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कौन लोग हैं जो दिवाली को रोशनी से अलग करना चाहते हैं?

कौन लोग हैं जो दिवाली को रोशनी से अलग करना चाहते हैं?

केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह को ‘जश्ने रोशनी’ और ‘जश्ने आभा’ जैसे नामों से क्यों आपत्ति है? हैप्पी दिवाली या हैप्पी होली पर एतराज़ क्यों नहीं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को बीते दस साल से अलग-अलग ओहदों में रहते हुए सुशोभित कर रहे कपड़ा मंत्री गिरिराज सिंह को ‘जश्ने रोशनी’ और ‘जश्ने आभा’ जैसे नामों में दिवाली के इस्लामीकरण का ख़तरा नज़र आता है। इस दिवाली पर आईआईटी कानपुर के कुछ छात्रों ने जो समारोह किया, उसके निमंत्रण पत्र पर उन्होंने ‘जश्ने रोशनी’ लिखा। इसी तरह लेडी श्रीराम कॉलेज में दिवाली के मौक़े पर ‘जश्ने आभा’ हुआ। केंद्रीय मंत्री को इन दोनों शब्दों पर एतराज़ है। 

गिरिराज सिंह की सांप्रदायिक राजनीतिक दृष्टि से सब परिचित हैं, इसलिए उनके इस बयान पर किसी को हैरान नहीं होना चाहिए। लेकिन इस सांप्रदायिक राजनीति के पीछे जो सांस्कृतिक दृष्टि सक्रिय है, वह ज़रूर चिंतित करने वाली है। यह दृष्टि मान कर चलती है कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की। गिरिराज सिंह जैसी विद्वतापूर्ण बातें करने वाले कुछ दूसरे लोगों को दिवाली या होली के अवसर पर मुबारक कहना बुरा और पराया लगता है। जाहिर है, इस मान्यता को उन लोकप्रिय माध्यमों से भी बल मिला है जहां मुसलमान उर्दूनिष्ठ हिंदी और हिंदू संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलते देखे जाते हैं।

दरअसल, भाषा के सांप्रदायीकरण की यह राजनीति पुरानी है जो इतिहास की अवहेलना और तथ्यों की उपेक्षा करते हुए विकसित हुई है। सच तो यह है कि हिंदी और उर्दू एक ही भाषाएं हैं जिन्हें दो लिपियों में लिखने का चलन है। हम अपने घरों में जो भाषा बोलते हैं, वह ज़्यादातर उन शब्दों से बनी है जिन्हें हम उर्दू का मानते हैं। मसलन, हम कोशिश करते हैं, प्रयास नहीं करते, हम बदलाव चाहते हैं परिवर्तन नहीं, हम बहादुरी दिखाते हैं वीरता नहीं, हममें ताक़त और हिम्मत होती है शक्ति और साहस नहीं। ऐसे शब्द सैकड़ों में नहीं, हज़ारों और लाखों में हैं जो दोनों अलग-अलग कही जाने वाली भाषाओं में इस तरह घुले हुए हैं कि उन्हें अलगाना संभव नहीं है। 

कुछ उर्दू माने जाने वाले शब्द तो ऐसे हैं जिनका संस्कृतनिष्ठ हिंदी में विकल्प तक नहीं है। मसलन ‘ईमान’ या ‘ईमानदार’ के लिए या ‘तबीयत’ के लिए कोई कायदे का सहज संस्कृतनिष्ठ शब्द मिलना मुश्किल है। इस वाक्य में आए ‘कायदे का’ और ‘मुश्किल’ इनके संस्कृतनिष्ठ विकल्पों ‘उचित’ और ‘कठिन’ के मुक़ाबले हमारे भाषिक व्यवहार के ज़्यादा क़रीब हैं (निकट के मुक़ाबले करीब भी)। सच तो यह है कि यह ‘हिंदू’ शब्द भी उसी परंपरा की कोख से निकला है जिससे उर्दू निकली है। 

इस बात पर भी एक नज़र डाल लेनी चाहिए कि हिंदुत्ववादी राजनीति जिन्हें इतिहास में हिंदू और मुस्लिम प्रतीकों के रूप में देखने पर तुली है, वे कैसी भाषाएं बोलते थे। क्या अकबर उर्दू बोलता था और क्या राणा प्रताप की भाषा तत्समनिष्ठ हिंदी थी? ‘मुगले आज़म’ और ‘अनारकली’ जैसी फिल्मों के संवाद सुनते हुए शायद हमारे भीतर यह वहम पैदा हुआ है। लेकिन सच यह है कि महाराणा प्रताप की भाषा राजस्थानी रही होगी और अकबर दिल्ली वाली उस खिचड़ी बोली में अपनी बात रखता था जिससे आने वाले दिनों में आधुनिक मानी जाने वाली भारतीय भाषाएं विकसित हुईं। अकबर की भाषा का कुछ अंदाज़ा लेना हो तो शाज़ी ज़मां का उपन्यास अकबर पढ़ना चाहिए जिसमें तथ्यों की प्रामाणिकता का इतना ध्यान रखा गया है कि वह इतिहास मालूम होता है।

