आज एक हफ़्ता बीत गया, मगर दस लोगों के बीच में मीटिंग करते हुए भी अचानक आंसू आ जाते हैं। अभी – यह मज़मून लिखते वक़्त भी मैं, पार्टी के वॉर रूम में सबसे नज़रें चुरा रहा हूँ।
उस दिन मैं फुरसतगंज के पास बीच रास्ते में प्रियंका जी से मिला तो उन्होंने कहा था कि पिता जी –राजीव गांधी – के बारे में बोलने का मन है। मैंने कहा कि अच्छा रहेगा, मगर दिमाग़ में कमोबेश यही छवि उभरी कि एक राजनीतिक भाषण होगा जिसमें अमेठी से राजीव जी के लगाव का ज़िक्र होगा। यह दिन का आख़िरी कार्यक्रम था – रायबरेली में 15 नुक्कड़ सभाओं के बाद अमेठी के कार्यकर्ताओं के बीच रात के 9 बजे उस दिन का अंतिम भाषण।
हर बड़े कार्यक्रम की तरह यहाँ भी हम भीड़ को चीरते हुए मंच पर पहुँचे। जल्दी जल्दी स्वागत संबंधी औपचारिकतायें पूरी की गईं। हमारे प्रत्याशी किशोरी लाल शर्मा जी ने भी संक्षेप में अपना भाषण समाप्त किया और प्रियंका माइक पकड़ कर खड़ी हो गईं। शुरू के एक दो मिनट हम जैसे लोगों का ध्यान भी नहीं जा पाया कि बोल क्या रही हैं। उस समय हमारा फ़ोकस लाइव फीड शुरू करवाने, फ़्रेम सही करवाने, मंच को स्थिर करवाने पर रहता है। ऐसे में भाषण सुनना संभव नहीं हो पाता।
उन्होंने बोलना शुरू ही किया था। कान के पीछे से कुछ लाइनें ज़ेहन में सुनाई पड़ रही थीं। पिता राजीव की जीप में शरारत करते दो बच्चे। जीप चलाकर अमेठी के गाँव-गाँव में जाना, लोगों से मिलना, जनता से राजीव जी का रिश्ता, उनकी नेक़दिली और साहस, साधनों का अभाव, सड़क-खड़ंजे की बात, इंडिया मार्क वन हैंडपंप का उल्लेख – हल्का सा एक चित्र उभर रहा था।
दिन भर की थकावट के बाद भरभरा गई उनकी आवाज़ में अचानक एक वाक्य तीर की तरह कान में घुसा और मेरे पैर अपनी जगह ठिठक गये। मुझे एक किशोर लड़की की घबराहट सुनाई देने लगी। आगे का भाषण एक लड़की दे रही थी; जो अपने पिता की सलामती के लिए व्रत और उपवास रख रही थी और जिसकी रोज़ की नींद को देर रात घर लौट रहे पिता की चप्पलों की आवाज़ का इंतज़ार रहता था।
फिर एक फोन की घंटी बजने का ज़िक्र आया और मैंने उस पूरी सभा में सन्नाटा पसरते हुए अपनी आँखों से देखा – एक महान अनहोनी के सामने, जैसे वह ठीक अभी-अभी घट रही हो- मेरा दिल डूबने लगा।
एक बेटी अपनी माँ को उसके पति के ख़त्म होने की सूचना देने जा रही थी। घड़ी की स्क्रीन दस की ओर बढ़ रही थी। उस दिन भी यही समय रहा होगा। उन्नीस बरस की लड़की को, एक स्त्री को उसके प्रेमी की मृत्यु की सूचना देनी थी जिसके लिये वह सात समुन्दर पार अपना सब कुछ छोड़कर भारत चली आई थी। एक औरत, एक दूसरी औरत को उसके पति की मृत्यु की सूचना देने जा रही थी जिसके लिए उसने भारत की संस्कृति-सभ्यता को वैसे ही अपना लिया था, जैसे धरती जल को अपना लेती है। किशोर हो रही एक लड़की अपने पिता की मृत्यु की सूचना लेकर अपनी माँ के कमरे की ओर बढ़ रही थी और उसके कदमों का बोझ मुझे अपने कंधों पर महसूस हो रहा था।
फिर उन्होंने अपनी माँ की आँखों में छाते हुए एक अंधेरे का ज़िक्र किया और पूरी सभा में अंधेरा छा गया। मेरी आँखें गीली हो गईं। कुछ समझ ही नहीं आया। मैं दांत भींचकर अपने अंदर के ज्वार को रोकने लगा। वे उस हंसी के बारे में बोल रही थीं, जो राजीव गांधी के जाने के बाद, उन्होंने उस स्त्री की आँखों में, जिसे वे अपनी माँ कहती हैं – दुबारा कभी नहीं देखी। एक तस्वीर मन में कौंधी और जैसे किसी आवेग ने मुझे धक्का मारकर गिरा दिया हो, फफककर मेरी रुलाई छूट पड़ी। लोग देख न पाएँ इसलिए मैं अपने एक साथी के पीछे पीठ घुमाकर खड़ा हो गया। मेरा शरीर काँप रहा था।
