झारखंड: क्या राहुल गाँधी की ग़ैर-मौजूदगी ने बीजेपी को हराया? 

12:46 pm Dec 24, 2019 | शेष नारायण सिंह - सत्य हिन्दी

झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे देश की राजनीति की दिशा बदल सकते हैं। सत्ताधारी बीजेपी के लिए झारखंड में मिली हार का भावार्थ बहुत ही अहम है। हालांकि इसी साल हुए लोकसभा चुनावों में झारखंड में बीजेपी को ज़बरदस्त सफलता मिली थी लेकिन विधानसभा चुनाव में उसे मिली हार उससे ज़्यादा बड़ी है। मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को चुनाव में बड़ी हार का सामना करना पड़ा है। 

झारखंड में बीजेपी की हार का संदेश बहुत दूर तक जाने वाला है। 2019 में नरेंद्र मोदी की भारी जीत के छह महीने बाद ही हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी की क़रारी हार हुई है। हालांकि साल भर पहले उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी पार्टी की हार हुई थी लेकिन पार्टी के प्रवक्ता उसे उतनी बड़ी हार मानने को तैयार नहीं होते थे क्योंकि इसके बाद हुए लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को इन राज्यों में ज़बरदस्त सफलता मिली थी। 

झारखंड में बीजेपी की हार के बहुत सारे कारण होंगे लेकिन उनके सबसे बड़े मददगार का चुनावी सीन से ग़ैर-हाजिर रहना भी एक बड़ा फ़ैक्टर है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी का बीजेपी के चुनावी विमर्श को धार देने में पिछले छह वर्षों में बड़ा योगदान रहा है। जयपुर चिंतन बैठक के दौरान 24, अकबर रोड के उस वक़्त के प्रभावशाली और चाटुकार कांग्रेसियों ने राहुल को पार्टी का उपाध्यक्ष बनवाया था और उसके बाद से उनके ‘सुभाषितों’ को बीजेपी के प्रवक्ता और नेता इस्तेमाल करते रहे हैं। 

नरेंद्र मोदी ने ‘शहजादे’ शब्द का जितनी बार उपयोग किया, वह राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए सन्दर्भ का विषय है। उसके बाद से राहुल बीजेपी की तरफ़ से आयी हर गुगली पर शॉट लगाते रहे और अपनी पार्टी को लगातार कमज़ोर करते रहे। हर बात पर प्रतिक्रिया देना और उलटे-सीधे चुनावी समझौते करना, अजीबो-ग़रीब लोगों को हरियाणा और मुंबई शहर में पार्टी का अध्यक्ष बनाना आदि उनके कुछ ऐसे कारनामे हैं जो कांग्रेस को बड़ी चोट दे गए हैं। 

जिस अशोक तंवर को राहुल ने हरियाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया था, बाद में वही उनकी पार्टी का दुश्मन बना। अध्यक्ष रहते हुए तंवर ने राज्य के बड़े कांग्रेसी नेता भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को अपमानित करने की कई बार कोशिश की। जानकार बताते हैं कि अगर सोनिया गाँधी ने हुड्डा के हाथ में कांग्रेस की कमान ना सौंपी होती तो राहुल का पहलवान यानी तंवर तो कांग्रेस में रहते हुए भी खट्टर सरकार को भारी बहुमत से जिताता। यह भी कहा जाता है कि अगर हुड्डा को छह महीने का और समय मिला होता तो आज हरियाणा की तसवीर कुछ और होती। 

राहुल गाँधी के मुंबई कांग्रेस वाले ‘चेलों’ ने महानगर के उत्तर भारतीयों, दलितों और अल्पसंख्यकों को कांग्रेस से दूर कर दिया। सभी जानते हैं कि मुंबई में कांग्रेस की जीत में इन्हीं तीन वर्गों का ऐतिहासिक रूप से योगदान हुआ करता था। इन वर्गों के कांग्रेस से दूर होने के बाद का नतीजा दुनिया के सामने है।

