लोकतंत्र के लिए विपक्ष का मणिपुर दौरा एक शुभ संकेत!
लगभग तीन महीने से जल रहे मणिपुर की खैर-खबर लेने नवगठित ‘इंडिया’ के सांसदों के दल का मणिपुर के लिए कूच करना एक सुखद ख़बर है। कम से कम लोग अब ये तो नहीं कहेंगे कि मणिपुर इंडिया का अंग है या नहीं। मणिपुर को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। लेकिन तीन महीने गुजर जाने के बाद भी हमारी सरकार वहां हिंसा का नंगा नाच रोकने में कामयाब नहीं हो पायी है। केंद्र सरकार पर देशी और विदेशी दबाब भी बेअसर रहा। दुनिया की कोई भी ताकत भारत के प्रधानमंत्री को मणिपुर जाने के लिए विवश नहीं कर सकी। हमारी सरकार बदस्तूर चुनाव प्रचार में उलझी हुई है।
जलते और निर्वस्त्र मणिपुर को फौरी राहत के लिए केंद्र सरकार की ओर से जो किया जा रहा है, उससे न देश वाकिफ है और न दुनिया, लेकिन तय है कि केंद्र सरकार वहां कुछ न कुछ तो कर रही है। कम से कम उसने मणिपुर की हिंसा के शिकार मैतेयी समुदाय के लोगों को मिजोरम पलायन के लिए विमान तो मुहैया कराया ही है। केंद्र सरकार ने दावा किया था कि 2014 से पहले किसी भी सरकार ने पूर्वोत्तर राज्यों के विकास पर ध्यान नहीं दिया। शायद सच ही होगा क्योंकि जैसे ही मौजूदा सरकार ने पूर्वोत्तर के विकास पर ध्यान दिया वहां मणिपुर में डबल इंजन की सरकार बन गयी और पूरा मणिपुर जल उठा।
जब आप ये खबर पढ़ रहे होंगे तब मुमकिन है कि ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल 16 दलों के 20 सांसद मणिपुर पहुँच चुके होंगे। ये नेता पहले पहाड़ी इलाके का दौरा करेंगे और फिर घाटी की वर्तमान स्थिति का जायजा लेंग। इसके बाद वे राहत शिविर जाएंगे, जहां दोनों समुदाय के लोगों से बातचीत करेंगे। साथ ही उनकी मुलाकात राज्यपाल से होगी। सांसदों का प्रतिनिधिमंडल दो दिन मणिपुर में रहेंगे। अर्द्धनग्न और अधजले मणिपुर में विपक्षी दलों से पहले कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी राहत शिविरों में जाकर पीड़ितों के आंसू पोंछ चुके हैं। वे इससे ज़्यादा वहां कुछ और कर भी नहीं सकते थे। विपक्ष के सांसद भी पीड़ितों के प्रति अपनी संवेदना जताने के अलावा कुछ कर नहीं पाएंगे, क्योंकि जो करना है वो केंद्र और राज्य की सरकार को करना है और दुर्भाग्य से दोनों ही सरकारें जनता का विश्वास खो चुकी हैं।
आपको याद होगा कि मणिपुर 3 मई से जल रहा है और वहां की स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह एक पांव पर खड़े होकर मणिपुर में एहतियाती इंतजाम कर रहे हैं, ये बात और है कि उनके द्वारा किये गए तमाम इंतजामों के बावजूद मणिपुर अब तक सामान्य नहीं हुआ है। जनता प्रताड़ना का शिकार है। सुरक्षा बलों के हथियार और गोला-बारूद लूटा जा रहा है। हारकर शाह साहब भी मणिपुर को उसके हाल पर छोड़कर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुट गए हैं। शाह को हफ्ते में दो बार मध्यप्रदेश दौड़ लगानी पड़ रही है। वे यदि मणिपुर को संभालते हैं, तो मध्य प्रदेश भाजपा के हाथ से जाता है। 32 लाख की आबादी वाले मणिपुर को संभालने से बेहतर 7 करोड़ की आबादी वाले मध्य प्रदेश को संभालना केंद्र सरकार और भाजपा के लिए ज्यादा ज़रूरी है।
पिछले दिनों कांग्रेस के नेता राहुल गांधी जब मणिपुर दौरे पर गए थे, तब उनके काफिले को बिष्णुपुर से आगे नहीं जाने दिया गया था। पुलिस ने राहुल गांधी की सुरक्षा को देखते हुए उनके काफिले को रोकने का फैसला किया था। इसके बाद वे राजधानी इंफाल लौट आए थे, जहां उन्होंने राहत शिविरों में मौजूद लोगों से मुलाकात की और उनका हालचाल जाना। स्मृति बहन से लेकर भाजपा के तमाम प्रवक्ता उस समय राहुल गांधी पर पिल पड़े थे। लेकिन विपक्षी सांसदों के दल के साथ राज्य की सरकार शायद वैसा सलूक न कर पाए जैसा उसने राहुल गांधी के साथ किया था।
संसद में मौजूदा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस देने के बाद विपक्षी सांसदों का मणिपुर जाना महत्वपूर्ण है। मुमकिन है कि विपक्ष इस दौर के बाद सदन में इस मसले पर ज्यादा प्रमाणिकता से अपनी बात रख सके।
