“यूपी में सवा करोड़ लोगों को रोज़गार देने की पीएम की 'यूपी आत्मनिर्भर रोज़गार अभियान' घोषणा का भला कौन स्वागत नहीं करेगा यह एक नेक मंशा है। लेकिन वह यह तो बताएँ कि वो ये सब लाएँगे कहाँ से पहले उनके पास बाँटने को कौड़ी तो हो। वह यूपी में पैकेज की घोषणा कर देते हैं, वह बिहार में भी ऐसी ही घोषणा कर चुके हैं लेकिन कहीं कागज़ पर दिखाएँ तो सही कि इस सबके लिए पैसा कहाँ से बटोरेंगे" यह कहना है देश के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. संतोष कुमार मेहरोत्रा का।
प्रो. मेहरोत्रा योजना आयोग से संबद्ध 'इंस्टिट्यूट ऑफ़ एप्लाइड मैनपॉवर रिसर्च' के बीते 5 साल महानिदेशक रहे हैं। उनकी गिनती देश के गिने-चुने 'मानव विकास' अर्थशास्त्रियों में होती है। 'मज़दूर और उनका रोज़गार' उनके अध्ययन के विशिष्ट क्षेत्र हैं और वह इस क्षेत्र में भारत सरकार, 'यूनिसेफ़' और 'यूएनडीपी' सहित 63 देशों के सलाहकार की भूमिका निभा चुके हैं। यूपी की प्रधानमंत्री की सवा करोड़ की घोषणा पर वह बड़ी हैरानी प्रकट करते हैं। “देखिये इन्हें 'माइक्रो इकोनॉमिक्स' ही नहीं समझ में आ रही है। ये जो इतनी विकट विपदा है, उसके संकट को समझ ही नहीं रहे। क्यों नहीं वह आरबीआई को 'इंस्ट्रक्ट' करते हैं कि वह कुछ 'बॉरो' करे। ये दमड़ी नहीं ख़र्च करना चाहते हैं। आप कहते हैं आप के पास ज़मीन की कमी है नहीं। आप सड़क बनाने के लिए, घर बनाने के लिए, कुछ तो ख़र्चा करो।”
प्रो. रवि श्रीवास्तव कहते हैं “मैंने वह स्कीम देखी है। यूपी गवर्नमेंट के आँकड़े कहते हैं कि 50 लाख लोगों को काम दे चुके हैं मनरेगा में। हफ्ते पन्द्रह दिन में अब मानसून आ रहा है, वह भी ख़त्म हो जाएगा। उसके बाद क्या करेंगे 16 ज़िलों की इन योजनाओं में 9 मनरेगा से संबद्ध हैं और 5 मनरेगा के साथ मिलकर हैं। शेष कुछ केंद्रीय योजनाएँ हैं। 'डीएमएसटी' फण्ड से जो आप सपने देखते हैं वह बहुत ही छोटी स्कीम है। उसकी तो गाइडलाइन ही बहुत रिजिड है। वह सिर्फ़ माइनिंग से प्रभावित लोगों पर ही लागू हो सकती है।”
प्रो. श्रीवास्तव भारत सरकार से संबद्ध 'इंस्टिट्यूट ऑफ़ ह्यूमन डेवलपमेंट' के प्रमुख हैं। श्रमिक और उनके रोज़गार के क्षेत्र में वह देश के नामचीन विशेषज्ञों में गिने जाते हैं। पूर्व में वह भारत सरकार के सचिव की हैसियत से केंद्रीय सरकार के 'नेशनल कमीशन फॉर एंटरप्राइज़ेज़ इन द अनऑर्गेनाइज़्ड सेक्टर' (NCEUS) के सदस्य रहे हैं। यह 'यूनिसेफ़','आईएलओ','वर्ल्ड बैंक', 'आईसीएसएसआर' और 'यूजीसी' आदि से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं में सलाहकार रहे हैं। प्रधानमंत्री की यूपी में सवा करोड़ लोगों को रोज़गार देने की ताज़ातरीन घोषणा पर मुस्कराते हैं। वह कहते हैं, “आप नियमित रोज़गार की जो उम्मीद ‘सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम’ (एमएसएमई) से बांधे हैं, वह तो ख़ुद ही गहरे संकट में डूबा है। समूचे देश में उस बेचारे का अस्तित्व ही दाँव पर लगा हुआ है। एक टायफाइड के मरीज़ से यह उम्मीद लगाना कि वह जाकर दारासिंह से कुश्ती लड़े, कहाँ तक न्यायसंगत है”
