उच्चतम न्यायालय के द्वारा आरक्षण को लेकर सुनाया गया एक ताज़ा फ़ैसला वंचित तबक़े को निराश करने वाला है। शीर्ष न्यायालय के फ़ैसले से लगता है कि उसने अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) तबक़े को मिलने वाला आरक्षण सरकार के हवाले कर दिया है। सरकार चाहे तो आरक्षण दे और अगर न चाहे तो वह पहले से चला आ रहा आरक्षण ख़त्म कर दे, न्यायालय उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले में कहा गया है कि अनुच्छेद 16 सरकार को आरक्षण का प्रावधान करने को बाध्य नहीं करता। हालांकि ऐसे तमाम लोगों को यह वक्तव्य नया या अद्भुत लग सकता है, जिन्होंने संविधान नहीं पढ़ा है। संविधान का अनुच्छेद 16 क्या है, पहले यह शब्दशः जान लें।
16. लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता
(1) राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी।(2) राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न ही उससे कोई विभेद किया जाएगा।
(3) इस अनुच्छेद की कोई बात संसद को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र की सरकार के या उसमें से किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन वाले किसी वर्ग या वर्गों के पद पर नियोजन या नियुक्ति के संबंध में ऐसे नियोजन या नियुक्ति से पहले उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के भीतर निवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती हो।
(4) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
4 (क) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है। राज्य अपनी सेवाओं में किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर, पारिणामिक ज्येष्ठता सहित (प्रोन्नति के मामलों में) आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
4 (ख) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को किसी वर्ग में किन्हीं न भरी गई ऐसी रिक्तियों को जो खंड (4) या खंड 4 (क) के अधीन किए गए आरक्षण के लिए किसी उपबंध के अनुसार उस वर्ष में भरी जाने के लिए आरक्षित हैं, किसी उत्तरवर्ती वर्ष या वर्षों में भरे जाने के लिए पृथक वर्ग की रिक्तियों के रूप में विचार करने से निवारित नहीं करेगी और ऐसे वर्ग की रिक्तियों पर उस वर्ष की रिक्तियों के साथ जिसमें वे भरी जा रही हैं, उस वर्ष की रिक्तियों की कुल संख्या के संबंध में 50 प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा का अपधारण करने के लिए विचार नहीं किया जाएगा।
(5) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी जो यह उपबंध करती है कि किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था के कार्यकलाप से संबंधित पदधारी या उसके शासी निकाय का कोई सदस्य किसी विशिष्ट धर्म को मानने वाला या विशिष्ट संप्रदाय का ही हो।
(6) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को विद्यमान आरक्षण के अतिरिक्त तथा प्रत्येक प्रवर्ग में पदों के अधिकतम 10 प्रतिशत के अध्यधीन, खंड 4 में उल्लिखित वर्गों से भिन्न नागरिकों के आर्थिक रूप से दुर्बल किन्ही वर्गों के पक्ष में नियुक्तियों और पदों के आरक्षण के लिए कोई उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
संविधान में दिए गए समता के अधिकार का यह अनुच्छेद जितना चर्चित रहा है, उतनी चर्चा किसी अन्य अनुच्छेद पर नहीं हुई है। इस अनुच्छेद में समय-समय पर विवाद होने पर संसद ने स्पष्टीकरण जोड़ा है। जब वंचितों को आरक्षण देने की बात आई तो कहा गया कि यह 16 (1) का उल्लंघन है। फिर उसमें पहला संशोधन हुआ। अनुच्छेद 16 को 1 से 6 तक पढ़ने पर स्पष्ट होता है कि विभिन्न सरकारों ने इसमें उपखंड जोड़कर वंचितों को हक़ दिया और छठे नंबर का आख़िरी उपखंड जोड़कर नरेंद्र मोदी सरकार ने ग़रीब सवर्णों को आरक्षण दिया था।
अब उच्चतम न्यायालय के ताज़ा फ़ैसले पर आते हैं। जस्टिस एल. नागेश्वर राव और हेमंत गुप्ता की पीठ ने कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि राज्य सरकार आरक्षण देने को बाध्य नहीं है। ऐसा कोई मूल अधिकार नहीं है, जिसके आधार पर कोई व्यक्ति प्रमोशन में आरक्षण का दावा कर सके। न्यायालय कोई परमादेश नहीं जारी कर सकता है, जिसमें राज्य को आरक्षण देने का निर्देश दिया गया हो।”
स्पष्ट है कि न्यायालय ने जो कहा है, वह अनुच्छेद 16 के प्रावधानों के अनुरूप ही है। अनुच्छेद 16 (4) में कहा गया है कि कोई भी प्रावधान वंचितों को आरक्षण देने से रोकता नहीं है, यह नहीं लिखा हुआ है कि सरकार को आरक्षण देना ही होगा।
