'लैटरल एंट्री' से निकले पर 'जाति जनगणना' के जाल से कैसे बचेंगे मोदी?
नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल के दो महीने के भीतर तीन बड़े फ़ैसले वापस लेने के लिए मजबूर हुए हैं। पहले, वक़्फ़ बोर्ड संपत्ति मामले में बिल लाकर भारतीय जनता पार्टी ने मुस्लिम समाज को एक बार फिर से खलनायक बनाने की कोशिश की, लेकिन एनडीए के सहयोगी दलों, खासकर, चंद्रबाबू नायडू के विरोध और नीतीश कुमार की खामोशी के कारण नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे जेपीसी को सौंप दिया। जाहिर तौर पर अब इस बिल का न तो वह स्वरूप होगा और न ही इसके ज़रिए भारतीय जनता पार्टी हिंदू मुसलमान राजनीति करने में कामयाब हो सकेगी। इसके बाद नए ब्रॉडकास्ट बिल को लेकर नरेंद्र मोदी ने बहुत मज़बूती के साथ क़दम बढ़ाया लेकिन विपक्ष के दबाव और लगातार बढ़ती असहमतियों की आवाजों के कारण सरकार यह बिल संसद में पेश करने से पहले ही पीछे हट गई। इसके बाद 20 अगस्त को एक बहुत महत्वपूर्ण फ़ैसला नरेंद्र मोदी ने वापस लिया।
दरअसल, 17 अगस्त को यूपीएससी की तरफ़ से जारी विज्ञापन में 24 विभागों की 45 उप सचिव, संयुक्त सचिव और निदेशक जैसे पदों के लिए लैटरल एंट्री का विज्ञापन जारी किया गया था। इसमें आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। लिहाजा, राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव, मायावती, मल्लिकार्जुन खड़गे और तेजस्वी यादव समेत समूचे इंडिया गठबंधन के दलों ने लैटरल एंट्री के विरोध में मोर्चा खोल दिया। इसके साथ-साथ एनडीए के घटक दल के सहयोगी चिराग पासवान ने खुलकर लैटरल एंट्री का विरोध किया और सरकार के समक्ष इस मुद्दे को उठाने का ऐलान किया। इसके बाद जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी ने लैटरल एंट्री का सधे शब्दों में विरोध किया और सरकार से इसे वापस लेने का अनुरोध करते हुए कहा कि इससे इंडिया गठबंधन को हमला करने का मौक़ा मिलेगा।
इसका परिणाम यह हुआ कि 20 अगस्त की दोपहर होते-होते केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह की तरफ़ से लैटरल एंट्री का निरस्त्रीकरण संबंधी पत्र जारी किया गया। इस पत्र के हवाले से जितेंद्र सिंह ने लिखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि सिंगल पदों पर कोई आरक्षण का प्रावधान क्यों नहीं है। नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि लैटरल एंट्री में भी सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो। इस तरह यह फ़ैसला भी वापस हो गया।
इस फ़ैसले ने तय कर दिया है कि अब भारत की राजनीति का पहिया पूरी तरीके से घूम चुका है। पिछले एक दशक से चल रही कॉर्पोरेट हितैषी हिंदुत्व की राजनीति का समय अब समाप्त हो गया है। हालाँकि, 2024 के लोकसभा चुनाव ने ही यह तय कर दिया था कि अब राजनीति दलितों-वंचितों के साथ सामाजिक न्याय के रथ पर सवार होकर आगे बढ़ रही है। नरेंद्र मोदी की हिंदुत्व की राजनीति के लिए अब कोई मौक़ा नहीं है। ऐसे में उन्हें लगातार इस तरह के फ़ैसले वापस लेने पड़ रहे हैं। अब जबकि हिंदुत्व की राजनीति का चक्र पूरा हो चुका है और राजनीति सामाजिक न्याय की धुरी पर आकर केंद्रित हो गई है, ऐसे में वे तमाम मुद्दे अब सामने आएंगे जिनसे नरेंद्र मोदी अब तक बचते रहे हैं।
राहुल गांधी ने 20 अगस्त की शाम को ट्वीट करके लैटरल एंट्री की वापसी को संविधान की जीत बताया और जाति जनगणना तथा 50 फ़ीसदी आरक्षण की सीमा को ख़त्म करने की मांग दोहराई। जाहिर है कि राहुल गांधी का अगला क़दम जाति जनगणना और आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी को हटाए जाने की मुहिम होगी। नरेंद्र मोदी पिछले 4 साल से जाति जनगणना के मुद्दे से मुंह छुपा रहे हैं। 2020-21 में उन्हें एक मौक़ा कोरोना की आपदा ने दिया था। कोरोना प्रोटोकॉल के नाम पर उन्होंने जनगणना को ही टाल कर दिया था। हालाँकि इस दरमियान विधानसभा से लेकर पंचायत तक के चुनाव संपन्न हुए और खुद नरेंद्र मोदी ने सैकड़ों सभाएं कीं।
राहुल गांधी ने पहले भारत जोड़ो यात्रा और उसके बाद भारत जोड़ो न्याय यात्रा में भी जाति जनगणना का मुद्दा बड़ी मजबूती से उठाया था। इसका परिणाम यह हुआ कि नरेंद्र मोदी जनगणना से ही भागते रहे।
