अभी कुछ स्पष्ट नहीं हुआ है लेकिन लगता है कि राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष पद पर बने रहने को लेकर पुनर्विचार करना शुरू कर चुके हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार के आवास पर ख़ुद चल कर मिलने नहीं जाते। जैसा कि अक्सर होता है, इस मुलाक़ात के बाद तरह-तरह की अटकलें लगाई जाने लगीं।
एक अफ़वाह यह भी उड़ी कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की हैसियत पाने के लिए कांग्रेस को 55 सांसदों की ज़रूरत है और इसी के मद्देनजर दोनों पार्टियों के विलय की चर्चा को लेकर राहुल और पवार की मुलाक़ात हुई। हालाँकि राकांपा प्रवक्ता नवाब मलिक ने इसका खंडन किया है, लेकिन अगर ऐसा है भी तो इसे राहुल गाँधी का दिमाग ठंडा होने और उनके फिर से सक्रिय होने का सबूत माना जाना चाहिए।
23 मई को लोकसभा चुनाव परिणाम स्पष्ट हो जाने की शाम से ही राहुल गाँधी गुमसुम हो गए थे और करारी हार के बाद उसके कारणों पर मंथन के लिए बुलाई गई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था और पद न स्वीकारने की जिद पर अड़ गए थे।
यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गाँधी, बहन प्रियंका गाँधी, गाँधी-नेहरू परिवार की क़रीबी कही जाने वालीं दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और देश भर के अनगिनत कांग्रेस कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों की अपील भी राहुल की जिद के आगे बेअसर हो गई।
राहुल से एकजुटता दिखाते हुए यूपी के राज बब्बर, पंजाब के सुनील जाखड़, असम के रिपुन बोरा और झारखंड के अजय कुमार समेत दर्जनों राज्यों के प्रदेशाध्यक्षों ने धड़ाधड़ अपने इस्तीफ़े पार्टी को सौंप दिए। यूपी के एक कांग्रेसी नेता ने तो राहुल गाँधी को अपने खून से ख़त लिखकर भेजा, लेकिन राहुल कुछ भी सुनना नहीं चाह रहे थे। उस मनःस्थिति में उन्हें राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट समेत किसी से मिलना गवारा नहीं था।
यह शायद अध्यक्ष होने के बावजूद कांग्रेस की संस्कृति न बदल पाने की ग्लानि ही थी कि अपने-अपने बेटों के राजनीति में पैर जमाने को प्राथमिकता देने वाले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता पी. चिदंबरम, कमलनाथ और अशोक गहलोत पर राहुल गाँधी का गुस्सा फूट पड़ा था।
एक हताशा शायद यह भी रही होगी कि उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान जनता के असली मुद्दे उठाए और भाषायी शालीनता भी बनाए रखी, इसके बावजूद मतदाताओं ने भावनात्मक मुद्दों की राजनीति करने वाली उग्र और आक्रामक बीजेपी को प्रचंड बहुमत कैसे दे दिया। इसी हताशा में उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में कह दिया था कि अब कांग्रेस पार्टी को गाँधी परिवार से बाहर किसी और को अध्यक्ष चुन लेना चाहिए।राहुल गाँधी ने यह बात गहरी हताशा में ही कही होगी। क्योंकि सभी जानते हैं कि गाँधी-नेहरू परिवार की सरपरस्ती के बग़ैर आज के दौर में कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं हो सकता है। राहुल गाँधी भले इस बात को झटके में कह गए लेकिन कांग्रेस के बचे-खुचे ज़मीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं को यह बख़ूबी अहसास है कि बीजेपी का बुल्डोजर मौजूदा हालात में राहुल गाँधी के हटते ही कांग्रेस पार्टी को गाजरघास की तरह कुचल देगा और हवा-हवाई कांग्रेसी जूतों में दाल बाँटने लगेंगे।सच कहें तो बीजेपी को इसी बात का इंतजार है।
बीजेपी और आरएसएस वर्षों से महात्मा गाँधी द्वारा कांग्रेस को समाप्त करने की सलाह का जो नैरेटिव प्रचारित करते हैं, उसके पीछे उनकी एक सोची-समझी रणनीति है।
बीजेपी और आरएसएस का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा और अभियान किसी सोनिया, प्रियंका या राहुल गाँधी को हटाने के लिए नहीं है। इसे रिमोट कंट्रोल, चाटुकारिता, तुष्टीकरण अथवा वंशवाद को समाप्त करने की वैकल्पिक राजनीति प्रस्तुत करने की कोशिश भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये सारे दुर्गुण स्वयं बीजेपी और उसके सहयोगी दलों में मौजूद हैं। दोनों दलों की पूंजीवाद के आवरण वाली उदारवादी आर्थिक नीतियों में भी कोई ख़ास फर्क नहीं है। दरअसल, यह उस कांग्रेसी विचारधारा को निर्मूल करने का अभियान है, जो दशकों चले भारत के स्वतंत्रता संग्राम की देन है। इसी विचारधारा ने भारत को लोकतांत्रिक एवं बहुलतावादी, धर्मनिरपेक्ष, बंधुत्व, सह-अस्तित्व, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पेशे अपनाने की आज़ादी, आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय, इतिहास की सम्यक समझ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने जैसे महान मूल्यों की पटरी पर लौटाया था। आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा ठीक इसके उलट है।
