भारतीय उपमहाद्वीप में प्रोफेसर इश्तियाक़ अहमद का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं। हिंदू -मुसलिम रिश्तों और इस महादेश के विभाजन के गंभीर अध्येता और छात्र, सभी उन्हें जानते हैं। इतिहास और राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में उनकी अपनी पहचान है।
हाल ही में उनकी दो पुस्तकें आईं जो काफी चर्चित भी रहीं। पहली पुस्तक - 'पंजाब-ब्लडीड, पार्टीशन्ड ऐंड क्लीनज्ड' कुछ सालों पूर्व आई थी और फिर चंद महीने पहले 'जिन्ना' प्रकाशित हुई।
दोनों किताबें हर गंभीर अध्येता के लिये ज़रूरी दस्तावेज़ हैं हिंदू- मुसलिम रिश्तों को समझने के लिये, देश के विभाजन को समझने के लिये। इस उपमहाद्वीप की सांप्रदायिक सियासत को समझने में भी दोनों पुस्तकें काफी मदद करती हैं। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए ये ज़रूरी किताबें हैं। इन किताबों के ज़रिए एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है कि हिंदू मुसलमान साथ क्यों नहीं रह सके?
इश्तियाक़ पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश नागरिक हैं जो स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र और इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। हालांकि वे अब रिटायर हो गए हैं, लेकिन अब भी उनका यूनिवर्सिटी से संबंध बना हुआ है। इसके अलावा पाकिस्तानी पंजाब के कई विश्वविद्यालयों में वे विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जाते रहे हैं।
पूर्व पुलिस अधिकारी और हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार विभूति नारायण राय के साथ विभाजन, हिंदू-मुसलिम रिश्तों, कांग्रेस और मुसलिम लीग की सियासत के अलावा सामाजिक-सियासी मुद्दों पर इश्तियाक़ अहमद के बीच गुफ्तगू हुई। सत्य हिंदी डॉटकाम के लिए हुई इस दिलचस्प संवाद से इतिहास के नए दरीचे खुलते हैं और पुरानी धारणायें ध्वस्त होती हैं। पढ़ें, पूरी गुफ़्तगू की तीसरी व अंतिम किश्त -
विभूति नारायण राय : यह सही है कि ईसाइयों ने भी किया होगा और इसमें कोई शक भी नहीं है और पूरा का पूरा समुदाय बर्बाद कर दिया। लेकिन ईसाइयत में एक स्कोप था कि लिबरल यूनिवर्सिटीज बनीं, जिन्हें चर्च फंड करता था। लेकिन वे चर्च के खिलाफ भी बातें कर सकते थे, डार्विन भी पढ़ा सकते थे। चर्च उन पर हमला करने से गुरेज़ करता था और लोग उन्हे आइवरी टॉवर कहते थे । इसलाम शायद यह कर नहीं पाया। ख़ैर, यह अलग बहस का मुद्दा है, इस पर फिर कभी।
इश्तियाक़ अहमद : मैं इस पर एक बात कहना चाहता हूँ कि सही मायनों में यह कहना सही नही है। बात यह है कि इसलाम में ख़ुलफ़ा-ए-राशदीन, जो चार ख़लीफ़ा हैं और बनू उमैया का दौर हम 19 साल का निकाल दें तो उसके बाद बग़दाद में अब्बासियों की जो ख़िलाफ़त बनी तो सारी दुनिया से स्कॉलर बुलाए गए। सिफ़र (जीरो) हिंदुओं से लिया गया। वहाँ से अलज़ेब्रा निकला। बाकी दुनिया से ईसाई और यहूदी भी वहाँ आए।
