प्रियंका की सक्रियता से डरकर योगी सरकार पर हमलावर हुईं मायावती?

07:33 am Jul 23, 2020 | पवन उप्रेती - सत्य हिन्दी

योगी सरकार के प्रति बेहद नरम होने के आरोप झेल रहीं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती आख़िरकार पत्रकार विक्रम जोशी हत्याकांड के मसले पर सरकार के ख़िलाफ़ सख़्त लहजे में बोलीं। उन्होंने कहा कि प्रदेश में क़ानून का नहीं जंगलराज चल रहा है। 

मायावती के इस बयान पर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नज़र रखने वाले लोग चौंक गए कि आख़िर ऐसा क्या हो गया कि मायावती योगी सरकार पर हमलावर हो गईं। इसके पीछे जो कारण नज़र आता है, वह है कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की उत्तर प्रदेश में बढ़ती सक्रियता। 

लेकिन यह कारण क्यों, इसे समझने के लिए लोकसभा चुनाव 2019 के बाद उत्तर प्रदेश में बने सियासी हालात पर नज़र डालनी होगी। लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद प्रदेश में कांग्रेस की बदतर हालत को सुधारने का जिम्मा जब प्रियंका ने उठाया तो उन्होंने इसके लिए जनता के मुद्दों पर योगी सरकार को घेरना शुरू किया। राजनीति में विपक्ष के नेता का काम भी यही होता है। 

सोनभद्र जा रहीं प्रियंका को रोका

इसकी शुरुआत हुई, पिछले साल जुलाई में सोनभद्र में हुए आदिवासियों के नरसंहार की घटना के बाद। पीड़ित परिवारों से मिलने के लिए सोनभद्र जा रहीं प्रियंका को प्रशासन ने मिर्जापुर में रोका तो वह वहां स्थित चुनार के किले में धरना देकर बैठ गईं। तब प्रदेश में यह अच्छा-खासा मुद्दा बन गया था और लोगों ने पूछा था कि आख़िर प्रियंका के पीड़ित परिवारों से मिलने पर प्रशासन इतना परेशान क्यों है

थक-हारकर प्रशासन को पीड़ित परिवारों को प्रियंका से मिलवाना पड़ा। यहां से प्रियंका ने संकेत दे दिया था कि भले ही वह कांग्रेस की स्टार प्रचारक हों लेकिन उनका फ़ोकस सिर्फ़ उत्तर प्रदेश ही है।

इस बीच, प्रियंका ने ‘धरना मैन’ के नाम से पहचाने जाने वाले विधायक अजय कुमार लल्लू को प्रदेश अध्यक्ष बनाया और जिला, शहर और ब्लॉक कांग्रेस कमेटियों के गठन पर भी निगाह बनाए रखी। 

नवंबर तक उत्तर प्रदेश के हर छोटे-बड़े मसले को लेकर प्रियंका गांधी ट्विटर और ज़मीन पर भी सक्रिय रहीं। लेकिन दिसंबर में जब नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के विरोध में उत्तर प्रदेश में लोग सड़कों पर निकले और पुलिस पर दमन चक्र चलाने के आरोप लगे तो प्रियंका ने फिर से ज़मीन पकड़ ली और लखनऊ में वह पुलिस को चकमा देती हुईं एक स्कूटी पर बैठकर रिटायर्ड आईपीएस एस.आर. दारापुरी से मिलने पहुंच गईं। दारापुरी को पुलिस ने हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ़्तार किया था। 

प्रियंका की सक्रियता से उत्तर प्रदेश का जनमानस विशेषकर सीएए के विरोध में आवाज़ बुलंद कर रहा मुसलिम समाज इस बात को समझ रहा था कि बीएसपी, एसपी के प्रमुखों के मुक़ाबले प्रियंका उनके मुद्दों पर कहीं ज़्यादा सक्रिय हैं।

उत्तर प्रदेश में इन दिनों जोरदार सियासत देखने को मिलती लेकिन बदकिस्मती से कोरोना महामारी की वजह से लॉकडाउन लगा और धरना-प्रदर्शनों, जुलूसों पर पाबंदी लग गई। लेकिन प्रियंका ने लॉकडाउन में भी योगी सरकार को बैकफ़ुट पर ला दिया। 

बसों के मुद्दे पर घेरा 

प्रियंका ने महानगरों से घर लौट रहे प्रवासी मज़दूरों के लिए यूपी बॉर्डर पर बसें खड़ी कर दीं। योगी सरकार बसों के कागज सही न होने से लेकर इन्हें लखनऊ बुलाने तक तमाम बहाने करती रही। अंत में प्रियंका की लगाई हुई बसें तो खाली लौट गईं लेकिन उन्होंने लोगों तक यह मैसेज पहुंचा दिया कि नेक नीयत से किए जा रहे इस काम में भी योगी सरकार ने अड़ंगा लगा दिया। 

