राहुल के बाद क्या होगी विपक्ष की दिशा ?
लोकसभा से राहुल गांधी की सदस्यता आनन फ़ानन ख़त्म करके बीजेपी ने साफ़ कर दिया है कि वो विरोधियों से आर पार की लड़ाई के लिए तैयार है। सवाल ये है कि अब कांग्रेस और ग़ैर बीजेपी पार्टियाँ क्या करेंगी। कांग्रेस अब भी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद भी राहुल गांधी कांग्रेस का चेहरा बने हुए हैं। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पद यात्रा के बाद राहुल से कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ गयी थीं। कई अन्य ग़ैर बीजेपी पार्टियाँ भी राहुल की तरफ़ उम्मीद से देख रही थीं। राहुल के पास अभी गुजरात उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय का विकल्प है, लेकिन इस समय आक्रामक रूख लेकर चल रही बीजेपी का अगला क़दम क्या होगा, कहना मुश्किल है। आगे की लड़ाई इस बात पर भी निर्भर है कि ग़ैर बीजेपी पार्टियाँ कितनी एकजुटता दिखा पातीं हैं।
ग़ैर बीजेपी पार्टियों में एकता की एक झलक हाल की दो घटनाओं में दिखाई देती है। देश की 14 ग़ैर बीजेपी पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करके केंद्र सरकार की एजेंसियों का दुरुपयोग रोकने की माँग की है। कोर्ट इस मामले की सुनवाई 5 अप्रैल को करेगा। हाल में राहुल गांधी के नेतृत्व में 16 पार्टियों के क़रीब 2 सौ सांसदों ने सरकार के ख़िलाफ़ मार्च निकाला। लेकिन इसका अर्थ ये नहीं निकाला जा सकता है कि सारी पार्टियाँ बीजेपी के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाने के लिए तैयार हैं।
क्या होगा कांग्रेस का अगला कदम
हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से तुरंत राहत नहीं मिलने पर राहुल को जेल भी जाना पड़ सकता है और वो अगला चुनाव भी नहीं लड़ पायेंगे। ऐसे में कांग्रेस को एक चमत्कारी नेता की ज़रूरत होगी। पार्टी के अध्यक्ष खड़गे या किसी अन्य नेता की देश व्यापी पहचान नहीं है। 2024 के लोक सभा या उसके पहले होने वाले विधान सभा चुनावों में पार्टी का नेतृत्व करना उनके बस में नहीं लगता। घूम फिर कर नेतृत्व की उम्मीद गांधी परिवार पर ही टिक जाती है। सोनिया गांधी स्वाभाविक तौर पर नेता नज़र आती हैं। उनकी ख़राब तबियत को देखते हुए यह भी मुमकिन नहीं लगता है।
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आख़िरी उम्मीद प्रियंका गांधी दिखाई देती हैं। सोनिया और प्रियंका का परिवार कई अन्य मुक़दमों में फँसा हुआ है। उनके भी जेल जाने की नौबत आ जाय तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। चमत्कारी नेतृत्व विहीन कांग्रेस के पास एक ही विकल्प बचता है कि वो ग़ैर कांग्रेस पार्टियों का हिस्सा बन कर बीजेपी से संघर्ष को तेज़ करे।
बीजेपी से त्रस्त विपक्ष
राज्यों में सत्तारूढ़ ज़्यादातर विपक्षी पार्टियाँ सीबीआई और इडी जैसी केंद्र सरकार की एजेंसियों के कारण मुश्किल में हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के दो पूर्व मंत्री जेल में हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भी केंद्रीय एजेंसियों के रडार पर हैं और उनकी बेटी से तथा कथित दिल्ली शराब घोटाला में पूछताछ चल रही है। दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इसी मामले में जेल जा चुके है। बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी के कई सहयोगी भ्रष्टाचार के मामले में जेल में हैं और कई नेताओं के ख़िलाफ़ जाँच चल रही है। चंद्रशेखर राव और ममता अब तक कांग्रेस के साथ आने के लिए तैयार नहीं हैं।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के रूख में थोड़ा बदलाव दिखाई दे रहा है। राहुल गांधी की सज़ा को उन्होंने भी ग़लत बताया। आँध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री जगन मोहन रेड्डी भी कांग्रेस से दूरी बना कर चलते हैं। अरविंद को छोड़ कर ये सभी मुख्यमंत्री पहले कांग्रेस में ही थे, लेकिन क्षेत्रीय गणित के हिसाब से अब कांग्रेस को सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती के सामने भी केंद्रीय एजेंसियों का ख़तरा बना हुआ है। फिर भी वो कांग्रेस के साथ जाने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रही हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी कांग्रेस रास नहीं आ रही हैं।
कौन है कांग्रेस के साथ
कांग्रेस के पास कुल मिलाकर कुछ पुराने सहयोगी ही बचे हैं। तमिलनाडु में डीएमके, महाराष्ट्र में शरद पवार की एनसीपी और शिव सेना के ठाकरे गुट के साथ बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जेडीयू तथा लालू यादव का आरजेडी कांग्रेस के साथ हैं। हाल में त्रिपुरा के विधान सभा चुनावों में सीपीएम और कांग्रेस के बीच एक नया गठबंधन सामने आया। लेकिन केरल में दोनों पार्टियाँ मुख्य विरोधी हैं। सिर्फ़ इन सहयोगियों के बूते पर कांग्रेस के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जैसे शक्तिशाली नेता से मुक़ाबला करना आसान नहीं है। यही चुनौती राज्यों में सत्ता पर क़ाबिज़ क्षेत्रीय दलों के सामने भी है। ग़ैर बीजेपी पार्टियों की स्थिति 1975 के इमर्जेंसी जैसी होती जा रही है, जब अधिकतर ग़ैर कांग्रेसी नेता जेल में डाल दिए गए थे। इमर्जेंसी ख़त्म होते ही विपक्ष की ज़बरदस्त एकता सामने आयी और 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का सफ़ाया हो गया।विपक्ष के सामने अब मिलकर लड़ने या अकेले अकेले ख़त्म हो जाने का विकल्प बचा है। क्षेत्रीय और व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ कर ही वो बीजेपी के लिए चुनौती बन सकते हैं। विपक्षी नेताओं के आपसी मुलाक़ात और साथ मिलकर छोटी छोटी पहल से थोड़ी उम्मीद ज़रूर बनती है लेकिन विपक्ष अभी एकता से काफ़ी दूर है।