पूर्व केंद्रीय क़ानून मंत्री व सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने यह कहकर एक नई चर्चा को जन्म दे दिया है कि देश में अगर राजनैतिक दल बदल को प्रभावी ढंग से रोकना है तो भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची में पर्याप्त संशोधन कर यह क़ानून बनाना चाहिए कि जिस भी विधायक या सांसद को दल बदल क़ानून के अंतर्गत अयोग्य घोषित किया जाता है तो उसकी किसी भी सार्वजनिक पद पर अगले 5 साल तक नियुक्ति नहीं हो। इसके अलावा वह अगले पाँच साल तक किसी भी चुनाव में भाग नहीं ले सके।
2014 से केंद्र की मोदी सरकार पर राज्यों की कांग्रेस की सरकारों को चुराने का आरोप लगता रहा है। पूरे देश की जनता ने देखा कि किस प्रकार से कांग्रेसी विधायकों की ख़रीदारी के बल पर गोवा, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, कर्नाटक या मध्य प्रदेश में बीजेपी ने अपनी सरकारें बनाई हैं। यह बात अलग है कि 'ख़रीदारी' के साक्ष्य आम जनता द्वारा ढूँढना लगभग असंभव ही है।
मार्च 2020 में अपनी इसी 'जादूगरी' के चलते बीजेपी ने मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार को चलता कर अपनी सरकार वहाँ पर क़ायम की है। कुछ ऐसा ही प्रयास अब राजस्थान में हो रहा है। कांग्रेस नेता व कुछ राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी की इस रणनीति को 'सरकार चुराने’ जैसे शब्दों से सम्बोधित कर रहे हैं। इस तथ्य को किसी भी प्रमाण की ज़रूरत नहीं है कि बीजेपी ने पिछले छह सालों से धनबल, प्रलोभन या सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग के माध्यम से कांग्रेसी विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल कर विभिन्न राज्यों में अपनी सरकारें बनाई हैं। यह दल बदल सत्तर व अस्सी के दशक में देश भर में व्याप्त ‘आया राम, गया राम’ के राजनैतिक दौर की याद करा रहा है।
इसी ‘आया राम, गया राम’ संस्कृति से निपटने के लिए 1985 में केंद्र की राजीव गाँधी सरकार ने 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से विधायक या सांसदों का दल-बदल रोकने के लिए दल-बदल विरोधी क़ानून को बनाया गया। 1985 में जब यह बिल संसद में प्रस्तुत किया गया था तो इस बिल को लाने या ज़रूरत के बारे में लिखित रूप में कहा गया था कि राजनैतिक दल-बदल एक राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा है, यदि इस बीमारी पर काबू नहीं पाया गया तो भारतीय लोकतंत्र की जड़ें ही खोखली हो जाएँगी।
दल-बदल रोकने के लिए जो बात 1985 में कही गयी थी, आज भी वह क़ायम है, बस दल-बदल का स्वरूप बदल गया है। आज दल बदल राजनीति का वर्तमान स्वरूप अस्सी के दशक से भी ज़्यादा भयानक और असंवेदनशील हो गया है।
साठ, सत्तर या अस्सी के दशक में जब कभी भी किसी ने भी दल बदल का प्रयास किया, तत्कालीन मीडिया ने उसका कभी भी समर्थन नहीं किया तथा उसे प्रजातंत्र के ख़िलाफ़ बताया लेकिन आज का मीडिया दल बदल को ‘चाणक्य चतुराई’ बताने की कोशिश करता है। ऐसे में चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से जनता ने विधानसभा या संसद के चुनाव में जिस किसी भी दल के पक्ष में अपना जनादेश दिया है, वह बिलकुल बेमानी होता जा रहा है!
दल-बदल विरोधी क़ानून में संशोधन
1985 में दल-बदल विरोधी क़ानून के लागू होने के बाद इस क़ानून में अनेकों बार संशोधन होते रहे हैं तथा अनेकों बार इस क़ानून से जुड़े मुद्दे सुप्रीम कोर्ट में आते रहे हैं। रवि नाइक बनाम केंद्र सरकार, जी. विश्वनाथन बनाम अध्यक्ष, तमिलनाडु विधान सभा, राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्या जैसे केसों से लेकर किहोटो होलोन बनाम जचिल और अन्य, अवतार सिंह भड़ाना बनाम कुलदीप सिंह बिश्नोई, राजेश वर्मा बनाम मोहम्मद शाहिद अख़लाक़, मन्नाडी सत्यनारायण रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश विधानसभा और हाल ही के दिनों में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आदि जैसे राज्यों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दल-बदल विरोधी क़ानून के अलग-अलग पहलू पर बहस हुई है तथा सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर दल-बदल क़ानून को वैध ठहराते हुई उसके अनेक बिंदुओं पर अपनी वैधानिक व्याख्या दी है।
लेकिन, उसके बाद भी कटु सचाई यही है कि यह क़ानून देश में राजनैतिक दल-बदल रोकने में पूरी तरह से असफल रहा है। परिणाम साफ़ है- हॉर्स ट्रेडिंग का यह राजनैतिक व्यापार आज भी खुलेआम खेला जा रहा है।
वर्तमान में देश में राजनीतिक दल परिवर्तन की भयावह स्थिति को देखते हुई ही सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपने एक निर्णय में समाजशास्त्री आंद्रे बेते को उद्धरित करते हुई कहा-
‘एक संसदीय प्रजातंत्र में संसदीय मर्यादा को पालन करने की ज़िम्मेदारी सरकार व विपक्ष दोनों की एक समान होती है। लेकिन भारत में किसी राजनीतिक दल द्वारा संसदीय मर्यादा के दो अलग-अलग अर्थ होते हैं- जब वह राजनीतिक पार्टी सत्ता में होती है तब उसके लिए संसदीय मर्यादा की परिभाषा अलग होती है लेकिन जब वही पार्टी विपक्ष में होती है तो राजनीतिक मर्यादा की परिभाषा दूसरी हो जाती है। आम धारणा के अनुसार राजनीतिक दलों का यह व्यवहार अमर्यादित है।’
सुप्रीम कोर्ट ने 13 नवंबर 2019 को कर्नाटक के श्रीमंत बालासाहेब पाटिल बनाम अध्यक्ष कर्नाटक विधानसभा नामक केस में विधानसभा अध्यक्ष द्वारा पारित उक्त आदेश को तो वैध ठहराया जिसमें उन्होंने बाग़ी विधायकों को अयोग्य घोषित किया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन विधायकों की अयोग्यता की अवधि, जो कि राज्य की 15वीं विधानसभा की अवधि तक थी, को समाप्त कर दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि विधायक अयोग्य होने के बावजूद फिर से चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हो गए।
साफ़ है यदि हमें देश में संसदीय प्रजातंत्र को क़ायम रखना है तो हमें जल्दी ही संविधान की दसवीं अनुसूची में पर्याप्त संशोधन कर यह प्रावधान लागू करना होगा कि यदि कोई विधायक या सांसद दल बदल विरोधी क़ानून के अंतर्गत अयोग्य घोषित होता है तो उसकी किसी भी सार्वजनिक पद पर अगले 5 वर्षों तक नियुक्ति नहीं होनी चाहिये। साथ ही उस पर अगले पाँच साल तक किसी भी चुनाव में भाग लेने पर भी पाबंदी हो। यदि हमें देश में संसदीय प्रजातंत्र को कायम रखना करना है तो केंद्र सरकार व देश के सांसदों का यह दायित्व है कि वह जल्द से जल्द इस क़ानून को संसद में पास करवाएँ।