क्या था मामला
अब उस मामले को समझते हैं, जिसे शीर्ष न्यायालय के सामने लाया गया था। इसे देखने पर उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले पर संतोष नहीं होता। मामला यह था कि उत्तराखंड सरकार ने 5 सितंबर, 2012 को सरकारी सेवाओं के सभी पद अनुसूचित जाति एवं जनजाति को आरक्षण दिए बगैर भरने का फ़ैसला किया। मामला न्यायालय में जाने पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सरकार की अधिसूचना को खारिज कर दिया और सरकार को निर्देश दिए कि वह इन सरकारी नौकरियों की रिक्तियों में वर्गीकृत श्रेणी के मुताबिक़ आरक्षण कोटे का प्रावधान करे।
उच्च न्यायालय का फ़ैसला बिल्कुल साफ था कि राज्य में अगर सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान है तो संबंधित वर्गों को आरक्षण मिलना चाहिए। सरकार ने प्रावधानों के मुताबिक़ आरक्षण नहीं दिया था।
यह मामला उच्चतम न्यायालय में आया तो शीर्ष न्यायालय ने यह फ़ैसला किया है कि अनुच्छेद 16 राज्य सरकार को बाध्य नहीं करता है कि वह आरक्षण मुहैया कराए। उच्चतम न्यायालय का यह फ़ैसला इसलिए निराश करने वाला है कि यहां अनुच्छेद 16 का मसला था ही नहीं। अनुच्छेद 16 का इस्तेमाल करते हुए पहले ही अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। मसला यह था कि पहले से तय आरक्षण के नियमों के मुताबिक़ सरकार ने आरक्षण मुहैया नहीं कराया, जिसे लेकर न्यायालय से न्याय की गुहार की गई थी। उच्चतम न्यायालय ने उस गुहार को खारिज करते हुए सरकार की 5 सितंबर की अधिसूचना को बरकरार रखा और उच्च न्यायालय के फ़ैसले को रद्द कर दिया।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अगर सरकार ऐसा पाती है कि किसी वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है तो वह पदों पर आरक्षण दे सकती है या प्रमोशन में आरक्षण दे सकती है। साथ ही यह भी जोड़ा है, “अगर एससी-एसटी का प्रतिनिधित्व कम भी है और यह उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में लाया जाता है तो इस न्यायालय द्वारा कोई परमादेश नहीं जारी किया जा सकता है कि राज्य सरकार आरक्षण मुहैया कराए।”
कुल मिलाकर मामला वहीं पहुंच गया है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। अगर सरकार वंचित तबक़े की है, उसके हित के बारे में सोचने वाली है तो वह आरक्षण का प्रावधान करेगी और अगर पूंजीपतियों और सामंतों की सरकार है तो वह उनके लिए काम करेगी। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पहली ऐसी सरकार है, जिसने सवर्णों को आरक्षण देने के लिए संविधान में बदलाव किया, उसके पहले सिर्फ वंचित तबक़े को संरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन किया गया था।
उच्चतम न्यायालय के आदेश से तो ऐसा लगता है कि उसने यह साफ कर दिया है कि एससी, एसटी ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत, 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान होने के बावजूद सरकार स्वतंत्र है कि वह आरक्षण मुहैया कराए या नहीं।
उच्चतम न्यायालय के आदेश से यह भी लगता है कि सरकार के फ़ैसले को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है, भले ही क़ानून कुछ भी रहा हो। नरेंद्र मोदी सरकार के वकील रंजीत कुमार, मुकुल रोहतगी और पीएस नरसिम्हा यह मामला जीत गए हैं। अगर उत्तराखंड सरकार के फ़ैसले से इतर इसे व्यापक रूप से देखें तो नरेंद्र मोदी सरकार ओबीसी, एससी, एसटी के आरक्षण को यह कहते हुए पूरी तरह से ख़त्म कर सकती है कि पहले की सरकारों को लगता था कि इस तबक़े का प्रतिनिधित्व नहीं है और अब हमारी सरकार को लग रहा है कि इस तबक़े को प्रतिनिधित्व मिल गया है और शीर्ष न्यायालय सरकार के इस फ़ैसले में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
वंचित तबक़े की ओर से पक्ष रख रहे वकील कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे और आदिवासियों का केस लड़ने के मामले में मशहूर रहे कोलिन गोंजालविस यह मुक़दमा हार गए हैं।
ओबीसी, एससी, एसटी के सामने आरक्षण पाने, उसे बचाए रखने का एकमात्र तरीक़ा यह लगता है कि वह अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार को चुने। सरकार ही फ़ैसला कर सकती है कि वंचितों को आरक्षण देना है या नहीं, किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व है या नहीं। शीर्ष न्यायालय इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।