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‘तुम भी हम जैसे निकले’, यांकी!

‘तुम भी हम जैसे निकले’, यांकी!

अमेरिकी समाज का बुरी तरह से ध्रुवीकरण हो चुका है। यदि आप ट्रम्प समर्थक नहीं और ‘अमेरिका को महान’ नहीं बनाना चाहते हैं तो राष्ट्र विरोधी हैं। तो क्या भारत और अमेरिका के चुनाव प्रचार में अब ज़्यादा फर्क नहीं रहा?

अमेरिका में जैसे-जैसे राष्ट्रपति चुनाव की घड़ी पास आ रही है, वैसे वैसे शिखर पद के दावेदार नेताओं का असली रंग खिलता जा रहा है। मतदान के फ़क़त तीन दिन रह गए हैं; डेमोक्रेट पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस और रिपब्लिकन के डोनाल्ड ट्रम्प आमने-सामने चुनावी अखाड़े में जमे हैं। जीत के लिए निम्नस्तर की वाक -पैंतरेबाज़ी जितनी सम्भव है, उम्मीदवार अपनाने से परहेज़ नहीं कर रहे हैं। इस लिहाज़ से, पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प और उनकी चुनावी टीम अपनी विरोधी कमला हैरिस से कुछ क़दम आगे ही हैं। प्रचार के अंतिम चरण में अमेरिका की सबसे पुरानी रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी ट्रम्प ने भारतवंशियों के ध्रुवीकरण का हथकण्डा अपना लिया है।

पिछले दिनों बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हुए कुछ हमलों के बहाने से इस हथकण्डे का इस्तेमाल भी किया जा रहा है। अमेरिका में क़रीब पचास लाख के आस -पास भारतवंशी या अनिवासी भारतीय हैं। विगत के 2016 और 2020 के चुनावों में भारतवंशी समुदाय तकरीबन ट्रम्प के साथ था। लेकिन, इस दफ़ा तस्वीर बदली हुई है। लेकिन, अब यह समुदाय विभाजित है और इसका एक बड़ा भाग भारतवंशी कमला हैरिस का समर्थन कर रहा है। ट्रम्प की यह दुखती रग उनके ताज़ा उवाच में फट पड़ी है: बांग्लादेश में हिन्दुओं और दूसरे अल्पसंख्यकों पर हिंसा बर्बर है, पूरी अराजकता फैली हुई है। निश्चित ही ताज़ा ट्रम्प -उवाच से भारतवंशियों में कुछ हमदर्दी पैदा हो सकती है। लेकिन, हिंसा की घटनाओं पर ट्रम्प अब तक खामोश क्यों रहे? हमले अगस्त में हुए थे। प्रचार के अंतिम चरण में इस मुद्दे को उछालने का एक ही मक़सद हो सकता है कि आप्रवासी हिन्दुओं और अन्य समुदायों में ट्रम्प अपनी ज़मीन को खिसकती-सी महसूस करने लगे हों। इसलिए ध्रुवीकरण का शस्त्र चलाया जा रहा है।

मैं पिछले महीने ही बॉस्टन से लौटा और अपने विगत- लेखों में विभाजित भारतवंशी समुदाय की बात विस्तार से कही थी। सो, ट्रम्प ने ध्रुवीकरण का जो पैंतरा चला है उससे उनकी घबराहट ही सामने आ रही है। यद्यपि, कमला हैरिस और ट्रम्प के बीच अब भी कांटे की लड़ाई बनी हुई है, पर आमजन -मत या पॉपुलर वोट में कमला अपने प्रतिद्वंद्वी ट्रम्प से आगे ही बनी हुई हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स और अन्य प्रमुख अख़बारों के मत में ट्रम्प पीछे ही हैं। वैसे, फ़ासला एक से दो प्रतिशत का है। लेकिन, कमला हैरिस ट्रम्प के मज़बूत गढ़ों में भी सेंध लगाती जा रही हैं। ट्रम्प की यह ताज़ा चिंता है। बाज़ी किसी भी तरफ पलट सकती है। राज्यों के इलेक्टोरल वोटों की विशिष्ट प्रक्रिया से ही ट्रम्प जीत सकते हैं। 2016 में भी इसी प्रक्रिया ने डोनाल्ड ट्रम्प को जीत दिलाई थी , जबकि आम लोगों के पॉपुलर वोट ने हिलेरी क्लिंटन को विजयश्री की माला पहना दी थी। सो, इलेक्टोरल वोट से ही ट्रम्प -टॉवर पर चमत्कार हो सकता है। अमेरिकी मीडिया का यह मत है। 

