पायलट प्रकरण से कुछ सबक सीखेगा कांग्रेस आलाकमान?

07:31 am Jul 15, 2020 | पवन उप्रेती - सत्य हिन्दी

तीन दिन तक अल्टीमेटम देने के बाद कांग्रेस ने आख़िरकार सचिन पायलट के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर ही दी। पार्टी ने उन्हें उप मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद से हटा दिया है। पायलट के अलावा उनके क़रीबी विश्वेंद्र सिंह और रमेश मीणा को भी मंत्रिमंडल से हटा दिया गया है। 

जिस तरह सोमवार को कांग्रेस आलाकमान ने पायलट को मनाने की पुरजोर कोशिश की थी, उससे ऐसी उम्मीद क़तई नहीं थी कि पार्टी मंगलवार को इतनी बड़ी कार्रवाई कर देगी। मनाने वालों में राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा और अहमद पटेल से लेकर तमाम बड़े नेता शामिल रहे। लेकिन बावजूद इसके बात नहीं बन सकी, लेकिन क्यों

तीन अहम सवाल 

इस पूरे सियासी घटनाक्रम से तीन सवाल खड़े होते हैं। पहला यह कि क्या पायलट अति सियासी महत्वाकांक्षा के चलते जल्दबाज़ी कर गए, दूसरा  यह कि वह बीजेपी के साथ जाएंगे तो क्या होगा और अगर अलग पार्टी बनाएंगे तो क्या होगा, ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसा नहीं लगता कि अब वह कांग्रेस में रहेंगे। तीसरा यह कि कांग्रेस में नेताओं के पार्टी छोड़ने का यह सिलसिला कब रुकेगा। 

जल्दबाज़ी कर गए पायलट

जहां तक सवाल पायलट द्वारा जल्दबाज़ी करने का है, तो पायलट की उम्र अभी सिर्फ़ 43 साल है। जैसा आज कांग्रेस के मीडिया विभाग के प्रभारी रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि पार्टी ने उन्हें 26 की उम्र में सांसद बनाने से लेकर 40 साल तक की उम्र में केंद्रीय मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, उप मुख्यमंत्री तक बनाया। इस बात को पायलट ख़ुद भी मंच पर स्वीकार कर चुके हैं। ऐसे में लगता है कि ख़ुद की सियासी उपेक्षा होने की पायलट की बात सही नहीं लगती और यह कहना सही होगा कि वह जल्दबाज़ी कर गए। 

राजस्थान के प्रकरण में बीजेपी नेताओं के बयानों ने आग में घी डालने का काम किया। पूरी बीजेपी पायलट के लिए इतनी दुखी है मानो कि वह उसकी अपनी पार्टी के नेता हों।

बीजेपी के नेता 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से ही पायलट को यह कहकर उकसाते रहे कि राजस्थान में मेहनत उन्होंने की और ईनाम गहलोत को मिल गया। ऐसा कहने के पीछे उनकी मंशा साफ थी कि पायलट की सियासी आकांक्षाओं को उभारकर गहलोत सरकार को अस्थिर किया जा सके। 

पायलट यहीं गलती कर बैठे और चार दशक से ज़्यादा का सियासी अनुभव रखने वाले गहलोत ने मौक़े को भुनाते हुए उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी और मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखवा दिया। 

बीजेपी में अहमियत नहीं मिलेगी!

दूसरा सवाल यह कि अगर पायलट बीजेपी के साथ जाएंगे तो क्या होगा। पायलट कांग्रेसी परिवार से हैं और राजस्थान में पिछले 17-18 साल में उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच ही काम किया है। अगर वह बीजेपी में जाते हैं तो वहां उनके लिए कुछ नहीं है। 

ऐसा इसलिए क्योंकि राज्य बीजेपी में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र शेखावत, अर्जुन राम मेघवाल, कैलाश चौधरी, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम माथुर, विधानसभा में विपक्ष के नेता गुलाब चंद कटारिया, राज्यसभा सदस्य डॉ. किरोड़ी लाल मीणा जैसे दिग्गज नेता मौजूद हैं। इतने नेताओं के बीच में पायलट का ख़ुद के लिए जगह बना पाना संभव नहीं होगा।

इस मुद्दे पर देखिए, वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का वीडियो - 

