आरएसएस मायावी है, चुनाव जीतना उसका मक़सद 

05:13 pm Nov 27, 2018 | आशुतोष - सत्य हिन्दी

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत आजकल ख़ुब गुगली फेंक रहे हैं। कभी कहते है कि बिना मुसलमानों के हिंदुत्व का कोई अस्तित्व नहीं है तो कभी कहते है कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिये सरकार कानून बनाये। ये सब जानते हैं कि राम मंदिर का मामला मुसलिम समाज के लिये तकलीफ़देह है। न केवल बाबरी मस्जिद विध्वंस की वज़ह से बल्कि इस कारण से कि पहली बार हिंदुस्तान के प्रति उनकी आस्था पर खुलेआम सवाल खड़े किए गए, भारत में उनके रहने पर भी उँगली उठी। ऐसे में राममंदिर निर्भाण और मुसलमान दोनों को साथ लेकर संघ कैसे चल सकता हैं वो दोनों बातें कह कर क्या साबित करना चाहता है इन दोनों में कही कोई मेल भी है या फिर इसके पीछे कुछ गहरा राज है

बाबरी मसज़िद का ढहाया जाना मुसलमानो के लिए बेहद तकलीफ़ रहा है

बदल रहा है संघ

भागवत ने जब मुसलमानों वाली टिप्पणी की तो देश के ढेरों बुद्धिजीवी कह उठे संघ बदल रहा है। देखिये वो कैसे सब को साथ लेकर चलने की बात कर रहा है। जिस संघ को मुस्लिम विरोधी कहा जा रहा था वो मुसलमानों को गले लगाने को तैयार है वो दूसरे प्रमुख गोलवलकर तक की विवादास्पद बातों को सिरे से ख़ारिज करने को राज़ी है मेरा अपना मानना है कि देश के बुद्धिजीवियों को संघ के असली चरित्र और उसके मक़सद की आधी-अधूरी जानकारी है। इसके आधार पर वो अटकलबाजियां करते रहते हैं। सही ग़लत फ़तवे देते रहत हैं। ये दोष इन बुद्धिजीवियों का है। संघ का नहीं। संघ तो मंथर गति से चल रहा है।

भागवत का पहला बयान और दूसरा बयान दोनों ही एक दूसरे से गुँथे है। एक ही धागे से जुड़े हैं। एक ही माला के मोती हैं। संघ में कोई बदलाव नहीं हो रहा है। ये बात देश के बुद्धिजीवियों को समझ लेनी चाहिये कि संघ जैसे संगठन आसानी से नहीं बदलते।

विचारधारा के मूल तत्व तो कभी भी नहीं बदलते हैं। हाँ, देश काल के हिसाब से रणनीतिक समायोजन होता रहता है। जैसे युद्ध में रणनीति बदलती है वैसे ही विचारधारात्मक संगठन भी अपने में फेरबदल कर लेते हैं। क्योंकि महत्व जीत का है, अभीष्ट की प्राप्ति का है। संघ हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिये अल्पकालिक समझौते कर सकता है पर दीर्घकालिक लक्ष्य पर समझौता नहीं करेगा। 

मोदी सरकार उम्मीदों पर खरी नहीं

आज की तारीख़ में संघ की सबसे बडी चिंता 2019 में हिंदुत्ववादी सरकार को दुबारा आसीन कराना है। आज उसे लगता है कि मोदी के साढ़े चार सालों में लोगों की उम्मीदों के हिसाब से काम नहीं हुआ। ऐसे में मोदी सरकार के लिये दुबारा सत्ता पाना आसान नहीं होगा।

भागवत को लगता है कि 2014 में हिंदुत्व प्लस वोट यानी हिंदुत्ववादियों के अलावा बहुत सारे दूसरे लोगों ने भी वोट दिया था। ये 'न्यूट्रल वोटर' पहले बीजेपी के पास नहीं था। इसने मोदी को अलग तरह का नेता पाया, उसे लगा ये आदमी देश की तरक़्क़ी कर सकता है। इस अतिरिक्त वोट ने बीजेपी को 282 सीटें दिला दी। आज ये वर्ग ठगा महसूस कर रहा है। वो सोच रहा है कि मोदी और दूसरे नेताओं में फ़र्क़ नहीं है। ये वोटर चुनाव के समय या तो घर बैठ जायेगा या वो बीजेपी से अलग विकल्प तलाशेगा या फिर वो 'नोटा' पर मुहर मार देगा। 

