‘संघर्ष’ शब्द ही ऐसा है जिसमें आने वाली ध्वनि यह इंगित करती है कि इसमें सीमाओं का निर्धारण नहीं किया गया है। यह पल दो पल के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द नहीं है। इसका विस्तार वर्षों से दशकों और कभी कभी तो ताउम्र हो सकता है। चाहे ‘भारत जोड़ो यात्रा’ हो या फिर उसके बाद शुरू की गई ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ या फिर उससे भी पहले लगातार सरकार की शोषणकारी नीतियों और मनमाने रवैये के खिलाफ राहुल गाँधी की स्पष्ट प्रतिक्रिया, सभी इस बात का प्रमाण है कि ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ के लिए राहुल गाँधी का संघर्ष अब वर्षों की सीमाओं से आगे बढ़ चुका है। 2024 के चुनाव सामने खड़े हैं, नरेंद्र मोदी 400 से अधिक सीटों की घोषणा कर चुके हैं, एक एक करके विपक्षी दलों के नेताओं को भयादोहन की नीति से ‘इंडिया गठबंधन’ से अलग किया जा रहा है। ऐतिहासिक रूप से कभी न घटित होने वाली घटनाओं में विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी जेल भेजा जा रहा है, मीडिया मृत है और न्यायालय के पास अपनी ‘प्रक्रियाएं’ हैं। ऐसे में लगातार बीजेपी खुद को मजबूत करती जा रही है।
इंडिया गठबंधन में गिरावट का दौर जारी है। अब लोगों को लगता है कि राहुल गाँधी को ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को छोड़कर दिल्ली आना चाहिए और गठबंधन की गतिविधियों को देखना चाहिए था। अंततः बीजेपी का उद्देश्य ही यही है कि राहुल यात्रा छोड़कर वापस आ जाएं। तमाम पोल सर्वे मोदी जी को विजयी मान चुके हैं। 2024 के चुनाव में काँग्रेस या इंडिया गठबंधन को कितनी सीटें मिलती हैं संभवतया यह मुद्दा ही नहीं है। मुद्दा यह है कि सेल पर बिल्कुल कौड़ी के दाम बिक चुकी मीडिया और ‘विचारधारा के जनाज़ों’ के इस दौर में जनता के साथ हो रहे अन्याय को कौन सुनेगा? मुझे नहीं लगता कि जिस नेता या दल की विचारधारा का जनाज़ा निकल चुका हो उसे कभी भी उस ओर बिठाकर रखा जा सकता है जिस तरफ सत्ता न हो! राहुल गाँधी दिल्ली में बने भी रहते तब भी यही हाल होना था, नीतीश तब भी छोड़कर जाते और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक विशिष्ट राजनैतिक किला तब भी यूं ही ढहता! आज राहुल गाँधी और काँग्रेस के पास विपक्षी दलों को देने के लिए सिर्फ संघर्ष है, वो सत्ता का उपहार उन्हें नहीं दे सकते। ऐसे में सिर्फ वही दल साथ रहेगा जिसकी विचारधारा उसकी सत्ता की भूख के सामने डटकर खड़ी हो। लेकिन जो विचार के पहले सीटें बचाने की चाहत रखता हो, जेल जाने से डर रहा हो और ‘अभी किसी तरह बचो बाद में देख लेंगे’ वाला दृष्टिकोण रखता हो उसे इंडिया गठबंधन के साथ रोका ही नहीं जा सकता। परिणाम कुछ भी निकले लेकिन ऐसे में एक मात्र रास्ता है जनता के समक्ष स्वयं पहुंचकर उनसे सुनना और उनकी सुनना! यही काम राहुल गाँधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा में कर रहे हैं।
‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ 67 दिनों व 6700 किमी तक चलने वाली एक लंबी प्रतिबद्धता है जिसके केंद्र में न्याय है। एक ऐसे दौर में जब स्वयं जनता सड़कों पर नहीं स्मार्टफोन में दिख रही हो और नेता ‘मन की बात’ और ट्विटर (अब एक्स) से जनता को साधने वाले कार्यक्रमों में व्यस्त हों, तब यह इस समय का एक अनोखा प्रयोग है। जो भी लोग यात्रा को देख रहे हैं उन्हें लग रहा होगा कि इस यात्रा का नायक राहुल गाँधी है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। हो सकता है कि आम नागरिकों के लिए राहुल गाँधी एक नायक के रूप में पहचाने जा रहे हों लेकिन इस यात्रा का नायकत्व ‘न्याय’ के पास है। यह पूरी यात्रा न्याय के इर्द-गिर्द ही घूम रही है, न्याय ही आगे का रास्ता तलाश रहा है और न्याय ही लोगों के हुजूम को सड़कों पर उतार रहा है। राहुल गाँधी तो बस उस साहस के प्रतीक हैं जो इस न्याय के ध्वज को आगे लेकर बढ़ रहा है। सही मायनों में राहुल गाँधी इस यात्रा में ‘न्याय के वाहक’ हैं।