पायलट की सियासी हैसियत इस बात पर भी निर्भर करेगी कि वह कितने विधायकों को कांग्रेस से अपने साथ ला पाते हैं। क्योंकि ऐसी ख़बरें हैं कि जिन लोगों को उन्होंने टिकट दिलवाया, विधायक-मंत्री बनवाया, उनमें से बहुत सारे लोग पार्टी छोड़ने के मुद्दे पर आज उनके साथ नहीं खड़े हैं। 

मान लीजिए, अगर पायलट बीजेपी में शामिल हो ही जाते हैं तो यह तय है कि कांग्रेस की तरह प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी और उप मुख्यमंत्री जैसा पद और साथ में कई विधायकों को मंत्री बनाने की हैसियत उन्हें नहीं मिलेगी।

और पायलट अगर अलग पार्टी बनाते हैं तो क्या होगा। तो फिर पायलट को शून्य से शुरुआत करनी होगी। राजनीति में आने के बाद से ही वह लगातार ताक़तवर पदों पर या सरकार के हिस्से रहे हैं। ऐसे में बिना ताक़तवर पद या बिना सरकार के सपोर्ट के अकेले आगे चलना बेहद मुश्किल होगा। 

पायलट को यह भी ध्यान रखना होगा कि राजस्थान की राजनीति में तीसरे पक्ष के लिए गुंजाइश न के बराबर है, वहां का सियासी इतिहास बताता है कि बीजेपी-कांग्रेस ही मिलकर सत्ता चलाते रहे हैं। हां, ज़रूरत पड़ने पर इन्होंने छोटे दलों या निर्दलीयों का समर्थन ज़रूर लिया है। 

धड़ाधड़ पार्टी छोड़ते नेता

तीसरी और अहम बात यह है कि कांग्रेस में नेताओं के पार्टी छोड़ने का यह सिलसिला कब रूकेगा। दक्षिण से शुरू करें तो आंध्र में बेहद चर्चित चेहरे वाईएस राजशेखर रेड्डी जो वाईएसआर नाम से प्रसिद्ध थे, उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी ने आलाकमान पर अपनी उपेक्षा का आरोप लगाकर ख़ुद की पार्टी बनाई और कांग्रेस को आंध्र में लगभग ख़त्म कर दिया और आज वह मुख्यमंत्री हैं। 

उत्तर-पूर्व में जाएं तो धाकड़ नेता हिमंता बिस्वा सरमा से लेकर एन. बीरेन सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अशोक तंवर और तेजतर्रार प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी से लेकर कई नाम शामिल हैं। आलाकमान कोशिश करता तो इन नेताओं को रोक सकता था।  

यहां वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल का भी जिक्र करना ज़रूरी होगा जिन्होंने राजस्थान के संकट के दौरान ही कहा कि क्या हम तब जागेंगे, जब अस्तबल से सारे घोड़े भाग चुके होंगे। 

इसके अलावा पंजाब के पूर्व मंत्री नवजोत सिद्धू, पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा, मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष मिलिंद देवड़ा, संजय निरूपम सहित कई लोग नाराज होकर कोपभवन में बैठे हैं। 

सीनियर नेताओं में पूर्व विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से लेकर, रीता बहुगुणा जोशी, चौधरी बीरेंद्र सिंह, जगदंबिका पाल, राधा कृष्ण विखे पाटिल और सोनिया गांधी के सबसे क़रीबी कहे जाने वाले टॉम वडक्कन से लेकर कई दिग्गज पार्टी छोड़ चुके हैं।

इसके अलावा महाराष्ट्र से लेकर गोवा, गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश और अरुणाचल से लेकर कर्नाटक और तेलंगाना तक कई विधायक पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। 

आलाकमान से सवाल

अब सवाल कांग्रेस आलाकमान से है कि पार्टी में नेता टिक क्यों नहीं रहे हैं। हर मामले में सिर्फ़ बीजेपी को ही दोष देकर या अपने नेताओं को महत्वाकांक्षी बताकर काम नहीं चलेगा। लोकसभा चुनाव हुए एक साल हो गया है, पार्टी अध्यक्ष तक हीं चुन सकी है। सिंधिया, पायलट जैसे चमकदार चेहरे अगर पार्टी छोड़ेंगे तो आम घरों से आने वाले नए युवा पार्टी में आने से हिचकेंगे और इससे पार्टी के पहले से ख़राब चल रहे हालात के और ख़राब होने से इनकार नहीं किया जा सकता।