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क्या बीजेपी में कोई नीलकंठ बनने को तैयार है?

क्या बीजेपी में कोई नीलकंठ बनने को तैयार है?

क्या बीजेपी के नेताओं, कार्यकर्ताओं का जनता से जुड़ाव कम हो रहा है। हालिया उपचुनाव के नतीजों को लेकर क्या पार्टी चिंतित है?

पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों से पहले दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पार्टी को एक बड़ा संदेश दिया कि बीजेपी कार्यकर्ताओं को सामान्य आदमी के मन के विश्वास का सेतु बनना चाहिए। साथ ही उन्होंने कार्यकर्ताओं को सेवा का मंत्र देते हुए कहा कि सेवा ही सच्ची पूजा है और बीजेपी का मूल्य सेवा, संकल्प और समर्पण है।

प्रधानमंत्री मोदी के इस भाषण में क्या कोई बड़ा संदेश छिपा है? पार्टी के लिए कोई आदेश या निर्देश है? अगर इसे समझने की कोशिश पार्टी के नेता और कार्यकर्ता करेंगे तो वे एक बेहतर नतीजे की उम्मीद कर सकते हैं। 

आम आदमी से बढ़ती दूरी 

हाल में हुए 29 विधानसभा और तीन लोकसभा सीटों के उप-चुनावों के नतीजों ने बीजेपी को एक बड़ा झटका दिया होगा और इन नतीजों की तमाम वजहें गिनाई जा सकती हैं, लेकिन उन सबसे अलग एक बड़ी वजह है पार्टी के नेताओं की कार्यकर्ता और आम आदमी से बढ़ती दूरी। 

लगातार सात साल से केन्द्र में सत्ता में रहने और करीब डेढ़ दर्जन राज्यों में सरकार होने से पार्टी के नेताओं में अंहकार का भाव बढ़ा है, ऐसा पार्टी के कार्यकर्ता मानते हैं और इसके कारण दोनों के बीच दूरी बढ़ने लगी है। 

बीजेपी के ज़्यादातर नेताओं को लगने लगा है कि अब चुनावों में जीत उनके अलावा किसी के पास नहीं जा सकती और यह उनके नेतृत्व के कारण है, जबकि सच यह है कि कमज़ोर विपक्ष और मोदी की लोकप्रियता बीजेपी की ताकत के दो प्रमुख कारण हैं।

साफ है संदेश 

प्रधानमंत्री मोदी का संदेश साफ है कि लोगों के मन में कम होते विश्वास को बढ़ाना होगा और सेवा, समर्पण और संकल्प के रास्ते पर चलना ही होगा, कोई दूसरा शॉर्टकट नहीं है। उम्मीद करनी चाहिए कि मोदी का यह संदेश बीजेपी के नेताओं तक ठीक से पहुंच गया होगा।

उप-चुनाव के नतीजों पर देखिए चर्चा- 

अभी किसी वरिष्ठ पत्रकार मित्र ने कहा कि याद कीजिए कुछ दिनों पहले तक बीजेपी के एक मंत्री पत्रकारों और अपनी ही पार्टी के नेताओं को बात- बात पर यह याद दिलाते थे कि वो मोदी सरकार के एक सीनियर कैबिनेट मिनिस्टर हैं, इसलिए आप उनसे ऐसे ही नहीं मिल सकते, या फिर बात नहीं कर सकते। वैसे, मुझे नहीं लगता कि इस कारण से उन्हें पिछले फेरबदल में मंत्री पद से हटाया गया होगा। 

कहा जाता है कि सत्ता का यह चरित्र होता है कि वो आपको अपने ही लोगों से दूर करने लगती है क्योंकि तब आप स्वयं को ज़्यादा महत्वपूर्ण और काबिल समझने लगते हैं। इसलिए सत्ता में रहते वक्त प्रधानमंत्री के इस संदेश को ना केवल समझना बल्कि उसे व्यवहार में लाना ज़रूरी है ताकि आप सत्ता में बने रहें।