सच तो यह है कि आज भी न तो आम मुसलमान उर्दू बोलते हैं और न ही आम हिंदू तत्समनिष्ठ हिंदी। कहीं वे अवधी बोलते दिखते हैं कहीं ब्रज और कहीं भोजपुरी या मगही। इन दिनों जो नए पढ़े-लिखे आधुनिक महानगरीय घर बन रहे हैं, वहां के बच्चे अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी बोलते हैं जिसका कोई सांस्कृतिक अतीत नहीं दिखता।

ऐसे अवसर शमशेर को याद करने के लिए होते हैं। हिंदी के इस उदात्त कवि के वैसे तो काफी कुछ है जिसे उद्धृत किया जा सकता है, लेकिन यहां उनकी कविता पंक्ति अलग सी रोशनी देती है-

‘मैं हिंदी और उर्दू का दोआब हूं / मैं वो आईना हूं जिसमें आप हैं।‘

उर्दू साहित्य के इतिहास पर केंद्रित अपनी किताब में फिराक़ गोरखपुरी ने ऐसे सैकड़ों शब्द-युग्म गिनाए हैं जिनमें एक शब्द संस्कृत का और दूसरा फ़ारसी का है।  

दरअसल गिरिराज सिंह को इतिहास और साहित्य का आईना नहीं, वाट्सऐपीय सूचनाओं का दर्पण चाहिए जिसमें उनके काल्पनिक जगत का प्रतिबिंब उन्हें दिखता रहे। फिर दुहराना होगा कि इस अवतल दर्पण की तलाश अकेले गिरिराज सिंह को नहीं रही है, उनके पहले से सक्रिय एक पूरी दृष्टि यही देखना चाहती रही है। संकट बस इतना है कि पहले यह वाकई हाशिए के लोग थे जिन्हें कुछ कम पढ़ा-लिखा या पूर्वग्रही मान कर छोड़ा जा सकता था। लेकिन अब वे सत्ता में हैं और भाषा और शिक्षा की नीतियां तय कर रहे हैं। जाहिर है, वे उर्दू और हिंदी दोनों को चोट पहुंचा रहे हैं। क्योंकि जाने-अनजाने वे सिर्फ उर्दू को मुसलमानों की भाषा ही नहीं ठहरा रहे, हिंदी को भी हिंदू सांप्रदायिकता का हथियार बना रहे हैं। यह सच है कि अतिरिक्त संस्कृतनिष्ठ या ततस्म हिंदी लिखने का आग्रह कहीं-कहीं इस दृष्टि से संचालित होता रहा है, लेकिन यह भी सच है कि हमारे बहुत सारे लेखकों और कवियों ने इसी भाषा में बहुत गहरी और संवेदनशील रचनाएं की हैं। 

चिंता की बात यह भी है कि मंत्री के एतराज़ की ख़बर मिलते ही आईआईटी में चल रहे कार्यक्रम में जश्ने रोशनी शब्द हटा लिया गया। दरअसल, हमारे शिक्षा संस्थानों का प्रबंधन बीते कुछ वर्षों में ऐसा सरकारी मुखापेक्षी हुआ है कि वह अपने संकीर्ण और सांप्रदायिक होते चले जाने पर शर्मिंदा तक नहीं होता। सही बात कहने की सज़ा छात्रों को भुगतनी पड़ती है। 

हैरानी की बात यह है कि गिरिराज सिंह को जश्ने रोशनी पर तो एतराज़ है, हैप्पी दिवाली या हैप्पी होली पर नहीं। उनके औपनिवेशिक मानस में अंग्रेजी ऐसे प्रभु वर्ग की भाषा के रूप में बसी हुई है जिससे या तो डरा जाए या फिर जिसका अनुकरण किया जाए। इस खाती-पीती अंग्रेज़ी के आगे हिंदी-उर्दू- और अब तो दूसरी भारतीय भाषाएं भी- ग़रीब बहनों की तरह लगती हैं जो अपने-अपने अभावों की कुंठा में कभी-कभी एक-दूसरे से झगड़ पड़ती हैं। वैसे, हमारा झगड़ा अंग्रेजी से भी नहीं होना चाहिए- अंग्रेजी ने हमें काफी कुछ मूल्यवान दिया है। लेकिन जब भाषाएं राजनीति के औज़ार की तरह इस्तेमाल की जाएं, वे एक तबके के विशेषाधिकार की घोषणा या दूसरे तबके के उपहास की वजह बनाई जाने लगें, जब उनको हिंदू और मुसलमान की पोशाक पहनाई जाने लगे तो इसका विरोध ज़रूरी है। दिवाली जैसे रोशनी के त्योहार को ऐसी संकीर्णता से बचाया जाना तो और ज़रूरी है। 

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