सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष और भागीदारी मोर्चा के संयोजक ओमप्रकाश राजभर ने यह कहकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नई हलचल पैदा कर दी है कि असदुद्दीन ओवैसी भी उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन सकते हैं बशर्ते कि वह पहले उत्तर प्रदेश के मतदाता बन जाएँ। उन्होंने तर्क दिया है कि अगर अजय कुमार बिष्ट नाम के व्यक्ति उत्तराखंड से आकर योगी आदित्यनाथ के नाम से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन सकते हैं तो फिर असदुद्दीन ओवैसी ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं। उनका यह भी कहना है कि मुसलमान होना कोई गुनाह नहीं है। मुख्यमंत्री बनने का जितना हक़ एक हिंदू को है उतना ही एक मुसलमाान के बेटे को भी है।
राजभर की बात सही है। उनके तर्क भी अकाट्य हैं। लेकिन कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते हैं। क्या किसी राज्य में आकर मात्र मतदाता बनने से कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री पद का दावेदार उम्मीदवार हो सकता है? अगर ऐसा है तो फिर 2012 में डॉक्टर अयूब प्रदेश के मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन पाए? जबकि उनकी पीस पार्टी के साथ ओमप्रकाश राजभर की ‘सुभासपा’ और ‘अपना दल’ का भी गठबंधन था। डॉ. अय्यूब उत्तर प्रदेश के मतदाता भी थे। राजभर भी उनके साथ थे फिर वो उन्हें मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनवा पाए? ज़ाहिर है कि वो मुख्यमंत्री बनने लायक सीटें नहीं जीत पाए थे।
ग़लत है योगी से तुलना
राजभर का यह कहना कि योगी आदित्यनाथ उत्तराखंड से आकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए हैं तो असदुद्दीन ओवैसी ऐसा क्यों नहीं कर सकते, यह कहना एकदम ग़लत है। इन दोनों मामलों की तुलना करना बेमतलब है और बेमानी भी। योगी आदित्यनाथ अविभाजित उत्तर प्रदेश में ही पैदा हुए। जब उन्होंने गोरखपुर के मठ में दीक्षा ली तब वो उत्तर प्रदेश के ही निवासी थे। उत्तराखंड के अलग राज्य बनने से पहले 1998 और 1999 में दो बार सांसद रह चुके थे। उसके बाद 2004, 2009 और 2014 में यहीं से सांसद चुने गए। लिहाज़ा यह कहना पूरी तरह ग़लत होगा कि योगी मुख्यमंत्री बनने के लिए ही उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश आए।
कैसे बन सकता है मुस्लिम मुख्यमंत्री?
किसी मुसलमान के मुख्यमंत्री बनने के सिर्फ़ दो रास्ते हैं। पहला, विधानसभा में बहुमत पाने वाली पार्टी किसी मुसलमान को विधायक दल का नेता चुन के मुख्यमंत्री बनवा दे। दूसरा, मुस्लिम नेतृत्व वाली कोई पार्टी इतनी सीटें जीत ले कि उसके बगै़र कोई सरकार बन पाना संभव ना हो। इस स्थिति में वह 6 महीने या साल भर के लिए मुख्यमंत्री मंत्री पद की मांग कर सकती है। इस मांग को मानना या नहीं मानना उस पार्टी पर निर्भर करेगा जो पार्टी उसके समर्थन से सरकार बनाने की स्थिति में होगी। उत्तर प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक हालात में ये दोनों ही सूरतें मुमकिन नहीं हैं।
अगर बीजेपी की जगह सपा, बसपा या कांग्रेस सत्ता में आ भी जाती हैं तो इनमें से कोई भी किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का इतनी सीटें जीत पाना अभी दूर की कौड़ी है कि उसके बगैर किसी की सरकार बनना संभव ना हो।
जोड़-तोड़ के ज़रिए
बेहद कम सीटें होने पर भी कोई मुसलमान मुख्यमंत्री बन सकता है बशर्ते उसे विधानसभा में बहुमत हासिल हो। जैसे झारखंड में एक समय में निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस समेत कई अन्य दलों के समर्थन से मुख्यमंत्री बन गए थे। झारखंड में उस वक़्त कोई भी पार्टी अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। ठीक इसी तरह 1979 में केरल में मुस्लिम लीग के ही एच मोहम्मद कोया 50 दिन के लिए मुख्यमंत्री बने थे। 140 सदस्यों वाली विधानसभा में मुस्लिम लीग के मात्र 13 विधायक थे। उस समय के राजनीतिक हालात ऐसे बने कि कांग्रेस और उसकी अन्य समर्थक पार्टियों ने मोहम्मद कोया को मुख्यमंत्री बना दिया। हालांकि 50 दिन बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अगली सरकार कांग्रेस की बनी तो वह शिक्षा मंत्री बन गए।
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना मे क्यों नहीं?
