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प्रधानमंत्री को उनके हाल पर छोड़ दो, उन्हें बख्श दो!

प्रधानमंत्री को उनके हाल पर छोड़ दो, उन्हें बख्श दो!

विपक्षी दल मणिपुर हिंसा पर संसद में चर्चा कराने और पीएम मोदी के बयान देने की मांग के लिए विरोध कर रहे हैं, लेकिन क्या सरकार ऐसा करेगी? जानिए, आख़िर दिक्कत कहाँ है।

हमारे देश की संसद बनी तो थी देश के मुद्दों पर बहस-मुबाहिसे के लिए लेकिन अब यहां केवल हंगामा होता है। वजह साफ़ है कि जो भी सत्तासीन होता है, ज्वलंत मुद्दों पर बहस से कतराता है। आज के प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी भी बहस से कतरा रही है। मुझे सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं की इस कातरता पर कोई हैरानी नहीं है लेकिन विपक्ष है कि मानता ही नहीं। उसे मणिपुर मुद्दे पर प्रधानमंत्री का ही बयान सुनना है।

मणिपुर का मुद्दा सत्तारूढ़ दल के लिए काबिले बहस मुद्दा न हो किन्तु ये मुद्दा अब देश की सीमाएँ लांघकर दुनिया जहाँ तक पहुँच गया है। विपक्ष को इसी पर संतोष कर लेना चाहिए कि जिस मुद्दे पर देश की संसद में बहस होनी थी उसी मुद्दे पर दूसरे देशों की संसदें बहस कर रही हैं। हमारी सरकार जब विदेश की संसद को कोई उत्तर नहीं दे रही तो देश की संसद में अपना श्रीमुख कैसे खोल सकती हैं? मणिपुर पर बहस किस प्रावधान के तहत हो, अभी इसी पर बहस और हंगामा हो रहा है। विपक्ष सारे काम रोककर बहस कराना चाहता है जबकि सरकार चाहती है कि पहले निर्धारित कार्यसूची पर काम हो फिर बहस। यानी सरकार बहस से नहीं भाग रही?

मणिपुर पर बहस होने से मौजूदा सरकार गिरने वाली नहीं है। ये सरकार दिल्ली सरकार के लिए बनाये गए अध्यादेश को क़ानून बनाने के मुद्दे पर भी नहीं गिरेगी। वैसे भी एक गिरी हुई सरकार को गिराने के लिए कोशिश करना बेकार की जिद है। मणिपुर में डबल इंजन सरकार बुरी तरह नाकाम हो गयी है। सरकार ने मणिपुर से मैतेई समाज के लोगों के पलायन के लिए खुद हवाई जहाज मुहैया कराकर अपनी नाकामी को तस्लीम कर लिया है। ये सरकार की नाकामी है या उपलब्धि, ये कहना कठिन है क्योंकि डबल इंजन की सरकार जो चाहती थी वो अपने आप हो रहा है। सरकार राज्य में एक समाज को संरक्षण देने के बजाय यदि पलायन में उनकी मदद करने लगे तो आप समझ सकते हैं कि हकीकत क्या है?

विपक्ष को चाहिए कि वो प्रधानमंत्री का श्रीमुख खुलवाने की जिद छोड़ दे। उन्हें माफ़ कर दे। मौन प्रधानमंत्री का सबसे बड़ा लक्षण और हथियार है। वे डॉ. मनमोहन सिंह से भी बड़े मौनी बाबा साबित हुए हैं, प्रधानमंत्री को केवल आकाशवाणी पर बोलना आता है वो भी वातानुकूलित स्टूडियो में। वे कैमरे के सामने बोल सकते हैं, भीड़ के सामने बोल सकते हैं किन्तु संसद के सामने बोलने से भय खाते हैं। प्रधानमंत्री के मणिपुर पर बोलने से मणिपुर का भला होने वाला नहीं है। मणिपुर में अराजकता, अमानुषिकता से जितना नुकसान देश और मणिपुर का होना था वो हो चुका। वहां देश के लिए लड़ने वाले सैनिकों और स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों के परिवारों की महिलाओं की इज्जत लूट गयी। उनकी हत्याएं हो गयीं।

देश की संसद में प्रधानमंत्री के वक्तव्य को लेकर भले ही पूरा विपक्ष  एकजुट और उतावला हो किन्तु आम आदमी को इस विषय को लेकर कोई उतावलापन नहीं है। कोई उत्सुकता नहीं है। क्योंकि देश की जनता जानती है कि प्रधानमंत्री मणिपुर में अपनी पार्टी और सरकार की अकल्पनीय नाकामी के लिए भी अंतत: कांग्रेस और सिर्फ कांग्रेस को कोसने वाले हैं। उनके सर से जब तक कांग्रेस का भूत नहीं उतरता वे देश की सम्प्रभुता और एकता की सुरक्षा के लिए न कुछ कर पाए हैं और न कर पाएंगे।

वैसे भी अब प्रधानमंत्री के पास करने के लिए समय ही कहाँ बचा है? अब वे मणिपुर को बिसराकर देश में होने वाले विधानसभाओं और आम चुनावों की तैयारियों में उलझ चुके हैं। विपक्ष को उनके ऊपर रहम खाना चाहिए।

