संविधान निर्माताओं ने इस संभावना की कल्पना नहीं की होगी कि शासन के तरीक़े के ख़िलाफ़ शिकायत करने के लिए स्वतंत्र भारत के नागरिक इतनी बड़ी संख्या में अदालतों का रुख करेंगे। लंबित मुक़दमे वास्तव में अपने प्रतिनिधियों और लोक सेवकों के कामकाज के प्रति नागरिकों के असंतोष को अभिव्यक्त करते हैं।
भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की पहचान ‘संविधान के संरक्षक’ के रूप में है। दुनिया में बहुत कम न्यायालयों के पास ऐसी शक्तियाँ हैं। हमारे न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हुए विधायिका द्वारा पारित किसी भी क़ानून को असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं, उनके पास सभी सरकारी नीतियों और कार्यों की न्यायिक समीक्षा की शक्ति है। नागरिक इन न्यायालयों को उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अपने रक्षक के रूप में देखते हैं। डॉ. आंबेडकर के अनुसार अनुच्छेद-32, जो सर्वोच्च न्यायालय को शक्ति प्रदान करता है, वह संविधान की आत्मा और हृदय है।
न्यायालय का मूल कार्य दो या इससे ज़्यादा पक्षों के बीच क़ानूनी विवादों का निपटाना करना और क़ानून के अनुसार न्याय प्रदान करना है। इसकी भूमिका उन विवादित मामलों के निराकरण की है जो इसके सामने लाए जाते हैं, वे व्यक्तियों के बीच या राज्य के ख़िलाफ़ हो सकते हैं। न्याय करने के लिए, स्वतंत्रता की गारंटी देने के लिए, सामाजिक व्यवस्था को सुधारने, विवादों को सुलझाने के लिए न्यायालय मौजूद हैं।
क़ानून की अदालत में, विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या आजकल चर्चा का विषय है। वास्तव में, यह चिंता का कारण है। आम आदमी का इंसाफ़ के लिए इंतज़ार कठिन होता जा रहा है, लंबित मामलों का बढ़ना ख़तरनाक है। चिंता व्यक्त करने के साथ ही हमें समस्या का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। यदि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों को श्रेणियों में विभाजित किया जाए तो उनमें से अधिकांश या तो रिट याचिकाएँ या एसएलपी हैं।
रिट याचिकाएँ हमेशा नागरिकों द्वारा सरकार या उसके अंगों द्वारा उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत करने के लिए दायर की जाती हैं। रिट याचिका दायर करने की बढ़ती प्रवृत्ति सरकार के कामकाज के प्रति आम आदमी के असंतोष का संकेत है, इसलिए लंबित मामलों की ओर इशारा करने के बजाय, सरकार को स्वयं अपने प्रदर्शन का मूल्यांकन करने और आम आदमी की शिकायतों के निवारण के लिए तंत्र तैयार करने की ज़रूरत है।
अनुभव से पता चलता है कि अधिकांश मामले सरकार के कुछ विभागों से संबंधित होते हैं और पहले के फ़ैसलों के आधार पर उनका निपटारा किया जा सकता है। लेकिन संवैधानिक प्रावधान की अनदेखी करते हुए पदस्थ अधिकारी चाहते हैं कि प्रत्येक मामले का फ़ैसला अदालत से हो।
जबकि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों द्वारा किसी मामले में दिए गए फ़ैसले को क़ानून की तरह माना जा सकता है और वहाँ के प्रशासन द्वारा इसी तरह के अन्य मामलों में लागू किया जा सकता है।
एक और चिंता का विषय है आपराधिक मामलों का निपटारा होने में लगने वाला लंबा समय। देरी के परिणामस्वरूप निर्दोष को कैद में रखने और दोषियों को छूट देने का अन्याय हो जाता है। एक अन्य पहलू जिस पर चर्चा नहीं की जाती है, वह है निर्दोष साबित होने की उच्च दर, जिसका अर्थ है कि ज़्यादातर मामलों में पुलिस या जाँच एजेंसी अपराध साबित करने में सक्षम नहीं है। यदि सरकार द्वारा साबित न किए जा सकने वाले मामलों को अदालतों में न भेजने के लिए एक उचित तंत्र बनाया जाए तो इससे लंबित मामलों की संख्या कम करने व कम अवधि में मुक़दमे का फैसलाकर अपराधियों को सजा देने में मदद मिलेगी।
संवैधानिक न्यायालयों के समक्ष लंबित अन्य प्रकार के मामले प्रासंगिक क़ानूनों व नीतियों की कमी या उनका कार्यान्वयन नहीं होने के बारे में हैं। संविधान अपेक्षा करता है कि विधायिका क़ानून बनाएगी और कार्यपालिका उन्हें लागू करेगी। कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए क़ानून की अनुपस्थिति को ध्यान में रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1997 में विशाखा मामले में दिशा-निर्देश जारी किए। लेकिन उस विषय पर क़ानून बनाने में विधायिका को 16 साल लग गए।
2005 में महाराष्ट्र ने स्थानांतरण को विनियमित करने और सरकारी कर्मचारियों द्वारा आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में देरी की रोकथाम के लिए एक क़ानून बनाया। इस क़ानून में कहा गया है कि कोई भी फाइल सात कार्य दिवसों से अधिक लंबित नहीं रहेगी। लेकिन हम नागरिकों को कुशल सेवा प्रदान करने के लिए कभी भी इस क़ानून का कार्यान्वयन होते नहीं देखते हैं। केवल सरकारी कर्मचारियों द्वारा किसी पद या स्थानांतरण के अधिकार का प्रयोग करने के लिए इसका उपयोग किया जाता है। वे कर्तव्यों की अनदेखी करके अधिकारों का आनंद लेने में ही खुश रहते हैं।
मामलों के लंबित रहने की समस्या का समाधान न्यायालयों की संख्या में वृद्धि करना, न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरना, बेहतर आधारभूत संरचना प्रदान करना और आधुनिक तकनीक का उपयोग करना है। इससे अधिक मामलों के निपटारे में मदद मिल सकती है लेकिन हमें उन तरीक़ों की तलाश करने की ज़रूरत है जिससे नागरिकों को शिकायतों के साथ न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की ज़रूरत न पड़े। यदि हम चाहते हैं कि मामलों का शीघ्र निपटारा हो और न्यायालयों में लंबित मामलों को कम किया जाए तो हमारी विधायिकाओं को सक्रिय बनाना होगा और यह भी देखना होगा कि क्या लोक सेवक क़ानूनों और नीतियों को उनके शब्दों और भावना के अनुसार लागू करते हैं, विशेष रूप से नागरिकों की भलाई के लिए, न कि उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए। यह तभी संभव है, जब देश के प्रत्येक नागरिक में संवैधानिक नैतिकता समाहित हो।