आरएसएस और उसके अनुषंगी संगठन इन मूल्यों के आधार पर विकसित होने वाले राष्ट्र की कल्पना मात्र से घबराते हैं। भारत को एकछत्र हिंदू राष्ट्र बनाना उनका सपना है। इस सपने को पूरा करने में गाँधी-नेहरू की विरासत सबसे बड़ा रोड़ा है। इसीलिए आरएसएस का काडर और बीजेपी के नेता गाँधी और नेहरू की छवि पर कालिख पोतने के लिए ओवरटाइम करते नज़र आते हैं।
आरएसएस के प्रचारक रहे पीएम नरेंद्र मोदी बार-बार कांग्रेस को गाँधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष चुनने की चुनौती यूँ ही नहीं देते। वह जानते हैं कि ऐसा होते ही कांग्रेसियों में पानीपत की तीसरी लड़ाई की तरह भगदड़ मच जाएगी।
ग़ौरतलब है कि 2014 और 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस को भले ही क्रमश: 44 और 52 सीटें मिली हों, लेकिन उसका वोट प्रतिशत 33-34% पर स्थिर रहा है। यही बात बीजेपी को चिंतित करती है। राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से हट जाएँ, बीजेपी के लिए इससे बेहतर राजनीतिक घटना भला और क्या होगी।
नोबल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन तक का बयान आया है कि मोदी जी ने सत्ता की लड़ाई भले ही जीत ली है, विचारधारा की लड़ाई जीतने के लिए दिल्ली अभी बहुत दूर है।
राहुल गाँधी ने बीजेपी की आँख की किरकिरी बनने का एक काम और किया है कि वह ख़ुद इंदिरा गाँधी की अधिनायकवादी और राजीव गाँधी की अप्रासंगिक आर्थिक नीतियों को छोड़ कर देश के लिए नेहरू की समावेशी और कल्याणकारी नीतियों को अमल में लाने का एजेंडा सामने रख रहे हैं और उत्तर भारत से लेकर दक्षिण तक सामाजिक न्याय की युवा शक्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं। ज़ाहिर है, बीजेपी को नेहरू का चरित्रहनन और उनको देश की सारी समस्याओं की जड़ बताने के बाद राहुल को ‘पप्पू’ प्रचारित करना ही था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास पर नज़र डालें तो आज़ादी के पहले और आजादी के बाद बीसियों ऐसे राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए हैं, जिनका गाँधी-नेहरू परिवार से कोई वास्ता नहीं था। इस तर्क के बूते अगर कोई यह कहे कि राहुल गाँधी की जगह किसी और कांग्रेसी नेता के अध्यक्ष बन जाने से क्या फर्क पड़ जाएगा, तो उसे आज के दौर की बीजेपी और कांग्रेस दोनों की प्रकृति को समझना पड़ेगा।
न यह आज़ादी के आंदोलन से निकले नेताओं की कांग्रेस है और न राजनीतिक शुचिता की कद्र करने वाली बीजेपी। वैसे भी जब-जब कांग्रेस में दो फाड़ हुआ, तो गाँधी-नेहरू परिवार की सरपरस्ती वाली कांग्रेस ही विजेता बन कर उभरी है। चाहे आजादी से पहले महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, पुरुषोत्तम दास टंडन आदि का जमाना रहा हो या आजादी के बाद निजलिंगप्पा, के. कामराज या जगजीवन राम का दौर हो।
कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने तो 1969 में तत्कालीन पीएम इंदिरा गाँधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से ही निष्कासित कर दिया था। लेकिन पार्टी में दोफाड़ होने के बाद 1971 में इंदिरा की कांग्रेस ही विजेता बन कर उभरी। सिंडीकेट कांग्रेस के (ओ) धड़े वाले कई नेता 1977 में जनता पार्टी से जा मिले थे, लेकिन जनवरी 1980 में जब चुनाव हुए तो इंदिरा गाँधी ने सबके बारह बजा दिए थे।
1996 में सोनिया गाँधी के मना करने पर भी सीताराम केसरी अध्यक्ष बनाए गए थे लेकिन 1998 में पार्टी की करारी हार के बाद उन्हें जबरन निकालना पड़ा और सोनिया गाँधी ने अध्यक्ष पद स्वीकार करके कांग्रेस को 2004 और 2009 में केंद्र की सत्ता दिलाई थी।
इसलिए यह कहना कि गाँधी-नेहरू परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति इस समय कांग्रेस की नैया पार लगा देगा, महज खामखयाली से ज़्यादा कुछ नहीं है। जब आज़ादी के आंदोलन से निकले कामराज, निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह जैसे बड़े जनाधार वाले दिग्गज नेता कांग्रेस से अलग होकर अपना अस्तित्व नहीं बचा सके तो आज के बौने कांग्रेसी नेता पार्टी अध्यक्ष बन कर कांग्रेस को भला क्या खाक संभाल लेंगे। कांग्रेस के भीतर के जो लोग इस हक़ीक़त को समझते हैं, वे कभी नहीं चाहेंगे कि राहुल गाँधी अध्यक्ष पद से हट जाएँ। यह अकेले राहुल गाँधी की ताक़त या किसी अदृश्य हाथ की मेहरबानी नहीं है बल्कि देश भर में फैली कांग्रेस की सर्वसमावेशी विचारधारा और उसके समर्पित कार्यकर्ताओं की शक्ति है, जो गाँधी-नेहरू परिवार को देश चलाने की अथॉरिटी देती रही है। पार्टी और देशहित में राहुल गाँधी को इस नुक्ते का संज्ञान लेना ही होगा।