सब कुछ धुँधला धुँधला हो गया। सभा, राजनीति, चुनाव, उसका तनाव– सब ग़ायब। आंसुओं की धारा बह रही थी। अपने पति के देश को सांप्रदायिक शक्तियों के उभार से बचाने के लिए, वर्षों से गुमसुम पड़ी एक स्त्री के चट्टानी संकल्प का चित्र उभर रहा था। और फिर माँ द्वारा अमेठी से चुनाव लड़ने के फ़ैसले का ज़िक्र आया। भीड़ के भीतर अचानक एक नारा उठा “ राजीव भैया अमर रहे” और पूरी सभा जैसे नींद से जाग उठी। मेरी तंद्रा टूट गई। मैंने अपने चारों तरफ धीरे से देखा। जवान लड़के रो रहे थे। सामने खड़ी औरतें रो रही थीं। बुजुर्ग रो रहे थे। मेरे आसपास खड़े सैकड़ों लोग रो रहे थे। मेरे गाँव की तरफ से आये कुछ लोग भी वहाँ खड़े थे। मैं नहीं चाहता था कि कोई मुझे रोते हुए देखे, मगर सब बेकार था।
दिल्ली से प्रयागराज जा रही ट्रेन में अपने शहीद पिता की अस्थियों के साथ बैठी, देश से नाराज़ एक बेटी के दुख और क्रोध के पहाड़ को मैंने अमेठी के रेलवे स्टेशन पर हज़ारों लोगों के आंसुओं की गर्माहट में पिघलते हुए देखा। अमेठी के उस रेलवे स्टेशन पर जिससे मेरे जीवन की पहले-पहल की यात्रायें शुरू हुईं, मैंने उस रात आंसुओं के समंदर में एक लड़की को जीवन का, परिवार का, जनता से एक नेता के सच्चे प्रेम और आदर का अर्थ पाते हुए देखा। तब मेरी उमर आठ-नौ बरस भी नहीं रही होगी, न मैं वहाँ था, मगर मुझे ऐसे लगा कि यह सब मेरे सामने घटित हो रहा है। वहाँ उमड़ रही मनुष्यता के बीचोंबीच एक लड़की अपने अकेलेपन से लड़ने का साहस पा रही थी।
गर्मियों में अक्सर लग जाने वाली आग में एक किसान का घर भस्म हो गया था। उसकी मुट्ठी में बेटी की शादी के लिए बचाकर रखे गये अधजली नोटों की राख थी। भीड़ में सामने खड़ी जामों क़स्बे की रमाकांति को जब उन्होंने रोते हुए देखा तो उसकी कहानी सुनाने लगीं और रोने से मना करते हुए उन्होंने कहा ‘रोओ मत, तुम बहुत हिम्मत वाली हो, तुम्हारी हिम्मत ने मुझे हिम्मत दी है”। उन्होंने रमाकांति को मंच पर अपने पास बुला लिया और धीरे-धीरे “राजीव भैया की बिटिया” का भाषण लालटेन लेकर इंतज़ार करते बुजुर्गों का आशीष लेकर आगे बढ़ती लड़की, अपनी माँ के साथ बच्चों की आँखों में दवाई डालती और बेवा पेंशन बाँटते एक परिवार का अमेठी की जनता से प्रेम, सत्य, सेवा और श्रद्धा के रिश्ते की कहानी कहता चला गया।
इसके बाद बेटी ने अपने मन के पल्लू में गिरह बांध कर रखी हुई एक निधि को हम सबके सामने रख दिया। उस रत्न की चमक से पूरी सभा चमक पड़ी। एक पवित्र रिश्ता फिर से अपनी आभा से साथ आकार ले रहा था। उन्होंने कहा : “अगर अपने जीवन में एक ऐसा इंसान था जिसे मैंने पूजा वो मेरे पिताजी थे। अमेठी मेरे पिताजी की कर्मभूमि है। मैं इस भूमि को भी पूजती हूँ। ये भूमि मेरे लिये पवित्र भूमि है। ये भूमि राहुल के लिए पवित्र भूमि है।“
प्रियंका गांधी ने लंबा भाषण दिया। फर्क करना मुश्किल था कि कौन बोल रहा है। एक बेटी या एक जननेता – दोनों किरदारों में फ़र्क करना मुश्किल हो गया था।
रावण की तरह अपार सत्ता और अपार धन पर सवार बीजेपी के चुनावी रथ को अपने भाई के साथ मिलकर दोनों हाथ से रोककर खड़ी प्रियंका गांधी का अमेठी भाषण उनके जीवन का अब तक का सबसे मार्मिक और शक्तिशाली भाषण है। यह भाषण जन-मन की स्मृति में आने वाले दसियों वर्षों तक धँसा रहेगा। अमेठी में एक बेटी और एक नेता ने अपनी बहनों भाइयों से जो बात की है, उसमें एक नैतिक आह्वान है, नये संकल्प की एक गूंज, जो सबके मन में बैठ गयी है। एक बेटी का शोकगीत, एक जननेता का आह्वान आज पूरी अमेठी में बिजली की तरह दौड़ रहा है।
(लेखक कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के सलाहकार हैं। वह जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। इनसे @KaunSandeep पर संपर्क किया जा सकता है।)