फिर भी प्रस्तुत लेख का उद्देश्य हार-जीत की भविष्यवाणी करना नहीं है। लेखक का शुरू से स्पष्ट मत रहा है कि कमला हैरिस या डोनाल्ड ट्रम्प, दोनों में से कोई भी जीत कर ह्वाइट हाउस का चार वर्षीय मालिक भले ही बना रहे, अमेरिका के मूल चरित्र में वह आधारभूत परिवर्तन ला सकेगा या लाना चाहेगा, इसकी संभावना- शून्य समान है। सारांश में, जिस चरित्र का निर्माण एक सदी में हुआ और जिसकी वज़ह से आज अमेरिका ‘विश्व -सिरमौर’ है, क्या हैरिस या ट्रम्प उसे बदल सकते हैं या बदलना चाहेंगे? दोनों में से कोई भी समतावादी क्रांतिकारी नहीं हैं। इसलिए दोनों को लेकर, लेखक को कोई भ्रम नहीं है। संदर्भित लेख में कुछ ज़रूरी बिंदुओं को लेकर चर्चा की जा रही है। 

पाकिस्तान की मशहूर मरहूम शायरा फ़हमीदा रियाज़ ने 1992 में बाबरी मस्ज़िद के ध्वस्त कर दिए जाने के बाद एक बहुचर्चित नज़्म लिखी थी:-

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहाँ छुपे थे भाई…?
अमेरिका के नेताओं के चुनाव प्रचार को देख कर यह नज़्म बरबस याद हो आई। एक औसत भारतीय के समान यह लेखक छुटपन से मानता रहा है कि विश्व का सबसे विकसित, शक्तिशाली और अमीर देश अमेरिका है; येल, हारवर्ड यूनिवर्सिटी, एम.आई. टी. नासा, संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय, विश्व बैंक जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय -संस्थाएं हैं; विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, नोबल पुरस्कार विजेताओं, मानवाधिकार एक्टिविस्टों , दासता विरोधी आंदोलनकारियों, अंतरिक्ष यात्रियों, धनकुबेरों की बसाहट है। ज़ाहिर है, अमेरिका के नेता भी सर्वश्रेष्ठ होंगे। हमारे भारतीय नेताओं से श्रेष्ठ और रचनात्मक सोचते होंगे। चुनाव प्रचार भी सभ्य -शालीन -सुसंस्कृत होगा। हम भारतीयों की नज़रों में अमेरिकी नेता ‘बेनज़ीर‘ निकलेंगे। उनका हम अनुसरण करेंगे। लेकिन, वर्तमान चुनावों में नेताओं की अदाकारियों और तर्ज़-ए-बयान को देखते हुए जो ‘मिथ’ बना हुआ था, वह भरभराकर गिर पड़ा है। 

लेखक सोच में है कि किस मायने में हम भारतीयों या हिन्दुस्तानियों से अमेरिकी नेता उत्तम हैं? पिछले एक सप्ताह की बयानबाज़ी पर नज़र डालने पर एक ही विचार गूंजता है: तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, यांकी भाई!

अब कुछ रसीले उवाचों पर नज़र डालते हैं:1. नव -नाज़ी या नाज़ी नहीं; 2. हिटलर उपासक -मुसोलिनिवादी; 3. कूड़ा -कर्कट का चलता-फिरता टापू; 4. स्त्री विरोधी; 5. क्राइस्ट विरोधी; 6. चुड़ैल; 7. हैरिस और उसके दलाल अमेरिका को तबाह करेंगे; 8. विरोधी नरसंहारक; 9. आंख के बदले आँख; 9. क्षुद्र तानाशाह ; 10. खेदजनक लोगों की टोकरी; 11. राक्षस; 12. दरिंदा; 13. भीतरी दुश्मन; 14. नस्लवादी -स्त्री द्वेषी आदि -इत्यादि। दोनों पक्षों ने परस्पर निम्नतम सम्बोधनों का प्रयोग किया। इतना ही नहीं, हैरिस और ट्रम्प ने एक -दूसरे को फ़ासीवादी -नाज़ीवादी भी कहा।

ट्रम्प ने बार बार सफाई दी : मैं नाज़ीवादी नहीं हूँ, मैं नाज़ीवाद का विरोधी हूं। दूसरी तरफ ट्रम्प ने हैरिस पर कट्टर वामपंथी, साम्यवादी, मार्क्सवादी, समाजवादी, सोवियत यूनियनवादी जैसे शब्दों को जड़ा।

