रामजन्मभूमि का सवाल पिछले कई महीनों से राजनीतिक विमर्श की मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रही भारतीय जनता पार्टी अब उस विषय को उतना महत्व नहीं दे रही है जितना मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों की तैयारी के पहले दे रही थी। इसका कारण शायद यह है कि अब बीजेपी को यह अंदाज़ा लग गया है कि अयोध्या के विवाद को मुद्दा बनाने से अब उतना राजनीतिक लाभ नहीं मिल रहा है जो अब तक मिला करता था। पाँच विधानसभा चुनावों की तैयारी के दौरान तो आरएसएस और बीजेपी के नेता, दिन-रात रामजन्म भूमि और मुसलिम विरोध को अपनी बातचीत का थीम साँग बनाकर चल रहे थे। राज्य सभा और लोकसभा में उनकी पार्टी के नेता प्राइवेट मेम्बर बिल लाने की बात कर रहे थे।
इस बात में दो राय नहीं है कि आज देश में बड़े पैमाने पर राजनीतिक लाभ के लिए जो धार्मिक ध्रुवीकरण हुआ है उसमें 1992 में अयोध्या में बाबरी मसजिद के विध्वंस की वारदात का बड़ा योगदान है। चुनावी लाभ के लिए 2019 के चुनावों के पहले बड़े स्तर पर बाबरी मसजिद के विध्वंस को मुद्दा बनाया जाना था लेकिन पाँच विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार ने उनको फिर से सोचने को मजबूर कर दिया है। अब अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए अध्यादेश लाने की बात भी नहीं की जा रही है। ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि सरकार और बीजेपी को मालूम है कि देश के सभी हिन्दू आरएसएस के साथ नहीं हैं, बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू आरएसएस के विरोधी हैं और वे अगर लामबंद हो गए तो सत्ता जा भी सकती है।
वास्तव में इस देश का आम हिन्दू धार्मिक झगड़ा-झंझट से दूर रहना चाहता है। यह बात दिसंबर 1992 में देश ने बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से इतिहास के माथे पर लिख दिया था। जब बाबरी मसजिद का विध्वंस हुआ उसके पहले देश में मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त माहौल बनाया गया था। उसी दौर में साम्प्रदायिकता के विरोध में एक नया संगठन तैयार हो रहा था।
- थियेटर और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले एक नौजवान, सफ़दर हाशमी की कुछ कांग्रेसी गुंडों ने बहुत ही बेरहमी से 1989 में ह्त्या कर दी थी। उसकी याद में बने संगठन, सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) ने 1989 से ही सेकुलर ताक़तों को लामबंद करना शुरू कर दिया था।
जब बाबरी मसजिद ज़मींदोज़ की गई तो उसके साथ ही बहुत बड़े पैमाने पर देश में विरोध शुरू हो गया। एक संगठन के रूप में सहमत विरोध के उस अभियान में सबसे आगे था। 1992 में जिन लोगों ने अयोध्या में एक मध्य युगीन मसजिद को ज़मींदोज़ किया था उन्होंने उसके साथ ही बहुत कुछ ज़मींदोज़ कर दिया था। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई की उस परंपरा को ढहा दिया था जिसे महात्मा गाँधी ने आंदोलन का मक़सद बताया था। दरअसल, धर्मनिरपेक्षता भारत की आज़ादी के संघर्ष का इथास थी। इसीलिये धार्मिक उन्माद फैलाने की कोशिश करने वाली उस घटना का विरोध हुआ।
- महात्मा गाँधी की समाधि पर जब मदर टेरेसा के साथ देश भर से आए धर्मनिरपेक्ष लोगों ने माथा टेका तो लगता था कि अब अपना देश तबाह होने से बच जाएगा। बिना किसी तैयारी के शांतिप्रेमी लोग वहाँ इकठ्ठा हुए और समवेत स्वर में ‘रघुपति राघव राजाराम’ की टेर लगाते रहे। मेरी नज़र में महात्मा गांधी के दर्शन की उपयोगिता का यह प्रैक्टिकल सबूत था। सहमत ने बहुत बड़े पैमाने पर उन लोगों को लामबंद कर दिया जो देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंकने के ख़िलाफ़ थे।
सहमत ने देश की सामूहिक चेतना को एक प्रतिरोध के आन्दोलन का रूप दे दिया। बाबरी मसजिद के विध्वंस के अगले दिन सात दिसंबर को बुद्धिजीवियों का एक प्रतिनधिमंडल, सहमत की अगुवाई में राष्ट्रपति से मिला और देश के ग़म-ओ-ग़ुस्से का इज़हार किया। कबीर और रैदास की कविताओं के दो लाख पोस्टर जारी किए गए। 11 दिसम्बर को दिल्ली के मंडी हाउस के पास बड़ा विरोध किया गया। "आज कोई नारा न होगा, देश बचाना होगा" के पोस्टर लेकर बड़ी संख्या में लोगों ने विरोध किया। 25 दिसम्बर से 1 जनवरी तक दिल्ली में संत कवियों और सूफ़ी परंपरा के कलाकारों का बड़ा आयोजन हुआ। "अनहद गरजै" नाम के एक आयोजन में देश भर से लोग शामिल हुए और आम जनमानस की एकजुटता का सबूत एक बार फिर दे दिया गया। तब से सहमत साम्प्रदायिकता के विरोध में आन्दोलन चला रहा है। देश की सेकुलर थाती को संभाल कर रखने के लिए एक सहमत हर साल 1 जनवरी को दिल्ली में विशेष आयोजन करता है।