‘बीजेपी की अघोषित प्रवक्ता नहीं’

कोरोना संक्रमितों की टेस्टिंग से लेकर शिक्षकों, बेरोजगारों और आम लोगों के मसलों को लगातार उठा रहीं प्रियंका गाधी की इस सक्रियता से मायावती परेशान हो गईं। और जब पिछले महीने प्रियंका ने मायावती और अखिलेश को अप्रत्यक्ष रूप से निशाने पर लेते हुए यह ट्वीट किया- ‘मैं इंदिरा गांधी की पोती हूँ, विपक्ष के कुछ नेताओं की तरह बीजेपी की अघोषित प्रवक्ता नहीं।’, तब मायावती को शायद लगा कि अब पानी सिर के ऊपर हो चुका है। 

इसलिए, मायावती को शायद उनके सियासी सलाहकारों ने यह समझाया कि योगी सरकार के लिए इतना ज़्यादा सॉफ़्ट कॉर्नर रखना उनके लिए मुसीबत साबित हो सकता है। 

बीएसपी की बुरी हार 

यहां यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीएसपी की सियासी ज़मीन खिसक चुकी थी। वो तो 2019 में उन्होंने सियासी समझदारी दिखाते हुए अपनी कट्टर विरोधी पार्टी एसपी से हाथ मिला लिया और चुनाव में 10 सीटें झटक लीं, वरना 2014 में मिली शून्य सीटों में वह कितना इज़ाफ़ा कर पातीं, कहना मुश्किल है। 

प्रियंका का फ़ोकस 2022 के विधानसभा चुनाव पर है।

लोकसभा चुनाव के बाद मायावती गठबंधन से बाहर आ गईं। अकेले दम पर अब वह बीएसपी के पुराने वोट बैंक को फिर से अपने पाले में ला पाएंगी, कह पाना मुश्किल है। इस गठबंधन में पश्चिम में जनाधार रखने वाला रालोद भी शामिल था और इसका फ़ायदा बीएसपी को हुआ था। 

इसलिए, हालात को समझते हुए कि उन पर ‘मित्र विपक्ष’ होने का परमानेंट ठप्पा न लग जाए, मायावती ने पत्रकार की हत्या को लेकर तीख़ा बयान दे ही दिया। 

दलितों-मुसलिमों के खिसकने का डर 

प्रियंका की सक्रियता और जिस तरह उन्होंने अपने संगठन की व्यूह रचना की है, उससे मायावती को यह डर सताने लगा है कि कहीं उनके समर्थक माने जाने वाले दलित और मुसलिम वोट उनके हाथ से न निकल जाएं। इन वोटों में भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर भी सेंधमारी कर रहे हैं। 

ऐसे में मायावती ने बीएसपी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष जैसे बेहद अहम पद पर मुसलिम समुदाय से आने वाले मुनकाद अली को नियुक्त किया और उत्तर प्रदेश के सभी मंडलों के बीएसपी संगठन में दलित-मुसलिम वर्ग के नेताओं को भरपूर जगह दी है।

पुराने वोट बैंक को जोड़ने की कोशिश

मायावती को ऐसा इसलिए करना पड़ा है क्योंकि कांग्रेस ने अपने संगठन की व्यूह रचना को भी मुसलिम और दलित मतदाताओं के इर्द-गिर्द बुनने की कोशिश की है। हालांकि ब्राह्मणों और पिछड़े वर्ग को भी प्रियंका ने साधने की कोशिश की है। लेकिन वह चाहती हैं कि राम मंदिर आंदोलन से पहले कांग्रेस के साथ मजबूती से जुड़ा रहा यह मतदाता वर्ग फिर से उसके हाथों को मजबूत करे। 

इसी मुद्दे पर देखिए, यह वीडियो -

कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि उत्तर प्रदेश में 2022 के चुनाव में उसका चेहरा प्रियंका गांधी ही होंगी और वह किसी भी दल से गठबंधन नहीं करेगी। प्रियंका लखनऊ में ही डेरा जमाने जा रही हैं, ऐसे में यह मायावती के साथ ही अखिलेश के लिए भी चुनौती है। 

यह तय है कि प्रियंका की सक्रियता से मायावती ज़्यादा परेशान हैं और अब वह अपने ऊपर लगा ‘मित्र विपक्ष’ का ठप्पा हटाना चाहती हैं, वरना उन्हें पता है कि प्रियंका की बढ़ती सक्रियता 2022 के चुनाव में बीएसपी की सियासी ज़मीन को दरका सकती है।