यूपी विधानसभा चुनाव में बमुश्किल 6 माह का वक़्त बाक़ी है। तमाम राजनीतिक दल चुनावी गोटियाँ बिछाने की शुरुआत कर चुके हैं। बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए ग़ैर जाटव दलितों और ग़ैर यादव पिछड़ों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए मुखौटों की राजनीति को जारी रखा है। साथ ही बीजेपी ने लव जिहाद, धर्मांतरण और जनसंख्या नियंत्रण जैसे क़ानूनों के ज़रिए मुसलमानों का पैशाचीकरण करके हिंदुओं के मानस में उनके प्रति भय और नफ़रत पैदा करने वाली सांप्रदायिक राजनीति को आगे बढ़ाया है।
आश्चर्यजनक रूप से अयोध्या में राम मंदिर मुद्दे पर बीजेपी फ़िलहाल खामोश है। ऐसा लगता है कि मंदिर निर्माण के लिए बटोरे गए चंदे से ट्रस्ट द्वारा ज़मीन सौदों में हुए भ्रष्टाचार के उजागर होने के कारण मंदिर मुद्दे को पृष्ठभूमि में डालने के लिए संघ और बीजेपी मजबूर हुए हैं। इसलिए बीजेपी सामाजिक इंजीनियरिंग और सांप्रदायिकता के सहारे चुनाव मैदान में उतरने जा रही है।
लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले सपा और बसपा जैसे दल इन दिनों ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। बसपा के ब्राह्मण नेता सतीश मिश्रा के नेतृत्व में 23 जुलाई को अयोध्या में प्रबुद्ध सभा के नाम से ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में जय भीम की जगह बड़े जोर शोर से जय परशुराम और जय श्रीराम के नारे लगे। आने वाले दिनों में काशी, मथुरा और चित्रकूट में भी बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित होंगे।
बसपा के समानांतर सपा के ब्राह्मण नेता भी पूरे प्रदेश में प्रबुद्ध सम्मेलन यानी ब्राह्मण सम्मेलन करने जा रहे हैं। 23 अगस्त को बलिया से इसकी शुरुआत होगी। ब्राह्मणों को पार्टी से जोड़ना और वोट हासिल करने की राजनीति को ग़लत नहीं कहा जा सकता। लेकिन जिस आधार पर यह किया जा रहा है, वह समझ से परे है। ब्राह्मणवादी मिथकों के सहारे यह राजनीति की जा रही है। दूसरे शब्दों में इसे सॉफ़्ट हिंदुत्व कहते हैं। जाहिर है कि हिंदुत्व की पिच पर बैटिंग करना सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों के लिए क़तई फ़ायदेमंद नहीं है। इससे इन दलों की राजनीतिक ज़मीन कमजोर होती है। यह एक क़िस्म का वैचारिक दिवालियापन है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अब सामाजिक न्याय की राजनीति ग़ैरज़रूरी हो गई है? क्या सामाजिक न्याय के मुद्दे बेमानी हो गए हैं? क्या जाति आधारित सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और अन्याय-उत्पीड़न के सवाल अब ख़त्म हो गए हैं? इन सवालों के आधार पर क्या अब वोट हासिल करना मुश्किल हो गया है? आख़िर इसका कारण क्या है? इसका एक कारण यह दिया जा सकता है कि अब जाति आधारित सामाजिक अन्याय और शोषण ख़त्म हो गया है। लेकिन नेशनल क्राइम ब्यूरो के आँकड़े कुछ और ही कहते हैं। पहले की सरकारों की अपेक्षा बीजेपी के शासन में दलितों, पिछड़ों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अपराध की घटनाओं में वृद्धि दर्ज हुई है। यह भी देखने में आया है कि इन समुदायों के साथ स्थानीय पुलिस प्रशासन से लेकर उच्च प्रशासनिक स्तर तक सरकारी रवैया भेदभावपरक और संवेदनहीन है।
दरअसल, हिंदुत्व की राजनीति ने सामाजिक न्याय की राजनीति पर ब्रेक लगा दिया है। उग्र हिन्दुत्व के शोर में जाति आधारित राजनीतिक मुद्दे भुला दिए गए। न्याय के साथ सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को हिंदुत्ववादियों ने बेमानी बना दिया।