कमला को सफाई देनी पड़ी: मैं पूंजीपति हूं, पूंजीवादी हूँ, मार्क्सवादी नहीं हूं।

यानी अमेरिका में पांचवें दशक का साम्यवाद- विरोधी मैकार्थीवाद आज भी ज़िंदा है। नेताओं ने अमेरिकी लोगों में साम्यवाद और समाजवाद को लेकर सुनियोजित ढंग से भय और नफ़रत पैदा कर रखा है। इन शब्दों के प्रयोग को आज भी गाली माना जाता है। विरोधी को वामपंथी या सोशलिस्ट कह कर बदनाम किया जाता है। चुनाव प्रचार के शुरू में ट्रम्प ने हैरिस के खिलाफ इस हथियार को ज़मकर भांजा। 

चुनाव प्रचार मंचों और सभाओं के दौरान अभद्र लटके-झटके, अशालीनता, द्विवर्थी शब्दों के प्रयोग, भद्दे मज़ाक़, अश्लील उपमाएं, रूपक,  लक्षणों, प्रतीकों की नुमाईश देखने को मिलती है। हाल ही में न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में अपसंस्कृति छाई रही। आरोप लग रहे हैं कि ट्रम्प और उनके साथियों ने सार्वजनिक व राजनैतिक शालीनता की सीमाओं का बेलग़ाम उल्लंघन किया। ट्रम्प और उनके समर्थकों की अदाओं से नस्लवाद और स्त्री विरोध की बास उठ रही थी। लोग तालियाँ बज़ा रहे थे। राष्ट्र के शिखरतम पद के दावेदार ट्रम्प बेफिक्र थे कि आम जनता पर उनकी हरकतों का क्या असर पड़ेगा। ट्रम्प -जीत का सवाल अब ‘ट्रम्प ब्रांड राजनीति’ के अस्तित्व रक्षा से जुड़ चुका है। ट्रम्प ब्रांड की राजनीति को नस्लवाद, श्वेत वर्चस्ववाद, कॉर्पोरेटवाद, इस्लाम विरोध, बहुलतावाद विरोध, अंध राष्ट्रवाद व चरम व्यक्तिपूजा, विकलांग लोकतंत्र और निरकुंश निर्वाचित अधिनायकवाद का प्रतीक माना जाता है; हाल ही में न्यूयॉर्क में हुई एक बैठक में विभिन्न वित्तीय संस्थाओं के प्रमुखों ने ट्रम्प-वापसी पर चिंता भी व्यक्त की है। 

वास्तव में अमेरिकी समाज का बुरी तरह से ध्रुवीकरण हो चुका है; उदार लोकतंत्र समर्थक और चरम रूढ़िवादी लोकतंत्र। दूसरे शब्दों में, यदि आप ट्रम्प समर्थक नहीं और अमेरिका को महान नहीं बनाना चाहते हैं तो राष्ट्र विरोधी हैं। एक प्रकार से, डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिका के पर्याय के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। अब हम इन तमाम अमेरिकी चुनावी लक्षणों को लेकर भारतीय परिदृश्य में झांकें तो कई सादृश्यताएं दिखाई देंगी:1. दी…. ओ दीदी, 2. मंगलसूत्र बेच देंगे, 3. पशु खोलकर ले जायेंगे, 4. देश के गद्दारों को गोली मारो …को, 5. बँटोगे तो कटोगे, 6. श्मसान और कब्रिस्तान, 7. कपड़ों से पहचान, 8. जय श्रीराम बोलो, नहीं तो पाकिस्तान चले जाओ, 9. मैं नॉन- बायोलॉजिकल हूं, ईश्वर के मिशन पर हूं, 10. मोदी ईश्वर के अवतार हैं, 11. मोदी समर्थक या राष्ट्र विरोधी, 12. आस्था और ईश्वर प्रेरणा से फ़ैसला आदि। 

यदि भारतीय समाज का ध्रुवीकरण कर दिया गया है तो किस मायने में यह अमेरिका से पिछड़ा है? अमेरिका की तुलना में भारत में अनपढ़, अशिक्षित, निर्धन, अंधविश्वासी, पिछड़ापन कहीं अधिक हैं। अमेरिका 18वीं सदी में ब्रिटिश दासता से आज़ाद हुआ था, जबकि भारत 1947 में हुआ। लेकिन, क्या अमेरिका मानसिक रूप से आधुनिक है? क्या उसकी सार्वजनिक जीवन शैली में विवेक संगत आधुनिकता और लोकतांत्रिकता प्रतिबिंबित हो रही है? भारत को तो अभी तक पिछड़ा या विकासशील देशों की कतार में समझा जाता है। लेकिन, सार्वजनिक व्यवहार की दृष्टि से लेखक को ‘मोदी और ट्रम्प’ साझा मंच पर खड़े नज़र आते हैं! तभी तो नज़्म गूंजती है : तुम बिल्कुल हम जैसे निकले यांकी भाई! (शायरा से माफ़ी के साथ)

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