दरअसल, हर बात पर कुछ न कुछ टिप्पणी करके राहुल ने कांग्रेस को बहुत नुक़सान पहुंचाया है। जबकि सोनिया गाँधी उतना ही बोलती हैं जितना ज़रूरी होता है। लोकसभा चुनावों में हार के बाद जब राहुल ने पार्टी के अध्यक्ष पद से तौबा की तो सोनिया ने एक बार फिर नेतृत्व संभाला। उसके बाद हरियाणा में पार्टी का नेतृत्व मज़बूत हुआ, बड़े समझौते किए गए और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य से बीजेपी को सरकार से दूर रखने में सोनिया सफल रहीं। उन्होंने झारखंड में बीजेपी की पराजय में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

झारखंड में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन के लिए केवल सोनिया की राजनीतिक सूझबूझ को ही ज़िम्मेदार माना जाएगा। उन्होंने आर.पी.एन सिंह को झारखंड में प्रभारी बनाया। आर.पी. एन सिंह ने भी चुनाव प्रबंधन में अमित शाह की शैली को अपनाया और झारखंड में जाकर 40 दिन तक टिके रहे। अमित शाह की भी यही शैली है। 

शाह 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव थे और तब उन्होंने प्रदेश के कई शहरों में अपना घर बना लिया था। शाह ने बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं को  दरकिनार कर दिया था और नए नेताओं को लाये थे। ये नए नेता आज संसद और विधानसभाओं में विराजते हैं। इसी तरह आर. पी. एन. सिंह ने भी झारखंड की कमान संभालने के बाद वहां की मीडिया में चर्चित कांग्रेसियों को एक कोने में कर दिया और मुक़ामी प्रभावशाली नेताओं को साथ लिया। सबसे बड़ा काम जो उन्होंने किया वह यह कि वह आरजेडी और झारखंड मुक्ति मोर्चा के बीच ताल-मेल बैठाये रहे। कांग्रेस को वहां 16 सीटें मिली हैं। इतनी सीटें पार्टी को झारखंड बनने के 19 वर्षों में कभी नहीं मिली थीं। 

सोनिया ने लिए समझदारी भरे फ़ैसले 

सोनिया गाँधी को हमने 1998 में कांग्रेस पार्टी का काम सँभालते देखा है। तब सीताराम केसरी पार्टी के अध्यक्ष थे और वह हटने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में एक योजना बनाई गयी और केसरी जी को कांग्रेस मुख्यालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। उसके बाद सोनिया ने लगातार काम किया। तरह-तरह के गठबंधन बनाए और अटल बिहारी वाजपेयी और उनके मुख्य रणनीतिकार प्रमोद महाजन के ‘इंडिया शाइनिंग’ के सपने को सत्ता से बेदख़ल करके डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया। देश की खस्ताहाल हो चुकी अर्थव्यवस्था को डॉ. मनमोहन सिंह पटरी पर लाये और देश में खुशहाली का माहौल पैदा हुआ। आज उन्हीं सोनिया गाँधी के हाथ में कांग्रेस की कमान है। 

जानकार बताते हैं कि अगर आज राहुल कांग्रेस के फ़ैसले कर रहे होते तो वह शिवसेना के साथ कभी नहीं जाते और महाराष्ट्र में उनकी पार्टी के विधायकों की मदद से ही बीजेपी की सरकार बन गयी होती। जिस तरह से टीवी चैनलों की बहसों में कांग्रेस के ऊपर धर्मनिरपेक्षता को भूल जाने के  आरोप लग रहे थे और नेहरू की राजनीति को भुला देने के ताने मारे जा रहे थे, वह राहुल गाँधी को कभी बर्दाश्त न होते और वह शिवसेना से गठबंधन के विचार को अपनी पार्टी में न आने देते।  

झारखंड में भी दिल्ली में बैठे राहुल के सलाहकार कमान संभालते और आज वहां कांग्रेस 1-2 सीट जीतकर उत्तर प्रदेश की दुर्दशा को प्राप्त हो चुकी होती। लेकिन सोनिया ने तिनका-तिनका जोड़कर कांग्रेस को फिर से ताक़त देने की कोशिश शुरू कर दी है। अगर अगले कुछ चुनावों तक राहुल गाँधी ने उनको फ़ैसले लेने दिए तो कांग्रेस को भविष्य में भी चुनावी लाभ मिलता रह सकता है।