जिन लोगों को यह एक ‘आदर्श’ विचार लग रहा है उन्हें इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि जो काँग्रेस पार्टी पिछले 10 सालों में लगभग अपना पूरा ‘चुनावी’ जनाधार खो चुकी थी उसकी एक शानो-शौकत विहीन यात्रा में लाखों लोगों के जुड़ने का क्या औचित्य है? लोग समूहों में आ रहे हैं और यात्रा से जुड़ रहे हैं। क्या युवा, क्या महिला, क्या श्रमिक, क्या बच्चे, और क्या किसान, हर वर्ग का भारतीय जो वर्षों से अन्याय और सरकारी अनदेखी से पीड़ित है, इस यात्रा से जुड़ रहा है। राहुल गाँधी जिस तरह इस यात्रा में लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं उससे चे ग्वेरा का वह कथन बहुत सार्थक लगता है जिसमें वह लोगों से कहते हैं कि "यदि आप हर अन्याय पर आक्रोश से कांपते हैं तो आप मेरे साथी हैं।" शायद लोगों में सरकार के प्रति आक्रोश पनप चुका है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि राहुल गाँधी में यह आक्रोश महात्मा गाँधी के अहिंसक उन्माद और निष्क्रिय प्रतिरोध के साथ आ खड़ा हुआ है। यह प्रतिरोध कितना अधिक शक्तिशाली है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि राहुल गाँधी मंदिर भी जाते हैं तो उनके विरोधियों को भय सताने लगता है। यह भय राहुल गाँधी से नहीं, बल्कि उन लाखों-करोड़ों भारतीयों से है जिन्होंने अनवरत वर्षों तक अन्याय झेलने के बाद अब राहुल गाँधी में एक निर्भय और अपतनशील आशा को खोज निकाला है।
अन्याय के खिलाफ इस लड़ाई में राहुल गाँधी ने इस यात्रा के असली नायक के रूप में स्वयं ‘न्याय’ को चुना है। इसी संदर्भ में यात्रा में न्याय के 5 प्रमुख आयामों पर बात की गई है। ये हैं- भागीदारी न्याय, श्रमिक न्याय, नारी न्याय, किसान न्याय और युवा न्याय।
यह समझना ज़रूरी है कि लोकतंत्र में ‘न्याय’ कोई वैकल्पिक विचार नहीं है जिसे मनचाहे तरीक़े से इस्तेमाल किया जा सके बल्कि यह एक ऐसी उच्चस्तरीय संस्थागत प्रतिक्रिया (हाई लेवल इन्स्टिट्यूशनल रिस्पान्स) है जिसमें लोकतंत्र के अस्तित्व का व्याकरण समाया हुआ है। इसकी अनुपस्थिति में लोकतंत्र शून्य है।
एक किसान जिसकी जमीन उद्योगपतियों के हाथ चली गई हो, आदिवासी जिनसे जंगल छिन रहे हों, युवा जिन्हें रोजगार से वंचित किया जा रहा हो और हजारों साल के सभ्यता के इतिहास के बावजूद आज भी जब महिलायें अपनी अस्मिता खोती जा रही हों, तब यह अतिशयोक्ति नहीं कि भारत में न्याय का व्याकरण ‘अशुद्धता’ का शिकार हो चुका है।
जिस तरह भारत के प्रधानमंत्री और भारत के संवैधानिक न्यायालय महिलाओं, युवाओं, किसानों और श्रमिकों के खिलाफ हो रहे अन्याय के दौर में खामोशी अख्तियार किए हुए हैं उससे लगातार भारत में लोकतंत्र को क्षति पहुँच रही है। अन्याय की अनदेखी नहीं की जा सकती लेकिन पीएम मोदी के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है- चाहे मामला महीनों तक किसानों का सड़क पर सपरिवार पड़े रहना हो या फिर महीनों तक पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर का अनवरत जलना हो। महिलायें अपनी इज्जत के लिए पीएम मोदी से गुहार लगाती रहीं लेकिन उन्होंने अन्याय को अनसुना कर दिया (बृजभूषण शरण सिंह मामला)। लाखों युवा मोदी सरकार की रातोंरात आने वाली नई नई नीतियों की भेंट चढ़ रहे हैं, उन्हें उनके अधिकार से वंचित किया जा रहा है (अग्निवीर योजना) लेकिन इस देश में राहुल गाँधी के अतिरिक्त इस संबंध में किसी को कुछ नहीं बोलना।