दलित और पिछड़ी जातियों के उत्थान और विकास से जुड़े मुद्दों, नीतियों और कार्यक्रमों को बीजेपी सरकार ने पृष्ठभूमि में धकेल दिया है। दलितों, पिछड़ों के संवैधानिक अधिकारों को लगातार कमजोर किया जा रहा है।
आरक्षण को अब लगभग झुनझुना में तब्दील कर दिया गया है। नीट परीक्षा से लेकर यूपी में शिक्षकों की भर्ती में ओबीसी आरक्षण को अघोषित रूप से ख़त्म कर दिया गया। हालाँकि, दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत तक हुए विरोध के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने नीट परीक्षा में ओबीसी के आरक्षण को बहाल कर दिया है। लेकिन यह भी ग़ौरतलब है कि बिना किसी मांग के सवर्णों को ख़ुश करने के लिए मोदी सरकार ने तत्काल प्रभाव से आर्थिक आधार पर 10 फ़ीसदी आरक्षण को लागू कर दिया है।
एक तरफ़ जहाँ रेलवे आदि सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण करके दलितों और पिछड़ों को सरकारी नौकरियों से बेदखल करने की साज़िश की जा रही है, वहीं दूसरी तरफ़ लैटरल एंट्री के ज़रिए सचिव और संयुक्त सचिव जैसे सैकड़ों पदों पर बिना किसी परीक्षा या साक्षात्कार के सीधे नियुक्ति दे दी गई है। जाहिर तौर पर इसमें कोई भी आरक्षित श्रेणी का अधिकारी नहीं है। लेकिन बीजेपी सरकार में शामिल दलित और पिछड़े मंत्री, सांसद और विधायक वंचित तबक़े के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ अपनी जबान तक नहीं खोल रहे हैं। इन स्थितियों के बावजूद सपा और बसपा जैसी पार्टियों ने हिंदुत्व का मुक़ाबला करने के बजाय इसी राह पर चलने का विकल्प चुन लिया है। यही कारण है कि मायावती और अखिलेश यादव दलित और पिछड़े समाज, उनके नेताओं और मुद्दों के बजाय ब्राह्मणों के कथित उत्पीड़न और नाराज़गी को भुनाने की कोशिश में जुटे हैं। यह क़दम सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए ही घातक नहीं है बल्कि स्वयं अखिलेश यादव और मायावती के लिए भी आत्मघाती है।
अब सवाल यह है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को भूलकर सपा और बसपा ब्राह्मणों को लुभाने में क्यों लगे हैं? दरअसल, पिछले डेढ़ साल में यूपी में ब्राह्मणों के उत्पीड़न और बीजेपी सरकार से उनकी नाराज़गी का एक नैरेटिव गढ़ा गया है। अगर इसे सही मान भी लिया जाए तो हक़ीक़त यह है कि ब्राह्मणों की नाराज़गी बीजेपी से नहीं बल्कि योगी आदित्यनाथ से है। हाँ, यह ज़रूर है कि कुछ घटनाओं और योगी आदित्यनाथ की छवि ने ब्राह्मण नेताओं को छवि चमकाने का मौक़ा दिया है। पूर्वांचल में योगी की राजनीति के प्रबल प्रतिद्वंद्वी हरिशंकर तिवारी जैसे नेता रहे हैं। योगी व्यक्तिगत तौर पर ठाकुरवादी हैं। इसका सबूत हिंदू युवा वाहिनी में ठाकुर नौजवानों की भरमार और ठाकुर नेताओं के साथ उनकी नज़दीकियाँ हैं। योगी ने आते ही परशुराम जयंती की छुट्टी ख़त्म कर दी। ब्राह्मण नेताओं द्वारा इसका विरोध किया गया। लेकिन शासन-प्रशासन में मिलने वाली प्राथमिकता के कारण ब्राह्मण समाज बीजेपी सरकार से संतुष्ट बना रहा। फिर बिकरू कांड के कुख्यात अपराधी विकास दुबे के एनकाउंटर को सोशल मीडिया पर हवा दी गई। इसे ब्राह्मणों के उत्पीड़न के रूप में प्रचारित किया गया। इस एनकाउंटर के बहाने विभिन्न दलों में सामान्य हैसियत वाले नेताओं को खास बनने का मौक़ा मिला।