गोलवलकर की नसीहत 

एक किस्सा याद आ रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर के साथ एक बैठक में जनसंघ के एक वरिष्ठ नेता उस वक्त की मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार की बुराई कर रहे थे और उसे भ्रष्ट और अंहकारी सरकार बता रहे थे, तब गुरुजी गोलवलकर ने उन नेताजी से कहा कि इस बहाने से खुद को ईमानदार मत समझिए। यह सत्ता का चरित्र है, जब आप सत्ता में आएं तो इनसे बचने की कोशिश करें, यह ध्यान रखने की ज़रूरत है।

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बीजेपी में परिवारवाद

एक और अहम बात प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में की। मोदी ने बीजेपी  के इतिहास को रेखांकित करते हुए कहा कि पार्टी ने आज देश में जो स्थान पाया है, उसका बहुत बड़ा कारण है कि पार्टी शुरुआती समय से अभी तक सामान्य व्यक्ति से हमेशा जुड़ी रही है। बीजेपी ऐसी पार्टी है जो कभी भी किसी परिवार के इर्द-गिर्द केंद्रित होकर नहीं रही है। बीजेपी के लिए सेवा ही परम धर्म है। यह सच है कि प्रधानमंत्री मोदी के परिवार का कोई भी व्यक्ति बीजेपी संगठन या सरकार में नहीं है, लेकिन सच यह भी है कि अब पार्टी में अपने ही परिवार के लोगों को आगे बढ़ाने की कोशिश लगातार हो रही है। यहां नाम गिनाने की ज़रूरत नहीं है कि किस नेता के परिवार का कौन सदस्य पार्टी में आगे बढ़ रहा है। 

आज भले ही संगठन परिवारवाद में पूरी तरह से शामिल ना हो, लेकिन वो वक्त भी दूर नहीं होगा जब पार्टी के बड़े नेता उसे पारिवारिक जायदाद बनाने में लग जाएंगे। 

पहले स्तर पर पार्टी के वरिष्ठ नेता अपने बच्चों और परिवार के सदस्यों को विधानसभा और लोकसभा चुनावों के टिकट दिलाने में तो कामयाब होने ही लगे हैं, उनकी यही कामयाबी किसी दिन पार्टी के नाकाम होने का कारण भी बन सकती है।

राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 18 बिंदुओं का राजनीतिक प्रस्ताव पारित किया गया, जो महज औपचारिकता भर जैसा है। पार्टी की बैठक में ज़ाहिर है कि आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों पर भी चर्चा हुई है, लेकिन क्या यह चर्चा सिर्फ़ मुख्यमंत्रियों के कामकाज की प्रशंसा और उनको ताज पहनाने तक सीमित रही है? या फिर सिर्फ़ यह दोहराया गया कि प्रधानमंत्री मोदी ही सबसे लोकप्रिय नेता हैं और अब इसके सिवाय चुनाव जीतने के लिए कुछ और आवश्यक नहीं है, अगर ऐसा है तो फिर उसका कोई फायदा नहीं होने वाला। 

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मुद्दों पर हुई बात?

क्या बैठक में खुले तौर पर इस बात की चर्चा हुई कि महंगाई के मुद्दे, खासतौर से तेल के दामों मे बढ़ोतरी पर आम आदमी के गुस्से को कैसे रोका जाएगा? क्या करीब एक साल से आंदोलन कर रहे किसानों की चिंता और उसके चुनावों पर असर पर चर्चा की गई? क्या कोविड के दौरान हुई बदइंतज़ामी, अस्पतालों की बेहाली, ऑक्सीजन की कमी, मौतों की संख्या, नदियों में बहती लाशों की तसवीरों पर किसी ने कोई सवाल उठाया? 

क्या यह चिंता की गई कि एक मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ ही चुनाव में उतरने के पार्टी के फ़ैसले को बार-बार चुनौती देते उप-मुख्यमंत्री की नाराज़गी कहीं किसी बड़े वोट बैंक पर तो असर नहीं डालेगी?

