल होने पर स्वयं पर प्रहार करते नहीं देखे गए। स्वयं की असफलताओं के झटके से खुद को उबारने के लिए उन्होंने ‘मन की बात’ जैसे ‘कुशन’ प्रदान करने वाले कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान दिया। जबकि प्रधानमंत्री का पद और उसे मिले अधिकार उसकी मज़बूत स्थिति की ओर इशारा करते हैं। एक मज़बूत प्रधानमंत्री अनफ़्रेंडली पत्रकारों के सामने आता है और उनसे संवाद करता है।
एक मज़बूत प्रधानमंत्री स्वयं की आलोचना से नहीं डरता, उसे किसी ‘मन की बात’ की ज़रूरत नहीं होती। वह तो जवाहरलाल नेहरू की तरह ‘चाणक्य’ बनकर स्वयं ही अपनी सरकार के ख़िलाफ़ अख़बारों में आलोचना करता है। मैं यह कहूँगी यह नेहरू का राष्ट्रप्रेम था।
तमाम संवैधानिक शक्तियों के बावजूद, लोकप्रिय नेता होने के बावजूद, तथाकथित शानदार वक्ता होने के बावजूद भारत के प्रधानमंत्री ने लखीमपुर खीरी में किसानों पर गाड़ी चढ़ा देने के आरोपी मोनू मिश्रा के पिता अजय मिश्रा उर्फ टेनी महाराज को अपनी कैबिनेट में बनाए रखा जबकि अजय मिश्रा बार-बार अपने बेटे का बचाव करते देखे गए। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री चुप क्यों थे, मुझे नहीं पता; लेकिन संविधान चीख-चीख कर कह रहा है कि प्रधानमंत्री के पास इस मामले पर निर्णय लेने का पर्याप्त अधिकार है।
वास्तव में, राष्ट्रपति उन्हीं व्यक्तियों को मंत्री नियुक्त करता है जिनकी सिफारिश प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है। प्रधानमंत्री के पास यह शक्ति है कि वह राष्ट्रपति से कहकर किसी भी मंत्री का त्यागपत्र ले ले या उसे बर्खास्त कर दे। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस्तीफा न लेना और बर्खास्त न किये जाने का निर्णय लिया। पता नहीं क्यों?
भारत का प्रधानमंत्री आपदा प्रबंधन का मुखिया होता है, अंतरराज्यीय परिषद का अध्यक्ष होता है। इसके बावजूद जब कोविड-19 जैसी महामारी फैली तो पीएम मोदी ने राज्यों को यह याद दिलाया कि ‘स्वास्थ्य राज्य का विषय है’। विपरीत परिस्थितियों में ऐसा कहना ‘मज़बूत प्रधानमंत्री’ के लक्षण तो नहीं है। आपदा प्रबंधन का अध्यक्ष होने के नाते उनके पास पूरे देश के राज्यों को सख्त दिशा-निर्देश जारी करने और उनका पालन सुनिश्चित कराने का अधिकार है लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें राज्यों को दोष देना ज़्यादा उचित लगा?
भारत के प्रधानमंत्री सेनाओं के राजनैतिक प्रमुख हैं। इसके बावजूद गलवान घाटी में भारत के सैनिकों के साथ जो हुआ उसकी ज़िम्मेदारी लेने के बजाय पीएम ने रणनीतिक चुप्पी बेहतर समझी। मज़बूत प्रधानमंत्री सिर्फ़ आर्थिक रूप से ‘बैंकरप्ट’ और राजनैतिक रूप से अस्थिर पाकिस्तान जैसे राष्ट्रों के ख़िलाफ़ नहीं बोलता बल्कि वो चीन जैसी महाशक्ति को भी ‘लाल आँख दिखाने’ की क्षमता रखता है। प्रधानमंत्री केंद्र सरकार का मुख्य प्रवक्ता होता है, लेकिन पता नहीं वो चीनी मुद्दे पर क्यों कुछ नहीं बोले?
भारत का प्रधानमंत्री राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद और राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का भी अध्यक्ष होता है, इसके बावजूद गंगा की गंदगी के बावजूद उनकी चुप्पी, गंगा को साफ करने की उनकी समय सीमा का उल्लंघन और इस पर कोई बात न करना निश्चित रूप से उनकी मज़बूती की ओर तो इशारा नहीं है।
देश के संविधान ने भारत के प्रधानमंत्री को सबकुछ दिया है। हर वो शक्ति दी है जिससे वह देश को सुरक्षित और समृद्ध बना सकें। संविधान उन्हें यह तक शक्ति देता है कि यदि कोई राज्य संविधान के अनुरूप न चले तो वो उस सरकार के स्थान पर राष्ट्रपति शासन लागू कर सकें। अगर कोई राज्य जानबूझकर नागरिकों को कोविड में परेशान कर रहा था, या आज जानबूझकर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर रहा है जिसकी वजह से महंगाई और बेरोजगारी बढ़ रही है, तो प्रधानमंत्री को किसने रोका है कि वो वहाँ हस्तक्षेप करके राज्य की स्थिति को सुधारें। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने के बावजूद वहाँ की सारी समस्याओं की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार अर्थात प्रधानमंत्री की होगी। क्या प्रधानमंत्री दृढ़ता और भरोसे के साथ यह ज़िम्मेदारी ले सकते हैं? शायद नहीं!