दरअसल, ब्राह्मण समुदाय चाहे समाज में हो या किसी पार्टी में या विभाग में, वह अपने को हमेशा विशेष बनाए रखने की जुगत में रहता है। यही कारण है कि सपा के ब्राह्मण नेताओं ने अखिलेश यादव को ब्राह्मणों की बीजेपी से नाराज़गी को भुनाने का प्रलोभन दिया। परिणामस्वरूप, सामाजिक न्याय के मुद्दों पर लौटने वाले अखिलेश यादव ने ब्राह्मण नेताओं को हरी झंडी दे दी और इन नेताओं ने लखनऊ में परशुराम की 108 फीट ऊँची प्रतिमा लगाने का एलान कर दिया। यूपी के अन्य ज़िलों में भी परशुराम की प्रतिमाएँ स्थापित करने का ऐलान किया गया। ऐसे में, मायावती पीछे क्यों रहतीं? उन्होंने सरकार आने पर सपा से भी भव्य और विशाल परशुराम की प्रतिमा लगाने का ऐलान किया। कांग्रेस के नेता रहे जितिन प्रसाद ने ब्राह्मणों पर होने वाले अत्याचार के मुद्दे को लेकर पूरे प्रदेश में योगी सरकार के ख़िलाफ़ मुहिम चलाई। हालाँकि अब जितिन प्रसाद बीजेपी के ही हो चुके हैं। इतना ही नहीं, बीजेपी के ब्राह्मण नेताओं को भी सरकार और पार्टी में विशेष बनने का मौक़ा मिला। योगी के ख़िलाफ़ मोर्चाबंदी की गई। लेकिन वे योगी आदित्यनाथ को कमजोर करने में नाकामयाब रहे।
सबसे मौजूँ सवाल यह है कि क्या ब्राह्मण बीजेपी को छोड़कर किसी और पार्टी की ओर रुख करेगा? इस सवाल के जवाब के लिए यह पूछना लाजमी है कि क्या वास्तव में ब्राह्मण समाज बीजेपी से नाराज़ है?
दरअसल, ब्राह्मण समाज की ओर से फ़िलहाल कोई नाराज़गी की बात सामने नहीं आई है। ब्राह्मण समाज ने अभी खामोशी ओढ़ रखी है। अगर वह वास्तव में नाराज़ होता तो किसी विकल्प की बात करता। जबकि आरएसएस से जुड़ा ब्राह्मण लगातार बीजेपी के साथ एकजुट ही नहीं बल्कि मुखर है। हालाँकि बीजेपी से उसकी एक शिकायत ज़रूर है। यूपी में 1989 के बाद कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना। इससे पूर्व कांग्रेस पार्टी के पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे। 1991 और 1997 के बाद 2017 में तीसरी बार बीजेपी सत्ता में आई है। बीजेपी सरकार में कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। बीजेपी ने अभी तक कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बनाया है। यह मलाल ब्राह्मणों को ज़रूर है।
बीजेपी के साथ पूरे मनोयोग से जुड़े सवर्णों में सर्वाधिक (क़रीब 12 फ़ीसदी) आबादी वाला ब्राह्मण समुदाय 2017 की जीत के बाद अपना मुख्यमंत्री चाहता था। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से ब्राह्मण निराश ज़रूर हुआ। लेकिन 'प्रबुद्ध' ब्राह्मण समाज यह भी जानता है कि सपा और बसपा में उसका मुख्यमंत्री बनना नामुमकिन है। सपा या बसपा की सरकार में उसके नेताओं को कुछ पद और प्रलोभन ज़रूर मिल सकते हैं, लेकिन समाज से लेकर राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान में उसका वर्चस्व संभव नहीं है। बीजेपी सरकार में भले ही ब्राह्मण मुख्यमंत्री ना हो लेकिन पद, पुरस्कार, प्रतिष्ठा और पुनरुत्थान का पूरा अवसर उसे प्राप्त हो रहा है। दरअसल, बीजेपी की नीति आरक्षण विरोधी है। इसलिए सरकारी नौकरियों पर उसका ज़्यादा कब्जा हो रहा है। ठेका पट्टा में उसे प्राथमिकता मिल रही है। दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों पर उसका वर्चस्व भी इस राज्य में सुरक्षित है। इन कारणों को देखते हुए ब्राह्मणों का बीजेपी छोड़कर सपा या बसपा की ओर जाना फ़िलहाल असंभव लगता है।