मणिपुर केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल के गले की फांस तो बन चुकी है, लेकिन इस फांस को समय रहते निकालना भी ज़रूरी है, अन्यथा आगामी महीनों में देश के 5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा का भट्टा बैठ जाएगा। इन विधानसभा चुनावों के फौरन बाद आम चुनाव भी हैं। मुमकिन है कि मणिपुर की आग इन आम चुनावों पर भी अपना असर डाले। मणिपुर ने सबको परेशान कर रखा है। ईसाइयों को भी, हिन्दुओं को भी। इंग्लैंड को भी। यूरोप को भी और हमारे प्रधानमंत्री को भी। प्रधानमंत्री चूंकि कर्मयोगी हैं इसलिए वे मणिपुर को लेकर अपनी और अपनी सरकार की उलझन को झलकने नहीं देना चाहते, किन्तु सीकर में उन्होंने जिस तरह से अपनी देह की भाषा का मुजाहिरा किया, उसे देखकर लगता है कि मामला गंभीर है।
देश के अब तक के प्रधानमंत्रियों में मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जो शब्दों के साथ ही इशारों से भी अपनी बात कहने में दक्ष हैं। उनके इशारे श्लील हैं या अश्लील मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता, लेकिन मुझे याद है कि उनके जैसे इशारे तो अपने जमाने की नौटंकी क्वीन गुलाबो भी नहीं कर पाती थीं। बहरहाल, विपक्ष के मणिपुर दौरे के बाद संसद में इस मसले पर देश को एक प्रामाणिक बहस देखने-सुनने को मिलेगी, बशर्ते की सत्ता पक्ष भी बहस के मूड में हो। यदि अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के बजाय सत्ता पक्ष भी हंगामे पार आमादा हो जाता है तो बहस का कोई मतलब नहीं रह जाता।
मोदी सरकार में अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है। वे इस अविश्वास प्रस्ताव का मुकाबला आसानी से कर सकते हैं। वैसे भी इस अविश्वास प्रस्ताव से केंद्र सरकार की सेहत पर कोई प्रतिकूल प्रभाव तो पड़ने वाला है नहीं, लेकिन यदि जनता ने सदन के भीतर होने वाली बहस को सजीव देख लिया तो मुश्किल हो सकती है। मैंने इस तरह के अविश्वास प्रस्तावों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी भाई, वीपी सिंह को बोलते सुना है। अटल बिहारी बाजपेयी को बोलते देखा और सुना है। ये तीनों अपनी सरकार के जाने की तमाम स्थितियों के बावजूद उतने भयभीत नजर नहीं आये थे जितने कि भयभीत अटल जी के उत्तराधिकारी पीएम मोदी दिखाई दे रहे हैं।
मोदी न तो अटल जी की तरह अंतरराष्ट्रीय छवि वाले नेता हैं और न उनके पास अटल जी जैसा शब्दकोश और देह की भाषा है। फिर भी वे अटल जी से आगे निकल चुके हैं। मोदी तीसरी बार सरकार बनाने के लिए आश्वस्त हैं। उनका आत्मविश्वास काबिले तारीफ़ है। उनके स्थान पर यदि कोई दूसरा प्रधानमंत्री होता तो मणिपुर कांड के बाद होशोहवाश खो चुका होता। सारा चुनाव प्रचार भूल जाता। मोदी मणिपुर को ही भूल बैठे हैं, इसलिए उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रह। न अविश्वास प्रस्ताव से और न मणिपुर की हिंसा और उसकी वजह से हुई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई बदनामी से। आखिर बदनामी से भी तो नाम होता ही है। दुनिया में डंका बजता ही है।
आने वाली पीढ़ी के लिए मोदी और मणिपुर एक कॉमिक्स की तरह रोमांचक विषय बन सकता है। मोदी ने चूंकि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने में कामयाबी पा ली थी इसीलिए मुझे उम्मीद है कि वे मणिपुर पर भी काबू पा लेंगे। इस बार भी कामयाबी उनके चरण चूमेगी!
वे एक कामयाब प्रधानमंत्री हैं। मणिपुर और मनीपुर [नोटबंदी] में ज्यादा फर्क नहीं है । मनीपुर के समय भी देश में 150 लोग कतारों में लगकर मारे गए थे और मणिपुर में भी जातीय हिंसा में तीन महीने में 150 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। नोटबंदी के बाद भी किसी ने मोदी को चौराहे पर लटकने के लिए नहीं कहा और मणिपुर के बाद भी कोई मोदी से इस तरह की अपेक्षा नहीं करेगा। मोदी संसद में जरूर आएंगे। वे संसद का दिल से सम्मान करते हैं। उसकी देहलीज पर अपना माथा टेक चुके हैं। विपक्ष मोदी को घुटने टेकने पर विवश नहीं कर सकता। माथा टेकने और घुटने टेकने में जमीन -आसमान का अंतर है।
कुल मिलकर लोकतंत्र के लिए विपक्ष का मणिपुर दौरा एक शुभ संकेत है। ये काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। यदि मणिपुर में हिंसा शुरू होने के तत्काल बाद ही विपक्ष या सर्वदलीय संसदीय दल मणिपुर का दौरा कर लेता तो मुमकिन है कि हिंसा की आग इतनी ज्यादा न फ़ैल पाती। खैर देर आयद, दुरुस्त आयद। जो काम सरकार को करना था वही काम अब विपक्ष कर रहा है। बात एक ही है। विपक्ष कोई यूरोप या इंग्लैंड का तो है नहीं। पूर्ण स्वदेशी है। अब तो नाम से भी देशी हो चुका है। मणिपुर के दौरे से लौटकर विपक्ष क्या करता है इसका पता अब सोमवार को संसद बैठने पर ही चलेगा। तब कहीं सत्ता पक्ष विपक्ष की भूमिका में आ गया तो मुश्किल होगी।
(राकेश अचल की फ़ेसबुक वाल से)