प्रो. एके. सिंह का कहना है कि “हमारे प्रधानमंत्री हर दो महीने पर एक नारा दे देते हैं। पॉज़िटिविटी क्रिएट करते हैं। यह अच्छी बात है। लेकिन वही बात कि सारा कुछ लौट फिर कर मनरेगा के इर्दगिर्द आता है और मनरेगा में साल भर में 50 दिन का ही काम बन पाता है।”
प्रो. सिंह ‘गिरी इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट स्टडीज़' के पूर्व निदेशक हैं। लखनऊ स्थित उक्त संस्थान भारत सरकार की ‘आईसीएसएसआर’ और उप्र. सरकार का एक संयुक्त संस्थान है। प्रो. सिंह की गिनती देश के श्रमिक विकास के नामचीन विद्वानों में होती है। रोज़गार में निरंतरता की दिशा में भी तो कुछ किया जाना चाहिए। हर आदमी आत्मनिर्भर कैसे हो जायेगा ज़रूरत है छोटे उद्योगों को रिवाइव करने की, उन्हें उनके पैरो पर खड़ा करने की, ताकि वहाँ से मज़दूरों को काम मिल सके।” रोज़गार के संकट पर विस्तार से बात करते हुए वह बोलते हैं, “शॉपिंग वग़ैरह को मिला कर जोड़ें तो वहाँ से भी 5 करोड़ रोज़गार निकलते हैं। अब कंज़्यूमर डिमांड के दिन लद गए। कंज़्यूमर के पास पैसा ही नहीं है तो खरीदेगा कहाँ से यह माइक्रो इंटरप्राइजेज़ का दौर है। उस दिशा में कोई सोचने को तैयार नहीं है।"
रोज़गार के सवा करोड़ अवसरों को यूपी की झोली में डालने के पीएम के आह्वान को 6 साल पहले के धरातल से जोड़ कर देखने वाले प्रो. आईडी. गुप्ता कहते हैं “2014 में सत्ता में आने से पहले मोदी जी का वायदा था कि वह 10 करोड़ रोज़गार के पद सृजित करवाएँगे। यानी हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ। स्थिति यह है कि बेरोज़गारों की फ़ौज में हर साल 1 करोड़ 20 लाख नए लोग जुड़ते हैं। यह ऑस्ट्रेलिया की आधी आबादी के बराबर है। पीछे का बैकलॉग अलग है।”
प्रो. गुप्ता प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और 'क्राइसिस बिफ़ोर इंडियन इकॉनमी' जैसी चर्चित किताब के लेखक और लखनऊ यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हैं। वह कहते हैं “आज सारा देश बेरोज़गारी के बम के ऊपर बैठा हुआ है। यह बम कब फट जाए, पता नहीं। यह संकट 2019 में भी शिखर पर था लेकिन कोरोना ने इसे चरम पर पहुँचा दिया। हाँ कुछ चीज़ें हैं यूपी सरकार ठीक कर रही है, उनमें से एक है कौशल' का रजिस्ट्रेशन। इसके नतीजे फ़ौरन नहीं दिखेंगे। न ये जल्दी पूरा हो रहा, 8 -10 माह इसमें अभी लग जायेंगे।"
बेरोज़गारी की डराने वाली तसवीर
2019 में ही यह स्पष्ट होने लगा था कि देश में बेरोज़गारी की डराने वाली तसवीर बन रही है। 'पीरियोडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे' (PLFS ) ने साल के शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था कि शहरी और ग्रामीण बेरोज़गारी का 1972 के बाद का सबसे बड़ा क़हर टूटने वाला है। मई के महीने में एक अख़बार ने खबर लिखी थी कि बेरोज़गारी बीते 4 दशकों में सबसे ऊँचे मुक़ाम पर है। इनके कारणों में नोटबंदी और जीएसटी को प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार माना गया था। देश के पूर्व मुख्य सांख्यिकीकार प्रणव सेन के हवाले से 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका ने अक्टूबर 2019 में कहा था कि "यह 'माँग' घटने का संकट नहीं है। दिक्कत यह है कि 'माँग' बढ़ नहीं रही है। लम्बे समय से हो यह रहा है कि निचली आय समूह वाले वर्ग आय की ऊपरी पायदान पर पहुँच तो रहे हैं लेकिन बीते ढाई सालों से उनकी ख़रीदारी की क्षमता विकसित नहीं हो पा रही है… इसकी शुरुआत नोटबंदी (नवम्बर 2016) के साथ हुई जिसने कृषि और छोटे व्यवसाय के अनौपचारिक सेक्टर की कमर तोड़ कर रख दी।”