इसी तरह स्पेन में पहले दो-तीन सौ साल स्पैनिशों की चमकदार सभ्यता पनपी। फिर काहिरा में ख़िलाफ़त आई और मुंतजलेट आए, जिन्होंने इसलामी लेखकों-साहित्यकारों के साथ पूरी बहस की और यह भी एक विचार आया कि इसलाम एक बेकार मजहब है, खुदा की कोई ज़रूरत नहीं है। ये बहसें खुले मंच पर हुआ करतीं थीं।
मुसलमानों में बौद्धिक बहस
मेरा तर्क यह है कि पश्चिम के अंदर क्या हुआ है, तीन-चार चीजें साथ-साथ हो गईं। मुसलमानों के अंदर यह बहस वैज्ञानिक व औद्योगिक क्रांति से पहले हुईं और 1258 में जब मंगोलों ने बग़दाद को बर्बाद कर दिया, उसके बाद खुली बहसों का दौर खत्म हो गया।
ईसाइयों के अंदर यह देर से शुरू हुई, लेकिन यह ईसाइयत से नहीं आई, बल्कि जंग हुई उसे कहते हैं 'द थर्टी इयर्स वार आफ रिलिजंस'। इसमें प्रोस्टेंट्स और कैथोलिक ने जितना एक-दूसरे का क़त्लेआम किया, हमारा तो रेकार्ड उससे बहुत बेहतर है, मुसलमानों का, हिंदुओं का और बाकी लोगों का। पूरी आबादी का एक तिहाई हिस्सा भाग कर उत्तर व दक्षिण अमेरिका चला गया ताकि वे सुरक्षित रह सकें। इतना क़त्लेआम हुआ।
उसके बाद संधि (ट्रीटी ऑफ वेस्टफ़ालिया) हुई, साथ-साथ औद्योगिक क्रांति आ गई। उससे पहले वैज्ञानिक क्रांति आई और उसने सात दिनों में दुनिया बनी है का जो सिद्धांत (बिब्लिकल थ्योरी) था उसे ध्वस्त कर दिया। वहाँ से फलसफ़ा थियोलॉजी से अलग हो गया।
उससे पहले कैथोलिक फलसफी थे सेंट ऑगस्टीन और सेंट टॉमस एक्वीनस। वे थियोलॉजी के अंदर फलसफ़े पर बहस करते थे। लेकिन इसके बाद फलसफ़ा आज़ा और अलग हो गया, जहाँ से मजहब पर सवाल उठाना भी शुरू कर दिया। अपने डॉग्मा पर भी सवाल खड़ा करना शुरू कर दिया। इन सारे बदलाव में दो-तीन सौ साल लगे। यह ईसाइयत के अंदर तो ज़रूर आया, लेकिन वह क्रियश्चनिटी की वजह से नहीं आया। चर्चों ने तो उन्हें बहुत सताया, लेकिन उनके बस में बात नहीं थी। हम वहाँ नहीं पहुँच सके।
वेस्टफ़ालिया की संधि पर हस्ताक्षर 1648 में हुआ।
विभूति नारायण राय : मैं एक बात की तरफ आपका ध्यान खींचूँगा। पिछले क़रीब दो साल से कोरोना का मामला चल रहा है। दुनिया में दो सौ यूनिवर्सिटीज़ हैं, वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ हैं, संस्थाएँ हैं, फार्मा कंपनियाँ हैं जो इस पर रिसर्च कर रहीं हैं। वैक्सीन बना भी ली है। वैक्सीन कितनी कारगर है यह अगले एक-दो साल में पता चल पाएगा। जो भी लड़ाई है, उसमें दो सौ के करीब इदारे शरीक हैं।
मुझे देख कर बहुत तकलीफ होती है कि इसमें एक भी इदारा किसी इसलामिक मुल्क में नहीं है। क्या इस पर आंतरिक बहस नहीं होनी चाहिए? ज़ाहिर है कि मेरे जैसा बाहरी आदमी कुछ कहेगा तो फौरन डिफेंस का एक मैकेनिज्म खड़ा हो जायेगा, लेकिन इसलाम के अंदर क्या इस पर बहस नहीं होनी चाहिए कि दो सौ में एक भी आपके यहाँ नहीं है?
