कृषि कानूनों की वापसी से क्या पंजाब चुनाव में कांग्रेस को होगा नुक़सान?

07:11 am Nov 23, 2021 | अनिल जैन

तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद पंजाब की राजनीति में दिलचस्प मोड़ आ सकता है। हालाँकि भारतीय जनता पार्टी का पंजाब में कुछ भी दांव पर नहीं है। लेकिन उसका मुख्य लक्ष्य किसी भी तरह कांग्रेस की सत्ता में वापसी रोकना है। अपने इस लक्ष्य को पाने के लिए वह अपने पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल को फिर से अपने साथ ला सकती है और कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह का हाथ भी थाम सकती है। अगर ऐसा होता है तो लगातार दूसरी बार सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब देख रही कांग्रेस और पंजाब में पहली बार सरकार बनाने की हसरत पाले बैठी आम आदमी पार्टी को कड़ी चुनौती मिल सकती है।

बीजेपी जनसंघ के जमाने से ही पंजाब में अकाली दल की सहयोगी की भूमिका में रही है। हालाँकि वहाँ बीजेपी का संगठनात्मक तौर पर आधार बेहद कमज़ोर है, लेकिन सूबे की 38% हिंदू आबादी के एक बड़े हिस्से का उसको समर्थन मिलता रहा है। लेकिन अकेले चुनाव मैदान में उतरने पर यह समर्थन उसे चुनावी सफलता नहीं दिला सकता। चुनावी सफलता के लिये ज़रूरी है कि उसे सिक्खों का भी समर्थन मिले।

दूसरी ओर अकाली दल का मुख्य जनाधार राज्य की जाट सिक्ख आबादी में है। इस जनाधार के साथ हिंदुओं का समर्थन उसकी चुनावी संभावनाओं में इजाफा कर देता है। इसलिए ये दोनों पार्टियाँ सूबे में कांग्रेस विरोधी राजनीति में एक-दूसरे की पूरक रही हैं। दोनों का गठजोड़ सूबे की राजनीति में कांग्रेस को कड़ी चुनौती देता रहा है। अकाली दल की वजह से जहाँ बीजेपी को राज्य विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और कई बार सत्ता में भागीदारी करने का मौक़ा मिलता रहा है, वहीं अकाली दल को भी लोकसभा में अपनी खासी उपस्थिति दर्ज कराने के साथ ही केंद्र में बनी ग़ैर कांग्रेसी सरकारों में प्रतिनिधित्व मिलता है। 

लेकिन दोनों पार्टियों का यह गठजोड़ केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि क़ानूनों को लेकर एक साल पहले टूट गया था। हालाँकि पिछले साल जून महीने में जब ये क़ानून अध्यादेश की शक्ल में लागू हुए थे तब भी और जब ये संसद में पारित हुए थे तब भी अकाली दल केंद्र सरकार में भागीदार बना हुआ था, लेकिन बाद में किसानों की ओर से इन क़ानूनों का विरोध शुरू हुआ और विरोध की सबसे मुखर आवाज़ पंजाब से उठी तो अकाली दल को अपनी राजनीतिक ज़मीन बचाने के लिए केंद्र सरकार और एनडीए यानी बीजेपी से अपना नाता तोड़ना पड़ा। उसके बाद से अब तक उसका पूरा समय सफ़ाई देने में बीता है।

सफ़ाई देने के सिलसिले में भी उसने बीजेपी से ज़्यादा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को ही अपने निशाने पर रखा है, इसीलिए आंदोलनकारी किसानों के बीच उसे हमेशा शक की निगाह से ही देखा गया है। 

अकाली दल को भी अपनी इस स्थिति का अच्छी तरह अहसास है और वह यह भी जानता है कि अकेले चुनाव लड़ कर उसे कुछ भी हासिल नहीं होना है।

पिछले विधानसभा चुनाव 2017 में तो बीजेपी का साथ होने के बावजूद उसकी इस कदर दुर्गति हुई थी कि वह विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी खो बैठा था और यह हैसियत पंजाब की राजनीति में नई नवेली आम आदमी पार्टी ने हासिल कर ली थी। उस चुनाव में कांग्रेस को 38.64 फ़ीसदी वोटों के साथ 77 सीटें हासिल हुई थीं और उसने सरकार बनाई थी और अकाली दल 25.20 फ़ीसदी वोटों के साथ महज 15 सीटें ही जीत सका था। अकाली दल की सहयोगी बीजेपी को 5.40 फ़ीसदी वोट मिले थे और 3 सीटें हासिल हुई थीं।

पंजाब में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ी आम आदमी पार्टी को वोट तो अकाली दल से कम यानी 23.80 फ़ीसदी ही मिले थे लेकिन सीटें उसे अकाली दल के मुक़ाबले 5 ज़्यादा यानी 20 सीटें मिली थीं। इस प्रकार विधानसभा में वह अकाली दल को पीछे धकेल कर मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस इन तीनों पार्टियों के मुक़ाबले बहुत भारी रही। उसे राज्य की 13 में 8 सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि अकाली दल और बीजेपी को 2-2 तथा आम आदमी पार्टी को महज एक ही सीट पर जीत मिली।

इस बार विधानसभा चुनाव को लेकर अभी तक कांग्रेस के सामने कोई सशक्त चुनौती नहीं है। कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटा कर दलित वर्ग के चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने और किसान आंदोलन को खुल कर समर्थन देने से भी उसकी स्थिति मज़बूत हुई है। अकाली दल, बीजेपी और कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस फ़िलहाल अलग-अलग हैं। ऐसे में माना जाता रहा है कि इस बार मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच ही होगा। हालाँकि पिछले कुछ दिनों के दौरान आम आदमी पार्टी को भी राजनीतिक झटकों का सामना करना पड़ा है, क्योंकि उसके एक के बाद एक छह विधायक पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।

लेकिन कृषि क़ानूनों की वापसी से राज्य में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।

अगर अकाली दल का बीजेपी के साथ फिर से गठबंधन हो जाता है तो उसका प्रदर्शन काफी हद तक सुधर सकता है। पंजाब लोक कांग्रेस बनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह तो पहले ही बीजेपी के साथ तालमेल करने की घोषणा कर चुके हैं। गौरतलब है कि अमरिंदर सिंह पहले भी कांग्रेस छोड़ कर अकाली दल में रह चुके हैं, इसलिए उन्हें अकाली दल के साथ भी तालमेल करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। अगर इन तीनों पार्टियों का गठबंधन हो जाता है तो जाट, सिक्ख और हिंदू वोटों का एक बड़ा हिस्सा इस गठबंधन के साथ जा सकता है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।