विपक्ष महागठबंधन नहीं आसान, महत्वाकांक्षा बड़ी बाधा 

01:16 pm Apr 08, 2023 | साकिब खान

आगामी लोकसभा चुनाव में अभी एक साल का वक्त बाकी है, लेकिन सियासी बिसात बिछनी शुरू हो गई है। भारी बहुमत से लगातार दो जीत दर्ज कर भाजपा आत्मविश्वास से लबरेज नजर आ रही है कि 2024 में वह जीत की हैट्रिक लगाएगी। इसके लिए भाजपा अभी से चुनाव की तैयारियां भी कर रही है। वहीं दूसरी तरफ विपक्षी दल बिखरे नजर आ रहे हैं। ऐसे में बार- बार यह कहा जा रहा है कि विपक्षी दलों की एकता से ही 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराया जा सकता है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह संभव है कि सभी विपक्षी दल एक जुट होंगे। 

विपक्षी दलों की एकता में सबसे बड़ी बाधा क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षा है। विपक्षी दलों में प्रधानमंत्री पद की लालसा रखने वाले कई नेता हैं जो कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार करना नहीं चाहते। विपक्षी दलों में कितनी खींचतान है इसे हाल के दिनों में प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं के बयानों से समझा जा सकता है। 

19 मार्च को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि राहुल गांधी जब तक विपक्षी नेता रहेंगे तब तक नरेंद्र मोदी का कोई कुछ भी नहीं कर सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा भी विपक्षी दलों की एकता के सवाल पर पिछले दिनों कह चुके हैं कि पहले कांग्रेस अपना घर ठीक करें, विपक्षी दलों के सामने कई विकल्प हैं और इस देश के पास नेतृत्व का खजाना है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 29 मार्च को एक सवाल के जवाब में कहा कि सभी क्षेत्रीय दलों की लगभग राय बन गई है लेकिन कांग्रेस के फैसले का अभी इंतजार किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस अभी तक कुछ बता नहीं रही है। 

उनकी बातें काफी कुछ कहती हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चा इस बात की भी है कि नीतीश और अन्य विपक्षी दलों की इच्छा है कि भाजपा- एनडीए के विरुद्ध बने विपक्षी दलों के महागठबंधन से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कांग्रेस के बाहर का हो। अगर कांग्रेस इस शर्त पर तैयार हो जाती है तो विपक्षी एकता बनेगी। हालांकि यह फार्मूला भी इतना आसान नहीं है, विपक्ष से प्रधानमंत्री पद के अनेक दावेदार होने के कारण करीब डेढ़ दर्जन दलों के बीच से किसी एक नाम पर सहमति बनना मुश्किल है। 

विपक्षी एकता की सबसे बड़ी चुनौती उन दलों को साथ लाने की भी है जो भाजपा का विरोध तो करते हैं लेकिन कांग्रेस के साथ भी गठबंधन में नहीं जाना चाहते हैं। ऐसे दलों में तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति, दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, उड़ीसा में बीजद, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल, केरल के वामदल, असद्दुदीन ओवैसी की एआईएमआईएम आदि शामिल है। इन दलों का अपने राजनैतिक गढ़ में कांग्रेस से सीधा मुकाबला है। इन दलों के साथ एकता में पेंच फंसता है। आम आदमी पार्टी तो राष्ट्रीय परिदृश्य में खुद को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश करती है। ओवैसी पर भाजपा की ही बी टीम होने का आरोप लगता रहा है।

विपक्षी एकता में दूसरी बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और रणनीतिक लिहाज से बेहद अहम राज्य में दिखती है जहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का कांग्रेस से गठबंधन मुश्किल दिख रहा है। इनके बीच गठबंधन के पिछले चुनावों के परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं। ऐसे में इस बार भी मुश्किल लगता है कि सपा और बसपा महागठबंधन का हिस्सा बनेंगे। 

वहीं ऐसे भी कुछ दल हैं जो राष्ट्रीय राजनीति में दिखते तो कांग्रेस के साथ हैं लेकिन कुछ किंतु - परंतु के साथ। ये दल अक्सर ही कांग्रेस के लिए असहज स्थिति पैदा करते रहते हैं जिनमें राजद, जदयू, जनता दल सेक्युलर, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और वाम दल आदि शामिल हैं। ये दल आगामी लोकसभा चुनाव में अगर विपक्षी महागठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ते हैं तो इनके वोटों का बंटवारा भाजपा को लाभ पहुंचा सकता है। विपक्षी एकता के लिए इनका एकजुट रहना जरूरी है।  ‌‌

