मोदी सरकार की आंखें खोलेगा किसानों का ‘रेल रोको’ आंदोलन?

02:19 pm Feb 18, 2021 | प्रेम कुमार - सत्य हिन्दी

18 फरवरी को किसानों के ‘रेल रोको’ आंदोलन से ठीक पहले दो बड़ी घटनाएं घटी हैं जो किसान आंदोलन के भविष्य से जुड़ी हैं। एक- पंजाब नगर निकाय चुनाव में आंदोलन समर्थकों की प्रचंड जीत और दूसरी- बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा का अपने नेताओं से कहना कि वे अपने-अपने इलाके में किसानों के बीच जाकर कृषि कानूनों के फायदे बताएं। 

दोनों घटनाएं स्वभाव में महज घटना न होकर प्रतिक्रियाएं हैं। एक किसानों की प्रतिक्रिया है जिसमें वोट की ताकत है तो दूसरी राष्ट्रीय स्तर पर सत्ताधारी पार्टी की प्रतिक्रिया है जिसमें सत्ता में होने का अहंकार भाव है।

लगभग सालभर पहले बीजेपी पूरे देश में जागरुकता अभियान चलाकर नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को समझाने की पहल कर रही थी। उस अभियान का असर मापा नहीं जा सका क्योंकि कोरोना ने आंदोलन और उस आंदोलन के जवाब में अभियान दोनों को समय से पहले शांत कर दिया। 

अब सालभर बाद बीजेपी उसी रास्ते पर चलती हुई कृषि कानूनों के बारे में किसानों को जागरूक करने के अभियान पर जोर दे रही है। 

बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने खास तौर से जाट नेताओं को ऐसे निर्देश दिए हैं कि वे अपने-अपने इलाके में पंचायत करें और किसानों को कानूनों के फायदे बताएं।

एक साल पहले और अब के बीजेपी के दोनों अभियानों में बहुत बड़ा फर्क है। तब सीएए से प्रभावित होने वाले लोग केवल खास धर्म विशेष के थे और समझाया उन लोगों को जा रहा था जो उस कानून से न तो कतई प्रभावित होने वाले थे और न ही उस खास धर्म विशेष से थे। 

मतलब यह कि कानून के संभावित प्रभावित लोगों के समानांतर अप्रभावित लोगों को गोलबंद किया जा रहा था। वहीं, आज जिस अभियान की बात जेपी नड्डा कर रहे हैं उसे उन किसानों के बीच चलाना है जो पहले से आंदोलनरत हैं। इसका मतलब यह है कि जो नेता समझाने के लिए आने वाले हैं उससे अधिक समझ लेकर वे किसान आंदोलन के मैदान में हैं जिन्हें समझाया जाना है।

पंजाब के स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजों पर देखिए चर्चा-

पंजाब में कांग्रेस की जीत

पंजाब के स्थानीय नगर निकाय के चुनावों में कांग्रेस की बम्पर जीत उन इलाकों में भी हुई है जहां बीजेपी का बोलबाला था। 8 में से 7 नगर निगम जीत लेने का करिश्मा कांग्रेस अगर कर सकी है तो इसकी वजह उसका किसान आंदोलन से जुड़ाव भी है और किसान आंदोलन को बदनाम करने की सत्ताधारी दल बीजेपी की लगातार कोशिशों का नतीजा भी। 

बीजेपी से दूर हुए सहयोगी 

बीजेपी के कद्दावर जाट नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह पहले ही हरियाणा में किसानों के साथ आ खड़े हुए हैं। राजस्थान में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी तो पंजाब में शिरोमणि अकाली दल किसानों के मसले पर एनडीए का साथ छोड़ चुके हैं। यूपी में जाट नेताओं के साथ जेपी नड्डा की मंत्रणा के बाद किसानों के बीच जाने का फैसला तो हो चुका है लेकिन किसानों की प्रतिक्रिया क्या रहेगी जब बीजेपी नेता उनके बीच जाएंगे-  इसे देखा जाना बाकी है। 

इस वक्त बीजेपी जाट किसानों के बीच अपने जनाधार खिसकने को लेकर चिंतित है। यह चिंता यूपी में विधानसभा चुनाव को लेकर बढ़ चुकी है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल की सक्रियता भी बीजेपी को चिंतित कर रही है। इन दलों ने बड़ी-बड़ी किसान महापंचायतें की हैं। वहीं, किसानों ने भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब में एक से बढ़कर एक महापंचायतें कर अपनी एकजुटता दिखलायी है।

टिकैत के पक्ष में जाट

किसान आंदोलन में जाटों के तेवर खासतौर से तब बदल गये जब 26 जनवरी की घटना के बाद गाजीपुर बॉर्डर से राकेश टिकैत और उनके साथियों को देशविरोधी कहकर जबरन धरनास्थल से उठाने की कोशिशें हुईं। डीएम और एसपी मंच पर चढ़ गये। नोटिस दिए गये। बिजली-पानी को काट दिया। 

