टीवी की टीआरपी तो मिली, क्या वोट भी बटोर पाएँगी प्रियंका?

01:31 pm Mar 22, 2019 | अरविंद मोहन - सत्य हिन्दी

टीवी वालों की भाषा में कहें तो ‘आईबॉल कैचिंग’ यानी दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ़ बनाए रखने में प्रियंका गाँधी सफल रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की अपनी पहली यात्रा के समय भी, अहमदाबाद के अधिवेशन में भी, दलित नेता चन्द्रशेखर से मिलने के समय भी और प्रयाग से वाराणसी की गंगा यात्रा में भी। आईबॉल कैचिंग का व्यावहारिक अर्थ है टीआरपी बटोरना। टीआरपी बटोरने का टीवी वालों के लिए मतलब है- विज्ञापन और कमाई। पर हमारे-आपके लिए इसका मतलब है कि प्रियंका लोगों का ध्यान खींच रही हैं और उनकी अभी तक की राजनीतिक गतिविधियों को पसन्द किया जा रहा है। उनके राजनीति में उतरने को लेकर जो अटकलें लग रही थीं वह उनकी राजनीति के प्रति उत्सुकता भी थी।

जिस टीवी पर मोदी का ‘कब्ज़ा’ माना जाता था और जिसका ‘आरोप’ भी लगता था, वह भी प्रियंका गाँधी को लगातार आठ घंटे और फिर चार दिन क़रीब-क़रीब लगातार दिखाता रहा।

यह कई बातें कहता है। कभी कहा जाता था, टीवी वालों में ही, कि मोदी और योगी को छोड़कर किसी दूसरे नेता से टीआरपी नहीं आती- राहुल गाँधी के लिए तो एकदम नहीं। वही टीवी अगर प्रियंका और एक हद तक राहुल के सहारे भी टीआरपी बढ़ाने लगे तो इसे सिर्फ़ टीवी का खेल न मानकर राजनैतिक हलचल का संकेत भी मानना चाहिए।

बदलाव लोगों पर भी दिखता है

प्रियंका के आने का बदलाव सिर्फ़ टीवी वालों पर नहीं दिखता। लोगों पर भी दिखता है। जिस उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास सिर्फ़ नेता बचे थे, उसमें अचानक कार्यकर्ता और समर्थक दिखने लगे हैं। बीजेपी के निवर्तमान सांसद से लेकर सपा/बसपा के भूतपूर्व सांसद-विधायक आकर्षित होने लगे हैं तो कोई बदलाव है ज़रूर। अब यह बदलाव किसी जाति या सम्प्रदाय का नया आधार जुटने वाला भी नहीं दिखता और न ही किसी जनाधार वाले दल के आने का। ज़ाहिर है कुछ बदलाव है जो हमें अभी ठोस नहीं दिखता- ज़्यादा समझ नहीं आता। चुनावी नतीजे बताएँगे कि वह क्या है। पर अभी दिखता समर्थन या उत्सुकता वोट में बदले, यह ज़रूरी नहीं है। यह हो भी सकता है और नहीं भी। इसके लिए जो पार्टी मशीनरी चाहिए वह कांग्रेस के पास कमज़ोर है या नहीं है। 

अल्पसंख्यक किसके साथ 

एक बड़ा समुदाय बिना ऐसे तंत्र के भी कांग्रेस की राजनीति को आधार देता दिख रहा है जो अल्पसंख्यकों का है। वह बीजेपी को समर्थन नहीं देगा लेकिन सपा-बसपा द्वारा कांग्रेस को बाहर रखने और मायावती के पुराने रिकॉर्ड से लेकर अब के व्यवहार के चलते बीजेपी विरोधी गठबंधन को पूरा विश्वसनीय नहीं बनने दे रहा है। इसलिए ज़रा भी राजनीति समझने वाले को लग जाता है कि जहाँ भी सपा/बसपा का उम्मीदवार कमज़ोर पड़ा मुसलमान कांग्रेस की तरह जाना पसन्द करेंगे।

  • प्रियंका की, जिसे राहुल कांग्रेस को चार सौ चालीस वोल्ट की अपनी ताक़त कहकर ले आए हैं, सक्रियता और असर का साफ़ प्रमाण विरोधी दलों और नेताओं की प्रतिक्रिया है। अभी भी यह साफ़ नहीं है कि उनके आने से दिख रहा कांग्रेसी समर्थन असल में किस दल के आधार को खिसकाकर बन रहा है पर बेचैनी सभी तरफ़ दिख रही है।

बीजेपी के नेता तो अमर्यादित टिप्पणियाँ भी करने से नहीं चूके क्योंकि प्रियंका सीधे मोदी के गढ़ माने जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश में घुसी हैं और अचानक कांग्रेस में जान दिखने लगी है।