इश्तियाक़ अहमद : आपकी बात सही है। लेकिन हुआ यह है कि उपनिवेशवाद आया, कोलोनियलिज्म के बाद आज़ादी के आंदोलन शुरू हुए। लोगों ने अफ्रीका, एशिया और उन्नीसवीं सदी में लैटिन अमेरिका को आज़ाद कराया। उस आजादी की लड़ाई में यह सोच थी कि व्यक्ति को आज़ादी का अधिकार मिलेगा। असल में पश्चिम में जब चर्च का दबदबा टूटा तो उसमें से कई फलसफ़े आए, मैकेवली का आया, उसमें से सोशल कांट्रैक्ट थ्योरी आई, व्यक्तिगत आज़ादी का जिक्र आया, हमारे यहाँ इसका जिक्र नहीं आया। न मुसलमानों में न हिंदुओं में और न बाकी किसी और में। फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि जब अंग्रेजों की हुक़ूमत यहाँ पर कमज़ोर हुई तो हिंदू रिफॉर्म मूवमेंट में एक फॉरवर्ड लुकिंग नज़रिया आया।
मुसलमानों में बैकवर्ड लुकिंग नज़रिया पनपा कि हम अपने अंदर ही अपने हल ढूँढें। हिंदुओं ने यह नहीं किया। उन्होंने मॉडर्न एजुकेशन को स्वीकारा, मॉडर्न इकोनॉमी को स्वीकारा और वे स्कूलों व कॉलेजों में मुसलमानों से पहले आ गए।
बैकवर्ड लुकिंग सोच
दूसरे विश्व युद्ध में तो जापान को भी बर्बाद किया गया, लेकिन वे पुरानी संस्कृति की तरफ नहीं लौटे। उन्होंने कार-कंप्यूटर बना कर सारी दुनिया को जीत लिया। जर्मनी ने भी अपने रेसिस्ट फ़लसफ़े को ख़त्म कर दिया और लोकतंत्र की तरफ आ गए। दक्षिण कोरिया वालों ने भी बदलाव किया और तो और चीन ने भी बाजार की इकॉनामी को स्वीकार किया। चीन अब एक लोकतांत्रिक देश तो नहीं है लेकिन कामयाब कैप्टलिस्ट इकॉनामी तो बन ही चुका है। हमारे यहां हिंदुस्तान या उपमहाद्वीप में मजहब का वर्चस्व बहुत ज्यादा है। चीनियों के अंदर खुदा या मजहब की कोई कल्पना नहीं है, लिहाजा कम्युनिज्म से मार्केट इकॉनामी उनके लिए आसान रहा।
हमारे यहाँ तो बेतरह हिंदुओं के भगवान हैं। यूपी में चले जाएं तो कोई कार भी खरीदते हैं तो फिर हवन वगैरह करते हैं। अभी मैंने देखा था कि राजनाथ सिंह ने फ्रांस में रफ़ाल के सामने नारियल रखा था। तो आप सबके लिए पश्चिम को दोष नहीं दे सकते। हमारे यहाँ अंधविश्वास, भगवानों या एक अल्लाह की सोच ने हमारे जेहनों पर ताला लगा कर रखा हुआ है। हमारे मंत्री अगर ये करते हैं कि वहाँ नारियल रखते हैं।
ले तो आप फ्रांस से सुपरसॉनिक जेट ले रहे हैं और इस तरह का पाखंड कर रहे हैं। तो मुझे यह सब बहुत हास्यास्पद लगता है। वहाँ पर जो फ्रेंच थे वे भी इन सबको देख कर हैरत में थे। यह हमारी हक़ीक़़त है। फिर भी हिंदुस्तान में राजाराम मोहन राय और दूसरे लोग हिंदुत्व को क्लासिक्ल हिंदुइज्म से निकाल कर रिफॉर्म की तरफ ले आए।
हमारी रिफॉर्म जो हुई है वह है बैक टू द बुक, सब चीज कुरान में है या हदीस में है। हमें वहाँ से निकलना होगा। अतातुर्क ने तो कोशिश कर के तुर्कों को निकाला भी, फिर मध्य एशिया में जो मुसलमान सोवियत यूनियन के तहत रहे हैं वहाँ बदलाव आया। लड़कियों ने पश्चिमी पहनावे को अपनाया।
सऊदी प्रभाव
बदलाव आया भी है, लेकिन किस्मत की यह त्रासदी भी है कि पैसा जो तेलों से आता है वह या तो सऊदी अरब के पास है या ईरान के पास है। दोनों कट्टरपंथी हैं। यही अगर तुर्की के पास आ जाता और टर्किश मॉडल कामयाब हो जाता तो दुनिया और तरीके से बदल जाती।