यहीं से सिलसिला शुरू हुआ बेकारी के तेज़ी से बढ़ते चले जाने का। कोरोना ने दस्तक देकर नए साल में इसे और भी विकराल कर दिया। बीती 14 फ़रवरी को उप्र. के श्रममंत्री स्वामीप्रसाद मौर्या ने विधानसभा में 33.93 लाख लोगों के प्रदेश में बेरोज़गारी होने की जानकारी दी। सन 2018 की तुलना में यह डबल हो जाने जैसा था।
'सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) का आँकड़ा बताता है कि बेरोज़गारी का जो ग्राफ़ इस मई में बढ़कर 23.5% तक पहुँचा था, वह जून में 27% पर पहुँच गया है और यह डरावनी बनकर उभरने वाली एक भयावह तसवीर है।
अर्थशास्त्री रवि श्रीवास्तव बहुत बेचैन हैं। पीएम की घोषणा पर गर्दन हिलाते हुए कहते हैं, “यह सही है कि देश में जो नैरेटिव बनता है वह पीएम या सीएम के कहने से बनता है, मुझ अर्थशास्त्री के कहने पर नहीं बनता। मैं लेकिन एक अर्थशास्त्री के तौर पर उसकी ठोस रणनीतिक परिणति में तब्दील होते देखना चाहूँगा। अगर ऐसा नहीं है तो मेरे लिए उसके कोई मायने नहीं। आप सारी ज़िम्मेदारी 'एमएसएमई' के कन्धों पर डाल रहे हैं।" वह आगे कहते हैं-
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अरे भाई, उनकी 'ऑल इंडिया मैन्यूफैक्चरिंग एसोसिएशन’ ख़ुद ही कह रही है कि हम बमुश्किल ग्रोथ के 35% तक ही पहुँच पा रहे हैं। जो ख़ुद ही धराशायी है वह श्रमिकों की क्या मदद करेगा आप उसी को लेकर सारे सपने संजो रहे हैं।
रवि श्रीवास्तव, अर्थशास्त्री
जहाँ तक यूपी में प्रवासी मज़दूरों की घर वापसी और उससे होने वाले बेकारी 'बूम' का सवाल है, इसमें कोई शक नहीं की यदि बिहार से तुलना की जाए तो रोज़गार कार्ड और 'पीडीएस' कार्ड निर्माण की तुलना में यह एक बेहतर स्थिति को दर्शाता है। यह लेकिन एक तुलनात्मक स्थिति ही है। इसमें बहुत ज़्यादा संतुष्ट होकर गाल बजाने जैसा कुछ भी नहीं, जैसा कि प्रधानमंत्री ने बीते शुक्रवार को किया। उन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री के नाम 24 कैरेट का सर्टिफ़िकेट लिख कर दे दिया। पूरे प्रदेश में अगर योगी अनुकम्पा की ऐसी ही लूट है तो पीएम को अपना ताज़ातरीन पैकेज जारी करने की क्या पड़ी।
प्रधानमंत्री का 'यूपी आत्मनिर्भर रोज़गार अभियान' दरअसल उनकी 'प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण रोज़गार योजना' का एक अंग है जो लॉकडाउन के चलते घर लौटे प्रवासी मज़दूरों तथा उद्योगों और दूसरे संगठनों के साथ भागीदारी विकसित करने की सोच को केंद्रित करके बनायी गयी है। यूपी में बेरोज़गारी का दंगल पहले से ही रचा हुआ है। 3 हफ्ते पहले मुख्यमंत्री 'प्रवासी श्रमिक रोज़गार आयोग' बनाये जाने की घोषणा कर चुके हैं। अब पीएम भी उसी दंगल में ताल ठोंकने उतरे हैं। देखना यह होगा कि मनरेगा के छंट जाने के बाद आने वाले महीनों में प्रदेश में बेरोज़गारी का आँकड़ा कहाँ तक तक पहुँचता है। देखना यह भी होगा कि यह महज़ विधानसभा चुनावों की पूर्व बेला में बजने वाली रणभेरी मात्र तो नहीं है