अगर राजभर को असदुद्दीन ओवैसी में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की क़ाबिलियत नज़र आती है तो फिर यह सवाल उठता है कि ओवैसी आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन पाए? आंध्र प्रदेश में ही वो पैदा हुए हैं और वहीं के मतदाता रहे। तेलंगाना के अलग राज्य बनने के बाद तेलंगाना के मुख्यमंत्री वह क्यों नहीं बन पाए? जबकि तेलंगाना उनकी पार्टी की पहली कर्मभूमि रही है। वहाँ हैदराबाद और आसपास के क्षेत्रों में उनकी पार्टी की मज़बूत पकड़ भी है। क़ायदे से ओवैसी पहले तेलंगाना में ख़ुद को मुख्यमंत्री बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत करें।
तेलंगाना की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी के ख़िलाफ़ ओवैसी राज्य के दलित-पिछड़े और वंचित समाज के लोगों को एकजुट करके मज़बूत विकल्प पेश करें। तेलंगाना का मुख्यमंत्री बनने के बाद ही वो दूसरे राज्यों में मुसलमानों को राजनीति का सबक़ सिखाने जाएँ तो बेहतर होगा।
आंध्र प्रदेश में क्या स्थिति रही?
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन 1927 में वजूद में आई थी। आज़ादी के बाद 1960 के दशक से उसने स्थानीय निकायों के चुनाव में हिस्सा लेना शुरू किया। 1984 के लोकसभा चुनाव में असदुद्दीन के पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी कांग्रेस के समर्थन से पहली बार जीतकर लोकसभा पहुँचे। 1999 तक लगातार जीतते रहे 2004 से लगातार असदुद्दीन ओवैसी इसी सीट से सांसद हैं। ओवैसी की पार्टी में 1989 के विधानसभा चुनाव में पहली बार 35 सीटों पर चुनाव लड़कर 4 सीटें जीती थीं। 1994 में 20 सीटें लड़कर सिर्फ़ एक सीट जीती। 1999 में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके 5 सीटों पर चुनाव लड़ा और चार जीती। 2009 में कांग्रेस के समर्थन से ही 8 सीटों पर चुनाव लड़ा और 7 सीटें जीतीं।
कांग्रेस से किनारा
2009 तक ओवैसी की पार्टी कांग्रेस के समर्थन से चुनाव लड़ती रही। वो सिर्फ़ हैदराबाद की ही लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ती थी। 2012 में ओवैसी ने कांग्रेस से समर्थन वापस लिया। 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पहली बार अपने दम पर लड़ा। लोकसभा की 6 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन सिर्फ़ हैदराबाद की सीट जीत पाए। विधानसभा की 35 सीटों पर चुनाव लड़ा। इनमें से तेलंगाना की 20 और आंध्र प्रदेश के सीमांचल की 15 सीटों पर। लेकिन जीती तेलंगाना की सिर्फ़ वही सात सीटें जो 2009 के चुनाव में जीती थीं। तेलंगाना के अलग राज्य बनने तक आंध्र प्रदेश में कभी ओवैसी की पार्टी राज्य पार्टी का दर्जा भी हासिल नहीं कर पाई। क्योंकि वो कभी 3% सीटें या 8% वोट हासिल नहीं कर पाई थी।
तेलंगाना में क्या हाल?
2014 में तेलंगाना में हुए पहले विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने 35 सीटों पर चुनाव लड़कर 1.52% वोट हासिल किया था। 2018 में उन्होंने तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 7 सीटें जीतीं। इस बार उनका वोट प्रतिशत 2.7 था। तेलंगाना में इसे राज्य पार्टी का दर्जा हासिल है। लेकिन चुनावी नतीजे बताते हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद ओवैसी अपने गृह राज्य तेलंगाना में विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या नहीं बढ़ा पाए हैं। ना ही सत्ता में हिस्सेदारी हासिल कर पाए हैं। मुख्यमंत्री बनना तो बहुत दूर की कौड़ी है।
महाराष्ट्र, बिहार और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में ओवैसी ने दो मुद्दे मुख्य तौर पर उठाए। पहला, विधानसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी बढ़ाने का और दूसरा, सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने का। इन दोनों ही मुद्दों पर वह अपने गृह राज्य में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। यह चिराग तले अंधेरे वाली कहावत को चरितार्थ करने जैसा है। सबसे अहम सवाल यह है कि अगर ओवैसी अपने गृह राज्य में ही विधानसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी बढ़ाने और सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने में नाकाम हैं तो बाक़ी राज्यों में वो दोनों चीजें कैसे हासिल कर सकते हैं।