भागवत को लगता है कि चुनाव के पहले इस इमेज को बदलना ज़रूरी है कि संघ और बीजेपी सरकार मुसलमान विरोधी है, या दक़ियानूसी संगठन है या आधुनिकता विरोधी है। वो ये भी कहना चाहता है कि वो कट्टर नहीं है न ही वो हिंदू पाकिस्तान बनाना चाहते है।

विज्ञान भवन का उनका बयान इस असंतुष्ट तबके या “हिंदू प्लस” वोटर को दुबारा अपनी तरफ खींचने का प्रयास है। भागवत ये भी जानते है कि उनके मुस्लिम बयान से संघ के कोर वोटर में बेचैनी है। वो समझ नहीं पा रहा है कि जिस संगठन ने आजीवन मुस्लिम विरोध का पाठ पढ़ाया अब वो उनको गले लगाने की बात क्यों कर रहा है ये बेचैनी दूर करना बेहद आवश्यक है। क्योकि अगर संघ के कोर में असमंजस पैदा हो गया तो लेने के देने पड़ सकते हैं। अयोध्या का बयान उस संभावित ख़तरे को ख़त्म करने की दिशा में उठा क़दम है।

बड़ा पेच

इसके अलावा एक और पेच है। जो काफी बड़ा पेच  हैं।  यूपी की वजह से केंद्र में बीजेपी को बहुमत मिला था। इस बार उनके यूपी में डाका पड़ने की पूरी संभावना है। मायावती और अखिलेश यादव के बीच गठबंधन की बात ने मोदी अमित शाह समेत संघ की भी नींद उडा रखी है। 

माया और अखिलेश के मिलने के बाद बीजेपी की सीटें अप्रत्याशित तौर पर काफी घट सकती है। ये ख़तरा भी काफी बडा है। बीजेपी और संघ परिवार के पास इसकी एक ही काट है और वो है राम मंदिर के नाम पर हिंदू समाज को बहकाओ, वोटों का ध्रुवीकरण करो और किसी तरह से संभावित घाटे को कम करो ।राम मंदिर यूपी में है। और यूपी में 80 सीटें हैं। पिछली बार 73 सीटें उसे मिली थी। फिर ये राममंदिर आंदोलन ही था जिसने 1985 की दो सीटों वाली पार्टी को 1998 में सत्ता के शीर्ष पर ला खड़ा किया। अगर बीजेपी राममंदिर के निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर पाई तो वो चुनाव में हिंदू वोंटों को लुभाने में कामयाब हो सकती है। 

संघ केचुली नहीं बदलता

हमें ये समझ लेना चाहिये कि सारी उठापटक केंद्र में हिंदुत्ववादियों की सरकार की पुनर्स्थापना का है। संघ कितना भी कुछ कहे कि वो राजनीति में नहीं है पर वो राजनीति से अलग क़तई नही। वो जानता है कि सत्ता के बग़ैर विचारधारा प्रसार संभव नहीं है। उसकी सरकारें विचारधारा के लिये माहौल बनाती है और किसी भी ख़तरे से उन्हे बचाती भी हैं। इसलिये हे नादान बुद्धिजीवी वर्ग संघ के मायाजाल में न फँसे। उनके तिलस्म को समझे। संघ केचुली नहीं बदलता और न ही उसका परकाया प्रवेश में यक़ीन है । उसने सत्ता का स्वाद चख लिया, उसके फ़ायदे से भी वो पूरी तरह से अवगत हो गई है। और सत्ता बरक़रार रखने के लिये अगर उसे कुछ ओर पड़े क़दम उठाने पडे तो वो उठायेगा पर कोई ये सोचें कि वो अल्पसंख्यक विरोध छोड़ साधू संत हो जायेगा तो कृपा कर ऐसा भ्रम न पाले।