प्रति दस साल बाद होने वाली जनगणना आज़ादी के बाद पहली बार अवरुद्ध हुई है। दरअसल, जाति जनगणना नरेंद्र मोदी के लिए आगे कुआं और पीछे खाई जैसी स्थिति है। नरेंद्र मोदी अगर जाति जनगणना नहीं कराते हैं तो ओबीसी उनके हाथ से निकल जायेगा और अगर कराते हैं तो श्रेय राहुल गांधी को जाएगा। सवर्ण जातियां जाति जनगणना क़तई नहीं चाहतीं। यही बीजेपी का आधार वोटबैंक हैं। लेकिन इसकी तादात 12-15 फीसदी से अधिक नहीं है। केवल सवर्णों के सहारे बीजेपी कभी चुनाव नहीं जीत सकती।
जाति जनगणना का मुद्दा पहले बिहार में मुखर हुआ था। विपक्ष में रहे तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मिलकर नरेंद्र मोदी से जाति जनगणना कराने का आग्रह किया। लेकिन जब बिहार में एनडीए की सरकार टूट गई और महागठबंधन की सरकार बनी, तो नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकार ने बिहार में जाति जनगणना और आर्थिक सर्वेक्षण कराया। बिहार में जो डेमोग्राफी सामने आई, उससे भारतीय जनता पार्टी के पैरों तले से जमीन खिसक गई। सवर्ण अगड़ी जातियों की संख्या को अभी तक जितना बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया था, उसकी कलई खुल गई।
दूसरी तरफ भाजपा कुछ पिछड़ी और दलित जातियों पर आरोप लगाती रही है कि राजनीतिक प्रभुत्व के जरिए यादवों ने सरकारी नौकरियां ज्यादा हासिल की हैं। पिछड़ों के आरक्षण की मलाई अकेले यादव ही हड़प गए। लेकिन बिहार की जाति जनगणना ने स्पष्ट कर दिया कि सरकारी नौकरियों से लेकर संपत्ति और संसाधनों पर अगड़ी सवर्ण जातियों का कब्जा है। इससे भारतीय जनता पार्टी की यादव विरोधी मुहिम कमजोर पड़ती है और दूसरे अगड़ी जातियों की संपन्नता और सरकारी नौकरियों तथा संसाधनों पर वर्चस्व से अगड़ा और पिछला विभाजन ज्यादा मजबूत होता है। यह स्थिति भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के लिए खतरनाक है।
नरेंद्र मोदी के पास जाति जनगणना की क्या कोई काट मौजूद है? जाति जनगणना के बरक्स उनके पास केवल एक ट्रंप कार्ड है। रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट लागू करके नरेंद्र मोदी अति पिछड़ों को ओबीसी के भीतर अलग आरक्षण का प्रावधान कर सकते हैं।
कर्पूरी ठाकुर के फॉर्मूले के अनुसार भी अति पिछड़ों को अलग आरक्षण दिया जाना चाहिए। यह सामाजिक न्याय के लिए जरूरी भी है। लेकिन समस्या यह है कि अभी पिछड़ों के लिए केवल 27 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान है। मंडल कमीशन और सामाजिक न्याय का सिद्धांत कहता है कि पिछड़ों के लिए आबादी के अनुसार आरक्षण होना चाहिए। राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी के इस कार्ड को पहले ही भाँप लिया है। इसलिए उन्होंने 50 फ़ीसदी सीमा को हटाकर आरक्षण बढ़ाने की मांग की है। अगर नरेंद्र मोदी रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट लागू करके अति पिछड़ों को अलग से आरक्षण का प्रावधान करते हैं तो निश्चित रूप से पिछड़ों की मजबूत जातियों की तरफ से आरक्षण की सीमा बढ़ाये जाने की मांग जोर पकड़ेगी। यह आंदोलन नरेंद्र मोदी के लिए बहुत मुश्किल साबित होगा।
दरअसल, कुछ राज्यों में मजबूत पिछड़ी जातियां भारतीय जनता पार्टी का आधार हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में जाट, गुर्जर, लोध और हरियाणा, महाराष्ट्र में यादव। यह मामला भी नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति है। इसीलिए इन दिनों भारतीय जनता पार्टी और खासकर आरएसएस ने अपने अनुषंगी संगठनों को दलित और पिछड़ों के बीच में धर्म सभाएं आयोजित करने के लिए सक्रिय कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी की मुश्किल यह है कि अगर राजनीति जाति और सामाजिक न्याय पर केंद्रित होती है तो उसके पास कोई नैरेटिव नहीं होगा। अगर नरेंद्र मोदी आरक्षण को बढ़ाते हैं और जाति जनगणना कराते हैं तो अगड़ी जातियां उनके हाथ से निकल सकती हैं। यह स्थिति नरेंद्र मोदी के लिए बेहद पेचीदा ही नहीं डरावनी भी है। इसीलिए इस समय नरेंद्र मोदी फैसला करके वापस लेने के लिए मजबूर हैं।