हमारा रोल मॉडल कोई नहीं बन सका। हमारा रोल मॉडल अगर सऊदी अरब है तो अब जाकर वह बदलता है तो फिर शायद दुनिया में बदलाव आए। लेकिन इन सबके बीच पश्चिम ने इसलाम को इस्तेमाल किया, मुसलमानों के अंदर भी यह था। ईसाइयों के अंदर जो तब्दीली आई, वह वैज्ञानिक क्रांति की वजह से आई, जिसमें बाईबल की अथॉरिटी जीरो हो गई। निजी अकीदा तो रह गया, सन ऑफ गॉड, जीसस, लेकिन यह सब निजी मामले तक सिमट गया। चर्च तो यहाँ के खाली बैठे हुए हैं। मैं यहाँ 47 साल से हूँ, मैंने किसी स्वीड को किसी चर्च में नहीं जाते देखा। तो यह दुनिया इस तरह बदली है।
विभूति नारायण राय : दरअसल मैं यही कहना चाह रहा था कि दुनिया जिस तरह से बदल रही है, उस तरह से मुसलिम उम्मा नहीं बदल रहा है। बहुत अच्छी बातें हुईं इश्तियाक़ साहेब। चलते-चलते एक आखिरी बात कि हम जैसे बहुत सारे लोग हैं भारत में भी, पाकिस्तान में भी। मुझे इत्तफाक से पाँच बार पाकिस्तान जाने का मौका मिला और वहाँ जो मेरा परिचय व संवाद लोगों से हुआ, हिंदुस्तान में बहुत सारे रोशनख्याल हिंदू-मुसलमानों से बातचीत होती है, सब चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहतर हों।
भारत-पाकिस्तान
लेकिन जाहिर है कि 1947 से पहले वाली स्थिति नहीं हो सकती। हमारे यहाँ डॉक्टर लोहिया जिन्हें आप सियासी फिलासफ़र कह सकते हैं, उनका कहना था कि या तो दोनों मुल्क एक हो जाएँगे (यह बांग्लादेश से पहले की बात है), उनका एक का मतलब अखंड भारत नहीं था, एक कंफेडरेशन की बात थी, या फिर लड़ कर ये अपने को ख़त्म कर देंगे।
क्या आपको कहीं यह लगता है कि ऐसी दुनिया बनेगी जिसमें हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच, जिसमें वीज़ा खत्म हो जाएगा, सांस्कृतिक संवाद बनेगा, खुली तिजारत होने लगेगी। कश्मीर एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन वह थोड़ा पीछे रहे और बहुत सारी चीजें होती रहे। वैसे मैं एक बार फिर साफ कर दूँ कि मैं अखंड भारत की बात नहीं कह रहा हूँ। तो क्या आपको लगता है कि अगले कुछ सालों में हम ऐसी कोई दुनिया देख पाएंगे।
इश्तियाक़ अहदम : जो चीजें हैं मेरे दिल में, उसमें सबसे ऊपर यही है कि यह सारा इलाका अमन और भाईचारे का बन जाए और सार्क का जो चार्टर सबने मंजूर किया है उसका मतलब भी यही है। लेकिन हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच जो टकराव है और उसमें अहम का टकराव है, विचारधाराओं का टकराव आ जाता है, विभाजन का जो तजुर्बा है वह आ जाता है, जंगें आ जाती हैं जो दोनों देशों के बीच में बड़ी रुकावट है।
मेरे ख्याल से कश्मीर बीमारी नहीं है, लक्षण है। बीमारी यह है कि ये दोनों मुल्क अलग किए गए हैं। जब विभाजन हुआ तो एक मिलियन से ज्यादा लोग मारे गए, 14-15 मिलियन लोगों को घरों से भागना पड़ा, फौजें बनीं, जंगें हुईं।
भारत-पाक नैरेटिव
जो नैरेटिव बने ख़ासतौर से पाकिस्तान में कि हिंदुस्तान हमें खत्म करना चाहता है और अब भारत में भी इस तरह की बात होती है तो अगर आप तुलना करना चाहते हैं तो वेस्टर्न यूरोप को देखें, उन्होंने सबसें ज्यादा जंगें लड़ी, सबसे ज्यादा हत्याएँ कीं, अपने आप के साथ।
बीसवीं सदी की दो बड़ी जंगें, पहला विश्व युद्ध तो वेस्ट के अंदर ही लड़ी गई और उसमें पंद्रह मिलियन लोग मारे गए। दूसरे विश्व युद्ध में 75 मिलियन लोग मारे गए। लेकिन आखिर में जो फ़ैसला हुआ, वह यूरोपीय यूनियन के तौर पर सामने है। मेरे ख्याल से भारत और पाकिस्तान, जैसा कि लोहिया ने कहा है कि ये न्यूक्लियर पावर हैं, जंग शुरू करें और अपने हथियार इस्तेमाल करें तो वही होगा, कब्रिस्तान दोनों तरफ बन जाएँगे।