विपक्ष प्रधानमंत्री के बयान की मांग छोड़कर ये काम कर सकता है। लेकिन विपक्ष भी तो उसी मिट्टी का बना है जिससे प्रधानमंत्री बने हैं।

आपको स्मरण होगा कि संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण अडानी मामले में हंगामे की भेंट चढ़ा चुका है। तब विपक्ष अडानी समूह के खिलाफ लगे आरोपों की जांच के लिए जेपीसी गठित करने की मांग पर अड़ गया था। अब मानसून सत्र की शुरुआत ही मणिपुर हिंसा पर हंगामे से हुई है। इसके कारण दोनों सदनों के शुरुआती दो दिनों का कामकाज हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। अब कोई तो अपना अड़ियलपन छोड़े! सरकार नहीं छोड़े तो विपक्ष को अपना अड़ियलपन छोड़ देना चाहिए। विपक्ष को भी प्रधानमंत्री की तरह चुनाव तैयारियों में जुट जाना चाहिए। 

मणिपुर अनाथ था और जब तक केंद्र में दरियादिल सरकार नहीं आएगी तब तक अनाथ ही रहेगा। हमारी सरकार तो मंदिर बनाना जानती है, गिरजाघरों से उसे क्या लेना? वे जलते हैं तो उसकी बला  से। मणिपुर को लेकर दुनिया में भारत की बदनामी हो तो सरकार को क्या फर्क पड़ता है? देश में और खासकर हिंदुओं में तो उनका नाम हो रहा है। सरकार पर फर्क तो भारत के मतदाताओं की प्रतिक्रिया से पड़ता है। अब देखना होगा कि जनता ने क्या सोच रखा है? देश की संसद को परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। संसद हंगामे के लिए बनी है सो हंगामा करो, हंगामा होने दो और ध्वनिमत से अपना कामकाज निबटाओ, बस। हमारी संसद के पीठासीन अधिकारी ध्वनि विशेषज्ञ होते हैं। उन्हें समझ में आता है कि 'हाँ ' के पक्ष में बहुमत है और 'न' के पक्ष में अल्पमत।

मणिपुर को लेकर हमारा, आपका गुस्सा किसी काम का नहीं। गुस्सा तो प्रधानमंत्री का असर दिखाता है। वे जब गुस्से में होते हैं तो और खूबसूरत लगते हैं। मुस्कराहट उनके चेहरे पर जमती ही नहीं। वे जब मुस्कराते हैं तो गंगा में हिलोरें उठने लगती हैं। वे जब मुस्कराते हैं तो साबरमती के किनारे बना गांधी जी का आश्रम नेस्तनाबूद हो जाता है। पहले देश की जनता प्रधानमंत्री के रात 8  बजे दूरदर्शन पर आने से घबड़ाती थी, अब उनके मुस्कराने पर घबराती है। प्रधानमंत्री के क्रोध में भर जाने से नुकसान किसका होगा? ले-देकर कांग्रेस का।  देश का तो कुछ बिगड़ना नहीं है। गुस्से में भरे प्रधानमंत्री के प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है। पूरे देश की सहानुभूति प्रधानमंत्री के साथ होना चाहिए। उन्हें इस समय सहानुभूति की बेहद ज़रूरत है, क्योंकि कांग्रेस और विपक्ष तो उनसे सहानुभूति रखता ही नहीं है। यदि रखता होता तो मणिपुर मुद्दे पर इनके बयान की मांग न छोड़ देता!

जब विपक्ष के नेता राहुल गांधी संसद की सदस्य्ता छोड़ सकते हैं तो बहस और बयान की मांग छोड़ने में विपक्ष को क्या दिक्क्त है?

विपक्ष को शायद नहीं पता कि प्रधानमंत्री के दौरों की जितनी ज़रूरत मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना को है उतनी मणिपुर को नहीं है। मणिपुर की आबादी तो अकेले इंदौर या जयपुर जितनी है जबकि इन चार-पांच प्रदेशों की आबादी से आधा हिन्दुस्तान बनता है। ऐसे में प्रधानमंत्री भला मणिपुर क्यों जाएँ? क्यों मणिपुर पर संसद में बहस में भाग लें? क्यों मणिपुर पर अपना श्रीमुख खोलें? इस मामले में मैं प्रधानमंत्री के साथ हूँ। उनके मौनव्रत के साथ हूँ।

ये मेरा स्वभाव है कि मैं हमेशा कमजोर का साथ देता हूँ। प्रधानमंत्री इस समय दुनिया के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं। ये अपनी-अपनी मान्यता की बात है। मुमकिन है कि वे आपकी नज़र में बाहुबली या महाबली हों। मैं आपकी मान्यता का प्रतिवाद करने वाला नहीं हूँ।  यहां गोस्वामी तुलसीदास का फार्मूला फिट होता है-'जाकी रही भावना जैसी'। आप प्रधानमंत्री को जैसा देखना चाहते हैं, वे वैसे दिखाई देने लगते हैं। यही तो अवतारों की खुसूसियत होती है। बहरहाल हम संसद के और संसद हमारी। हम और देश दोनों पर बलिहारी।

(राकेश अचल फ़ेसबुक से)

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