स्थानीय बताकर कुछ लोगों से इन किसान नेताओं के खिलाफ नारेबाजी और पत्थरबाजी करायी गयी। तब राकेश टिकैत ने अपना सर्वस्व दांव पर रखते हुए घटनास्थल पर जमे रहने और अपने ग्रामीणों से पानी पीने का संकल्प जताया और इस क्रम में जो आंसू उन्होंने गिराए, उसने किसानों और खासकर जाट किसानों के जमीर को जगाने का काम किया।

बदले हुए हैं किसानों के तेवर

यह तय है कि जब बीजेपी के नेता जाट किसानों के बीच पहुंचेंगे तो वे सुखद अहसास लेकर नहीं लौटेंगे। आलाकमान के निर्देश के अनुसार बीजेपी के जाट नेता किसानों के बीच जाने की हिम्मत जुटा भी लें तो उनका अभियान इसी बात पर निर्भर करने वाला है कि उन्हें किसानों से प्रतिक्रिया कैसी मिलती है। 

गणतंत्र दिवस के बाद गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों का भारी जमावड़ा तो लगा, लेकिन सड़क जाम आंदोलन से दिल्ली-एनसीआर को अलग कर लेने के बाद इस बात की परख नहीं हो सकी थी कि किसानों के तेवर में क्या बदलाव आया है। ‘रेल रोको’ आंदोलन में किसानों के ये तेवर देखने को मिले हैं।

डटे हुए हैं किसान

किसान तीन कृषि कानूनों की वापसी तक आंदोलन पर डटे रहने का संकल्प दिखा रहे हैं। जाट किसानों के बीच राकेश टिकैत सबसे बड़े नेता के तौर पर उभर चुके हैं। ऐसे में महत्वपूर्ण बात यह है कि बीजेपी के जाट नेता क्या कहकर किसानों को समझाएंगे। कृषि बिल अच्छे हैं, मंडी बनी रहेगी, एमएसपी खत्म नहीं होगी, बातचीत के दरवाजे खुले हुए हैं आदि बातें किसान सुनते रहे हैं। अब किसान कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर तक से बातचीत को बेमतलब मानने लगे हैं। ऐसे में दूसरे बीजेपी नेताओं की बातों की अहमियत उनके सामने क्या रहेगी, इसे समझा जा सकता है।

अगर वोट ही पैमाना रहे तो पश्चिमी यूपी के किसानों के पास यह अवसर आने में अभी एक साल बाकी है। मगर, पंजाब के किसानों के नक्शेकदम पर यूपी के किसान नहीं चलेंगे- ऐसा सोचकर बीजेपी आश्वस्त नहीं हो सकती। जेपी नड्डा की पहल भी इसी बात की पुष्टि करती है।

हिन्दू-मुसलिम एकता से बदलेगी तसवीर

2014 से ठीक पहले मुज़फ्फरनगर में हुए दंगे की फसल चुनाव में बीजेपी ने जरूर काटी थी। मगर, किसान आंदोलन के दौरान जिस तरीके से भरी पंचायत में नरेंद्र सिंह टिकैत ने यह बात मानी थी कि मुसलिम भाइयों के साथ खराब व्यवहार कर और बीजेपी का साथ देने की भूल की गयी थी, उससे इलाके का सियासी समीकरण भी जरूर बदल सकता है। 

पश्चिमी यूपी में हिन्दू-मुसलिम भाईचारा कायम होने से बीजेपी को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जो फायदा बीते दो लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान मिला है वह बरकरार नहीं रह पाएगा, यह तय है।

आंदोलन की जमीन मजबूत करने के लिए जहां किसानों ने लगातार कार्यक्रम तय कर लिए हैं वहीं बीजेपी अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने के लिए कार्यक्रम बनाने की कोशिश करती दिख रही है।

जवाब मांगेंगे किसान

बीजेपी नेताओं के सामने यह टास्क चुनौतीपूर्ण है। उन्हें उन किसानों को समझाना है जिनके बारे में खुद बीजेपी के नेता और उसकी आईटी सेल लगातार कहती रही है कि वे देशविरोधी और खालिस्तानी तत्वों के हाथों में खेल रहे हैं। सैकड़ों किसान जेलों में बंद हैं। सैकड़ों की जानें जा चुकी हैं। अब किसान सारे सवालों के जवाब मांगेंगे।

कश्मीर के बारे में शेष भारत को समझा लेना बीजेपी के लिए आसान रहा है, सीएए को लेकर गैर मुसलमानों को समझा लेना और भी आसान रहा है। लेकिन, इस बार उन किसानों को ही समझाने का दुरुह कार्य बीजेपी नेताओं को सौंपा गया है जो गुस्से में हैं। 

वोट की चोट तो किसान बाद में देंगे, फिलहाल लाल आंखें उनका स्वागत करेंगी। ऐसे में ‘रेल रोको’ आंदोलन एक अवसर है जब हुक्मरान अपनी आंखें खोलें और किसान आंदोलन के लिए अपने नजरिए में बदलाव करें।