या फिर यूपी में अखिलेश यादव की सभाओं में बढ़ती भीड़ और समाजवादी पार्टी में शामिल नेताओं की तादाद या फिर कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी वाड्रा की बढ़ती राजनीतिक गतिविधियां और बीएसपी नेता मायावती के अमूमन ना टूटने वाले वोट बैंक में कैसे हिस्सेदारी बनाई जाए, इस पर रणनीति बनाने की बात हुई? 

क्या बैठक में इस बात पर किसी ने चिंता जाहिर की कि उत्तराखंड में एक साल में मुख्यमंत्री के बदलते तीन चेहरे चुनाव अभियान में कोई खास असर डाल पाएंगे? क्या पंजाब में अमरिंदर के साथ जाना चाहिए या फिर अंहकार छोड़ कर पुराने साथी अकाली दल के साथ बात बढ़ानी  चाहिए? क्या आम आदमी पार्टी उत्तराखंड, पंजाब और गोवा में कुछ समीकरणों को बना या बिगाड़ सकती है? मणिपुर में क्या राजनीतिक समीकरणों को बदलने में देर नहीं लगती। गोवा में मनोहर पार्रिकर की कमी को कैसे पूरा किया जाएगा। 

विधानसभा के उप-चुनावों में सात के बजाय आठ विधानसभा सीटें जीतने पर खुश होना खुद को भ्रम में या छलावे में रखने के सिवाय कुछ नहीं है।

हिमाचल में बीजेपी की सरकार है, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का यह गृह राज्य है। केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर वहां से आते हैं और वहां चारों सीटों पर हार, क्या कोई या किसी के लिए संकेत नहीं है, क्या चिंता का विषय नहीं है?

जरूरी नहीं कि पार्टी यह चिंता सार्वजनिक करे, लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी अगर इस पर चर्चा नहीं हुई होगी तो यह जरूर चिंता का विषय होना चाहिए, पार्टी के लिए। खासतौर से तब जब यह माना जाता है कि उप-चुनावों के नतीजे आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में जाते हैं, यही तर्क बीजेपी पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में गए चुनाव नतीजों के लिए दे रही है। 

हिमाचल के नतीजे इसलिए भी पार्टी की चिंता के सबब हो सकते हैं क्योंकि वहां अगले साल नवंबर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने कार्यकर्ताओं को सीख देते हुए कहा कि ज्ञान सिर्फ किताबों से नहीं मिलता, लोगों के बीच काम करने से तजुर्बा आता है। यह भी अहम बात है कि लोकतंत्र में जनता से जुड़ाव ही सबसे अहम है। मुझे याद आता है कि लालकृष्ण आडवाणी, सुंदर सिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे और भैरोसिंह शेखावत जैसे नेता हज़ारों कार्यकर्ता और नेताओं को ना केवल नाम से जानते या बुलाते थे बल्कि वे उनके परिवार, उनकी  राजनीतिक ताकत और दूसरी चीज़ों के बारे में भी निजी तौर पर जानकारी रखते थे। अब तो शायद यह मुमकिन ही नहीं लगता। इसकी एक बड़ी वजह पार्टी का तेजी से विस्तार होना तो है ही, पार्टी के ही नेताओं की बात मानें तो कम जनाधार वाले नेताओं को ज़्यादा ताकत देना भी है।

आखिरी बात, पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक विचार मंथन के लिए होती है, सिर्फ़ पूजा-अर्चना के भाव के लिए नहीं। और जब मंथन होता है तो उसमें अमृत भी निकलता है और विष भी। अमृत के घड़े को छीनने के लिए बहुत से देवता होते हैं, लेकिन विष को कंठ में उतारने के लिए महादेव की ज़रूरत होती है, क्या कोई नेता नीलकंठ बनने को तैयार है?

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