भारत का संवैधानिक न्यायालय सुप्रीम कोर्ट लगातार इस तथ्य से परिचित है कि भारत लोकतंत्र के तमाम वैश्विक सूचकांकों में निरंतरता के साथ नीचे लुढ़क रहा है, लगातार केंद्र सरकार ऐसे फ़ैसले ले रही है जिससे संघीय ढाँचा ख़तरे में है, राज्यों के धन को केंद्र सरकार जारी नहीं कर रही है जिससे ‘सहकारी संघवाद’ मिटने को तैयार खड़ा है। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग की अयोग्यता पर खामोशी अख्तियार किए हुए है। यह खामोशी, और सही समय पर नहीं आने वाली प्रतिक्रिया, लोकतंत्र को हमेशा के लिए इससे कम राजनैतिक स्वरूप वाली व्यवस्था की ओर धकेल देगा।
राहुल गाँधी एक बहुत बड़ी लड़ाई के बीचों बीच खड़े हैं। जहाँ एक तरफ़ सरकार सांप्रदायिक निर्णय लेकर ‘समान नागरिक संहिता’ की ओर जोर डाल रही है, लोगों की धार्मिक आज़ादी (मूल अधिकार) को छीनने की कोशिश कर रही है, लोगों के बेडरूम में झाँकने की कोशिश कर रही है तो दूसरी तरफ़ राहुल गाँधी बिल्कुल अलग धारा पकड़कर हर वर्ग, जाति, जनजाति और लिंग की पहचान को लेकर अड़ गए हैं। झारखंड की जनजातियों के लिए राहुल ‘सरना कोड’ को लागू करने की बात कर रहे हैं। लाखों करोड़ों की संख्या में जनजातियाँ ‘सरना धर्म’ की अनुयायी है। इस सरना कोड को लागू करने के संबंध में ‘अनुसूचित जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग’ पहले ही अनुशंसा कर चुका है। लेकिन सरकार सबको बस ‘हिन्दू’ ही मानकर चल रही है। जनजातियों की हजारों वर्षों पुरानी विविधता को ‘एक कानून’ के डंडे से संचालित करने की योजना अन्याय है। सामाजिक न्याय को अपने मुकाम तक पहुंचाने के लिए राहुल आरक्षण की सीमा को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं, सभी जातियों और वर्गों के लोगों की ‘भागीदारी’ को नीचे से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक सुनिश्चित करने की बात कर रहे हैं। न्याय और भागीदारी वह दो मूल तत्व हैं जिनसे लोकतंत्र तमाम झंझावातों के बीच भी खड़ा रह सकता है। सभी को यह समझना होगा कि भारतीय लोकतंत्र की सुरक्षा सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप को ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के लोकतान्त्रिक क्लाइमेट को प्रभावित करती है। ऐसे में राहुल गाँधी सिर्फ भारतीय नहीं, वैश्विक आशा के प्रतीक भी हैं।
आधुनिक अमेरिकी उदारवाद के सबसे अहम चेहरों में से एक, राजनेता और वकील रॉबर्ट एफ केनेडी कहा करते थे कि “हर बार जब कोई व्यक्ति किसी आदर्श के लिए खड़ा होता है, या दूसरों की स्थिति सुधारने के लिए कार्य करता है, या अन्याय के खिलाफ सशक्त प्रतिक्रिया करता है, तो वह आशा की एक छोटी सी लहर भेजता है, और ऊर्जा के लाखों अलग-अलग केंद्रों से एक-दूसरे को पार करते हुए उन तरंगों का निर्माण करने का साहस करता है। एक ऐसी तरंग जो उत्पीड़न और प्रतिरोध की सबसे शक्तिशाली दीवारों को ढहा सकती है।” राहुल गाँधी ऐसी ही एक तरंग का निर्माण कर रहे हैं जो जनमानस के भीतर व्याप्त न्याय के प्रति उनकी प्यास और आशा से ऊर्जा प्राप्त कर रही है। क्या यह तरंग अरबों रुपये ख़र्च कर रही एक विशाल पार्टी, संगठन और समाज के तमाम हिस्सों में घुस चुके लोगों और फव्वारे से अनवरत छिड़की जा रही सांप्रदायिकता से मुकाबला कर पाएगी? कर सकती है यदि लोग यह तय कर लें कि अन्याय को अब एक और कार्यकाल देना भारत की विरासत के साथ खिलवाड़ होगा।
महंगाई रोकना सरकार का काम है, रोजगार देना सरकार का काम है, महिलाओं के साथ अपराध रोकना सरकार का काम है, दलितों के साथ अन्याय रोकना सरकार का काम है, युवा परीक्षा से वंचित न हों, मनमाने तरीक़े से नौकरियों में रखे जाने के नियम न बदले जाएँ, यह काम भी सुनिश्चित करना सरकार का काम है, देश में सांप्रदायिकता का उभार रोकना सरकार का काम है, संस्थाएँ कानून के समक्ष सबको बराबरी से देखें, यह सरकार का काम है। और सीमाओं की सुरक्षा करना भी सरकार का काम है। क्या सरकार इनमें से किसी भी कार्य के साथ न्याय कर पा रही है? अगर नहीं तो इसका मतलब है कि सरकार अपने उत्तरदायित्व के साथ न्याय नहीं कर पा रही है। मतलब, सरकार अन्याय कर रही है। इसे रोका जाना ही भारत जोड़ो न्याय यात्रा का लक्ष्य है।