कुछ विपक्षी दल ही बचते हैं जिन्हें कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है। इनमें झारखंड में जेएमएम और तमिलनाडु में डीएमके है। दोनों ही जगह कांग्रेस राज्य सरकार में कनिष्ठ सहयोगी बनी हुई है। इन दोनों दलों का कांग्रेस से सीधा मुकाबला नहीं है जिससे किसी प्रकार की तल्ख राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता नहीं दिखती। महाराष्ट्र में एनसीपी और उद्धव ठाकरे की पार्टी को भी इन्हीं दलों की श्रेणी में रखा जा सकता है।

ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि विपक्षी दलों में व्यापक विविधता और हितों को लेकर आपसी टकराव को देखते हुए उन्हें एक छतरी के तले लाना असंभव तो नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर है। इस तरह के हालात में अगर विपक्ष दो ग्रुप में बंट जाता है या कोई तीसरा मोर्चा बना जाता है तो भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा होगा। भाजपा चाहती भी है कि किसी भी तरह से विपक्ष को एकजुट होने से रोका जाए। विपक्षी एकता के प्रयासों को देख भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के हालिया बयान उसकी बौखलाहट को बताते हैं। 

देश के वर्तमान राजनीतिक हालात में भाजपा के विरुद्ध किसी केंद्रीय महागठबंधन को कम से कम तीन कसौटियों पर खरा उतरना होगा। 

इसमें सबसे पहली कसौटी तो एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम या वैचारिक आधार की होगी। महंगाई, बेरोजगारी और बढ़ती असमानता जैसे रचनात्मक मुद्दे कहीं ज्यादा प्रभावशाली ढंग से उठाना होगा। इन मुद्दे पर विपक्ष एकजुट होकर कुछ ठोस दलीलें रखता है तो सरकार के विरोध में और अपने पक्ष में माहौल बना सकता है। महागठबंन की दूसरी कसौटी उसके केंद्र में एक प्रमुख दल और सर्वस्वीकार्य नेतृत्व होगा। कांग्रेस विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी है, मगर उसके नेतृत्व को लेकर विपक्षी खेमे में संदेह है जिसे दूर करने की जरूरत है। इस कड़ी में तीसरी कसौटी संसाधनों को जुटाने और उनके साझा उपयोग की होगी। इसमें आर्थिक संसाधन से लेकर कार्यकर्ताओं के उपयोग और माइक्रो लेवल पर बूथ मैनेजमेंट तक में भाजपा को चुनौती देने की आवश्यकता होगी।

 इसके साथ ही अगर महागठबंधन आकार लेता है तो सीटों के बंटवारे और टिकट वितरण जैसे उलझाऊ मुद्दों को सुलझाने की चुनौती भी उत्पन्न होगी। कांग्रेस को यहां पर बड़ा दिल दिखाकर सहयोगी दलों के साथ सीटों का बंटवारा करना होगा।

विपक्षी एकता को एक बड़ा खतरा भाजपा का छोटे -छोटे दलों और उनके नेताओं को अपने पाले में लगातार किया जाना भी है। उदाहरण के लिए बिहार में ही भाजपा ने चिराग पासवान को साथ मिलाकर रखा है तो उपेंद्र कुशवाहा को पिछले दिनों अपने पाले में लाने में कामयाबी हासिल की है। नार्थ ईस्ट के राज्यों के स्थानीय दलों और नेताओं को अपने पाले में हाल के दिनों में शामिल किया है। ये छोटे - छोटे दल और नेता भाजपा के वोट प्रतिशत को बढ़ा सकते हैं। ऐसे में इन्हें विपक्षी छाते के नीचे रोके रखना भी बड़ी चुनौती है। 

इन सब कसौटियों पर खरा उतरने के बाद ही विपक्षी एकता बन पायेगी और आगामी लोकसभा चुनाव में महागठबंधन भाजपा और एनडीए को कड़ी टक्कर दे सकता है।