बाबरी मसजिद ढहने का असर
बाबरी मसजिद को ढहाने के बाद आरएसएस ने कट्टर हिन्दूवाद को चुनाव जीतने वाली एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में स्थापित कर दिया था। आरएसएस के लोग इस योजना पर बहुत पहले से काम कर रहे थे। दुनिया जानती है कि आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस के लोग शामिल नहीं हुए थे। आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी की हत्या के बाद आरएसएस के ऊपर प्रतिबन्ध लगा था। बाद में 1975 में भी इन पर पाबंदी लगी थी लेकिन इनका काम कभी रुका नहीं। आरएसएस के लोग पूरी तरह से अपने मिशन में लगे रहे। डॉ. लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के सहारे इन लोगों को राजनीतिक सम्मान दिलवाया था। जब 1967 में मिलीजुली संविद सरकारों का प्रयोग हुआ तो आरएसएस की राजनीतिक शाखा का नाम भारतीय जनसंघ हुआ करता था। उस पार्टी के लोग कई राज्य सरकारों में मंत्री बने। बाद में जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोग उसमें सबसे ज़्यादा संख्या में थे। उसके साथ ही आरएसएस की राजनीति मुख्यधारा में आ चुकी थी। 1977 में जब लालकृष्ण आडवानी सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो बड़े पैमाने पर आरएसएस के कार्यकर्ताओं को अख़बारों में भर्ती करवाया गया।
जब 1992 में बाबरी मसजिद को तबाह किया गया तो उत्तर भारत के अधिकतर हिंदी अख़बारों में आरएसएस के लोग भरे हुए थे। उन लोगों ने ऐसा माहौल बनाया जैसे बाबरी मसजिद को ढहाने वालों ने कोई बहुत भारी वीरता का काम किया हो।
कुल मिलाकर माहौल ऐसा जा रहा था गोया धर्मनिरपेक्ष होना किसी अपराध में शामिल होने जैसा हो।
आरएसएस ने बहुत पहले से देश को साम्प्रदायिक लाइन पर बांटने का काम शुरू कर दिया था। 1857 में अंग्रेजों की हुकूमत के ख़िलाफ़ जो एकता दिखी थी, उस से ब्रितानी साम्राज्यवाद की चिंताएँ बढ़ गयी थीं। हिन्दू और मुसलमान की एकता को ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने बहुत सारे तरीक़े अपनाए। जब अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1920 में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हिन्दू और मुसलमान फिर लामबंद हो गए तो इस एकता को ख़त्म करने के लिए साम्राज्य ने सक्रिय हस्तक्षेप की योजना पर काम करना शुरू कर दिया। 1920 के आन्दोलन के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटेन को भारत की अवाम की ताक़त से दहशत पैदा होने लगी थी। उसने भारत में सांस्कृतिक हस्तक्षेप के लिए सक्रिय कोशिश शुरू कर दी। अंग्रेज़ों के वफ़ादारों की फ़ौज में ताज़े ताज़े भर्ती हुए पूर्व क्रांतिकारी, वी. डी. सावरकर ने 1923-24 में अपनी किताब "हिन्दुत्व-हू इज ए हिन्दू" लिखी जिसे आगे चल कर आम आदमी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भोथरा करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला था। इसी दौर में सावरकर की किताब को आधार बनाकर आरएसएस की स्थापना हुई जिसके सबसे मह्त्वपूर्ण उद्देश्यों में पिछले हज़ार साल की ग़ुलामी से लड़ना बताया गया था।- इसका मतलब यह हुआ कि गाँधी जी के नेतृत्व में जो पूरा देश अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लामबंद हो रहा था, उसका ध्यान बँटा कर उसे मुसलमानों की सत्ता के ख़िलाफ़ तैयार करना था। ज़ाहिर है इस से अंग्रेज़ को बहुत फ़ायदा होता क्योंकि उसके ख़िलाफ़ खिंची हुई भारत के अवाम की तलवारें अंग्रेज़ों से पहले आए मुसलिम शासकों को तलाशने लगतीं और अंग्रेज़ मौज़ से अपना राजकाज चलाता रहता। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत सावरकर की इसी किताब से निकलता है।
आरएसएस और सावरकर की हिन्दू महासभा के ज़रिये, अवाम को बाँटने की अंग्रेज़ की इस कोशिश से महात्मा गाँधी अनभिज्ञ नहीं थे। शायद इसीलिए उन्होंने अपने आन्दोलन में सामाजिक परिवर्तन की बातें भी जोड़ दीं। लेकिन दंगों की राजनीति का इस्तेमाल करके हिन्दू और मुसलमानों की एकता को खंडित करने में ब्रितानी साम्राज्य को सफलता मिली। महात्मा गाँधी की ह्त्या के बाद कांग्रेस के नेता सरकार में व्यस्त हो गए और अवाम को एकजुट रखने की कोशिशें बैकबर्नर पर चली गईं। नतीजा सामने है। साम्प्रदायिक ताकतें एकजुट हुईं। बाबरी मसजिद का काण्ड हुआ।अयोध्या के विध्वंस के बाद देश में साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ आन्दोलन की ज़रूरत महसूस की गई और सहमत ने उसको एक दिशा दी। उसके लोग इस काम में दिन रात लगे हुए हैं। उनको समर्थन दिया जाना चाहिए।