कई राजनैतिक पंडित मानते हैं कि बीजेपी और कांग्रेस का आधार एक ही है। अगर कांग्रेस ज़िन्दा हो रही है तो बीजेपी कमज़ोर होगी ही। पर मुसलमान वोट या बीजेपी विरोधी वोट में कांग्रेस की हिस्सेदारी सपा/बसपा गठबंधन को कमज़ोर करेगी। पूर्वांचल में गठबंधन पश्चिम की तुलना में कमज़ोर भी है। इसीलिए हम देखते हैं कि मायावती से शुरू होकर प्रियंका विरोध अखिलेश यादव तक आ गया है और कल तक महागठबंधन की जो बात थी वह अब असम्भव लगता है। और जब प्रियंका बीमार दलित नेता चन्द्रशेखर से मिलने गईं और उनके वाराणसी से उम्मीदवार बनने की चर्चा उड़ी तो बीजेपी और मायावती दोनों ही बौखलाए से दिखे। मायावती को अपना दलित और उसमें भी जाटव आधार खिसकता लगा।

प्रियंका ने कद बढ़ाया

अभी तक प्रियंका ने जो किया है और जो बोला है उससे भी उनका कद बढ़ा है। एक तो उनके कार्यक्रमों का चुनाव महत्वपूर्ण है। पहले दिन की लखनऊ का रोड-शो बहुत बड़ा और लम्बा था– क़रीब आठ घंटे चला। अगर लोग न होते तो फ़्लॉप शो में बदल जाता। लेकिन प्रियंका के आकर्षण ने इसे हिट शो में बदला और कांग्रेस के लिए एक नयी शुरुआत दिखती है। चुनाव में वक़्त नहीं है। सो यह बदलाव कहाँ तक जाएगा और क्या होगा, यह कहना मुश्किल है। संगठन बनाना किसी और का काम नहीं है। राहुल प्रियंका भी उसके लिए ज़िम्मेवार रहे हैं और रहेंगे। पर अभी एक मोमेंटम बना है। इसे आगे ले जाने से लाभ होगा। पर इससे भी ज़्यादा होशियारी वाली प्लानिंग प्रयाग से वाराणसी की नौका यात्रा में दिखी।

गंगा में कम पानी होना, गाद भरने की परेशानी तो थी ही, योगी सरकार के परमिशन का भी चक्कर था, पर जब एक बार गंगा यात्रा शुरू हुई तो नए इलाक़े, नए रूट के साथ ही विजुअली ज़बरदस्त दृश्य के चलते यह टीवी चैनलों का दुलारा बन गया- मोदी-अमित शाह भी टीवी पर दिखने कम हो गए।

और फिर सबको उत्तराखंड से पश्चिम बंगाल तक के अस्सी संसदीय सीट, मल्लाह, निषाद, कश्यप, धीमर आबादी की याद आने लगी जिसे कई जगह 13-14 फ़ीसदी तक बताया गया।

नपी-तुली भाषणबाज़ी 

प्रियंका ने अभी तक लम्बी भाषणबाज़ी नहीं की है। लखनऊ रोड शो के बाद भी और अहमदाबाद में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच भी। पर जो बोला है वह बहुत हिसाब से बोला है। नाव यात्रा के समय ‘चौकीदार चोर’ बनाम ‘मैं भी चौकीदार’ विवाद पर उनके बयान पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया पर उन्होंने कहा कि इटावा के एक किसान ने मुझे बताया कि हमें तो चौकीदार की ज़रूरत नहीं है, चौकीदार तो अमीरों के होते हैं। क्या ज़बरदस्त बयान था। फिर पुलवामा हमले के समय अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस को जिस तरह उन्होंने छोटी शोक सभा में बदल दिया वह भी प्रत्युत्पन्नमतित्व (प्रजेंस ऑफ़ माइंड) का कमाल था। अहमदाबाद में ज्ञान और कौशल को राष्ट्रवाद बताना भी कम होशियारी का बयान नहीं है। चन्द्रशेखर रावण के बीमार होने के बाद वहाँ पहुँचकर ‘भाई’ सम्बोधन से शुरुआत करना स्वाभाविक भी लगता है और राजनैतिक होशियारी भी। बहुत लम्बे और उबाऊ भाषणबाज़ी के दौर में यह हवा का एक ताज़ा झोंका लगता है। यह कहाँ तक जाता है यह देखने की चीज़ होगी और इसका दारोमदार लोगों पर तो है ही सबसे ज़्यादा प्रियंका और कांग्रेस पर है।