संविधानविद सर आइवर जेनिंग्स का मानना है कि “प्रधानमंत्री उस सूर्य की भांति है जिसके चारों ओर ग्रह परिक्रमा करते हैं। वह संविधान का सूत्रधार होता है। संविधान के सभी मार्ग प्रधानमंत्री की ओर जाते हैं”। राष्ट्र चलाना भाषण देना नहीं है, यह ज़िम्मेदारी की मांग करता है। असीमित शक्तियों के बावजूद अगर कोई प्रधानमंत्री अपनी सरकार की कमियों को राज्यों की ओर पास करने का कार्य कर रहा है तो इसका मतलब यह हुआ कि वह प्रधानमंत्री उतना सक्षम नहीं है जितना सक्षम उसे समझा जा रहा है।
पेट्रोल के दाम आसमान में जा रहे हैं तो देश भुखमरी सूचकांक में लगातार नीचे जा रहा है। राज्यों का अरबों रुपये अभी भी केंद्र के पास बकाया है। और अब नयी समस्या यह है कि देश कोयले की समस्या से जूझ रहा है या यह कहें कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में केंद्र सरकार देश की मूल समस्याओं का समाधान नहीं निकाल पा रही है। स्वामीनाथन अइय्यर जैसे अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि भारत में एक ‘तूफ़ान’ आने वाला है लेकिन इस तूफ़ान की चर्चा ना पीएम कर रहे हैं ना मीडिया। बेरोज़गारी और महंगाई का यह तूफ़ान देश को नुक़सान पहुँचाने वाला है लेकिन प्रधानमंत्री जी व्यस्त हैं राज्यों को दोष देने में। 108 रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स की चिट्ठी के मुक़ाबले, 197 ब्यूरोक्रेट्स की चिट्ठी, लोगों को प्रतिउत्तर या ‘मास्टरस्ट्रोक’ लग सकती है लेकिन वास्तव में यह एक लड़खड़ा कर गिर चुकी व्यवस्था की अपनी शर्म छिपाने की मेकेनिज़्म मात्र है।
प्रधानमंत्री से कुछ सवाल
- लोकप्रिय नेता और भारत सरकार के मुख्य प्रवक्ता होने के नाते आपको यह बताना चाहिए कि भारत की राजधानी में आपके घर से कुछ ही दूर दुनिया के सबसे बड़े कूड़े का भंडार क्यों है? जबकि आपको इस देश का प्रधानमंत्री बने 8 साल हो चुके हैं?
- आपको बताना चाहिए कि भारत के पड़ोसियों से भारत के संबंध लगातार ख़राब क्यों हो रहे हैं?
- आपको बताना चाहिए कि देश कब महंगाई और बेरोज़गारी की दुर्दांत साइकिल से निजात पाएगा?
- आपको बताना चाहिए कि देश को तोड़ने और घृणा फैलाने वाले नरसिंहानंदों के ख़िलाफ़ कब आपकी सरकार जागेगी?
- क्या आप इस बात पर रोशनी डालेंगे कि क्यों पंजाब, मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान, कर्नाटक, असम तक भारत के सौहार्द्र को छिन्न-भिन्न करने वालों का बोलबाला है?
- क्या आप बता पाएँगे कि नोटबंदी से भारत के नागरिकों और सरकार को क्या फ़ायदा हुआ?
- क्या आप बता पाएँगे कि आप और आपकी सरकार कितना काला धन वापस लायी?
सत्ताधारी दल का नेता, जिसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया, सामान्यतया वही देश का प्रधानमंत्री बनता है। राजनीति में प्रधानमंत्री विश्वास का सबसे बड़ा प्रतीक होता है। ऐसे में चुनावी रैलियों के दौरान उसके द्वारा किए गए वादों को जनता कभी हल्के में नहीं लेती।
चुनावी रैलियों के दौरान किए गए वादे प्रधानमंत्री की सोच का भाषाई अनुवाद होता है। जब यह भाषाई अनुवाद ‘ज़मीन’ पर नहीं दिखाई देता तो इसे ‘धोखा’ कहा जाता है। धोखा किसी भी देश के राजनैतिक प्रधान के लिए उचित शब्द नहीं है।