लेकिन अक्ल इनको आ जाए, समझ आ जाए तो यह इलाका बिल्कुल यूरोपीय यूनियन की तरह, कन्फेडरेशन भी न कहें तो भारत रहे, पाकिस्तान रहे, बांग्लादेश रहे और इसी तरह आना-जाना आसान हो जाए, सफर आसान हो जाए।
तालीम में एक-दूसरे का सहयोग करें, जल बँटवारा, पर्यावरण के खतरों, जनसंख्या जैसे मुद्दे हैं जो बिना सहयोग के हल ही नहीं किए जा सकते हैं। ये कब वहाँ पर पहुंचेंगे।
टोटल वॉर
एक और थ्योरी है। इन्होंने जंग तो देखी नहीं। जो तीन-चार जंगें हुई हैं, उनमें 1500 भारतीय, 1500 पाकिस्तानी मारे गए हैं। हाँ, अब यह कि फिल्म बन चुकी हैं, कहानियाँ बन चुकीं हैं तो वे जंगें लगती हैं, लेकिन टोटल वॉर नहीं है। टोटल वॉर यानी जिससे शहर प्रभावित हों और लाखों लोग घरों से बेघर हों, वह तो हुआ ही नहीं। पंद्रह दिन के बाद, सोलह दिन के बाद जंग खत्म हो गई।
एक और तरीका है। दोनों देशों के बीच कायदे से जंग हो तब इन्हें अक्ल आए, जैसा वेस्ट में हुआ। लेकिन मैं पुरउम्मीद हूँ कि ऐसा नहीं होगा, हालांकि यह एक रास्ता है जिससे सोच को विकसित किया जा सकता है। अगर ये अभी बैठ कर अपने मसलों को हल कर लें कि कश्मीर का समाधान यह है कि वहाँ लाइन आफ़ कंट्रोल भारत-पाकिस्तान का स्थायी सीमा हो जाए और यह भी कि आप हमारे कश्मीर पर नज़र न रखें हम आपके कश्मीर पर नहीं रखेंगे। अलबत्ता बाकी कश्मीरी एक-दूसरे से मिलें, दोस्तियां करें, रिश्ते करें, प्यार करें, मोहब्बत करें, व्यापार करें, जो चाहें करें तो तब एक और दुनिया बन सकती है।
कौन सा फैसला आख़िरकार होगा, यह हम नहीं जानते हैं, लेकिन अगर यह हो तो अच्छा है। वर्ना इस इलाक़े में जनसंख्या का इतना दबाव है कि अगर टोटल वॉर हुआ, न्यूक्लियर वेपन का इस्तेमाल हुआ तो मिलियन में लोग मारे जाएँगे, जो पुरानी जंगों को पीछे छोड़ देगा।
बिल क्लिंटन ने 1992 में अंदाजा लगाया था कि अगर दोनों तरफ से न्यूक्लियर हथियार इस्तेमाल हों, हालांकि तब नहीं थे इतने हथियार इनके पास, तो एक बिलियन लोगों में से पाँच सौ मिलियन भारतीय और 170 मिलियन में से एक सौ बीस मिलियन पाकिस्तानी मारे जाएँगे।
ऐसे में अगर आज टोटल वॉर होता है तो अंदाजा लगा लें कि कितने लोग मारे जाएँगे। मेरे ख्याल से न्यूक्लियर वॉर इज म्युचुअल सुसाइड। अगर लोग खुदकुश करना चाहते हैं तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता है। लेकिन अक्ल की बात तो यही है कि जो सीमा बन चुकी हैं उन्हें मान लो और उन्हें अर्थहीन कर दो। मेरा ऐसा मानना है।
विभूति नारायण रायः आपके देखने और सोचने का तरीका बहुत ही पॉज़िटिव है। ऐसा कहा जाता है कि भारत में संघ परिवार और पाकिस्तान में फ़ौज शासन करें तो दोस्ती के ज्यादा इमकानात हो जाते हैं। भारत में संघ परिवार है और पाकिस्तान में कहने के लिए तो लोकतंत्र है, लेकिन फैसले तो जनरल साहब ही करते हैं, आप जानते ही हैं। हमें उम्मीद करनी चाहिए, इस समय कुछ पहल की भी गई हैं। हालांकि यह पहल पर्दे के पीछे है, अवाम को भरोसे में नहीं लिया गया है। न इधर के न उधर के, लेकिन चलिए उम्मीद करें के कुछ बेहतर नतीजे सामने आएंगा।