चुनावी बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता और इस मुद्दे के बारूदी स्वभाव के चलते भले ही चुनाव से पहले और चुनाव घोषणा हो जाने के बाद यही सर्वाधिक चर्चा में है लेकिन देश भर में एक साथ चुनाव कराने का मसला हल्का नहीं है। लगभग छह महीने का समय नहीं लगा और पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी ने देश भर में एक साथ चुनाव कराने संबंधी अपनी 18626 पन्नों की रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दें तो कायदे से उसकी तारीफ होनी चाहिए। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस कमेटी के गठन का ही विरोध हुआ था और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस कमेटी का सदस्य बनने से इनकार किया था। उनका कहना था कि उनके मांगने पर उनको ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ संबंधी कमेटी से जुड़े कागजात नहीं दिए गए। पर कोविंद की कार्यकुशलता और इस रिपोर्ट के सुझावों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। जिस गंभीरता से सरकार इस प्रस्ताव को बढ़ा रही है या समय-समय पर बढ़ाती रही है, वह असली चीज है। और ठीक लोकसभा चुनाव के पहले रिपोर्ट पेश होना और इस चर्चा को नए सिरे से उठाने में भी उसके संकेत दिखते हैं।
अब यह समय क्यों चुना गया, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है। पर सरकार जिस उत्साह, तैयारी, जोर-शोर से और मौका-कुमौका इसे उठाती है, वह ज़रूर किसी बड़ी सोच की तरफ़ इशारा करता है। पिछली बार मामला शांत था और कोविंद समिति की नियुक्ति और अधीर रंजन के इस्तीफे के पहले एक ट्वीट से चर्चा की शुरुआत हुई और एकाध को छोड़कर लगभग सारे न्यूज चैनलों ने ‘समझ’ लिया कि संसद का विशेष सत्र ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का फ़ैसला करने के लिए बुलाया जा रहा है।
उस समय की चर्चाओं में भाजपा के प्रवक्ता तक कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। और जिस तरह से इस काम के लिए चार या पाँच संविधान संशोधनों की जरूरत होगी, संसद के दोनों सदनों में बहुमत ही नहीं, दो तिहाई बहुमत और आधे राज्यों से मंजूरी की ज़रूरत होगी, यह काम लोकसभा भंग होने के बाद कैसे होगा, यह समझना मुश्किल है। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो चुनाव के ठीक पहले यह रिपोर्ट लाने की क्या जल्दी थी। पर जब एक पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में भारी भरकम कमेटी बना दी गई हो, आधे राज्यों में भाजपा या एनडीए की सरकारें हों और सरकार द्वारा संसद में अपने मन के प्रस्ताव पास कराने का रिकॉर्ड, सब कुछ यह भी बताता है कि यह असंभव स्थिति भी नहीं है।
चार सौ पार का नारा सफल हो न हो लेकिन अगली सरकार को लेकर भाजपा का दावा काफी मजबूत माना जा रहा है। सो, राजनैतिक महत्व के हिसाब से भी इसको अभी लाने का तर्क समझ आ रहा है। भाजपा की तैयारी, संसाधन, चुनाव लड़ने का कौशल और सबके ऊपर नरेंद्र मोदी जैसा भारी भरकम चेहरा उसे इस प्रणाली से या इसके एक हिस्से की अभी शुरुआत करा देने से भी लाभ की स्थिति में ला देगी।
चुनावी खर्च घटाने, तीन स्तरीय चुनाव कराने का लाभ, सरकारी कामकाज में बार-बार चुनाव से होने वाली परेशानियों की बात मतदाताओं के एक समूह को भाती हैं। और ऐसा भी नहीं है कि पहले इस तरह के चुनाव नहीं हुए हैंं। 1967 तक चार चुनाव तो साथ-साथ हुए हैं। फिर विधासभाओं को असमय भंग करना और फिर लोक सभा के कार्यकाल से भी छेड़छाड़ शुरू हुई तो आज वाली नौबत आ गई है। और असमय विधान सभाओं को भंग कराके राज्यों में असमय चुनाव कराना हो या लोक सभा का कार्यकाल बढ़ाना या फिर मध्यावधि चुनाव कराना, सब कानून के दायरे में या कानून बदल कर ही हुए हैं और हर के लिए राजनैतिक तर्क दिया जाता था।
पर अनुभव यह भी बताता है कि जब लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ होते थे तब हमारे सांसद बिना कुछ किये धरे विधानसभा उम्मीदवारों के श्रम और पार्टी के नाम पर जीत जाते थे और पांच साल दर्शन दुर्लभ हो जाते थे।
अब कोई सांसद ऐसे गायब रहकर नहीं जीत सकता है और सारी तत्परता धनबल और सांसद निधि के खर्च के बावजूद हर चुनाव में आधे लोग जनता के पैमाने पर खरा न होने के चलते हार जाते हैं। इस बार तो लोकसभा विधानसभा के साथ पंचायतों और स्थानीय निकाय चुनाव की बात है। इसमों तो और उल्टा लोकतंत्र स्थापित होगा, सारा काम निचले स्तर के लोगों पर और सारी मौज ऊपर वालों की। अब इस व्यवस्था से शासन को कुछ दिक्कत हो सकती है। लेकिन साथ चुनाव होना ज्यादा परेशानी की चीज है या बाहुबल, धनबल और जाति-धर्म का इस्तेमाल, यह कोई भी बता सकता है। इसलिए इस मांग के पीछे सिर्फ ईमानदार मंशा नहीं है। अब दावा चाहे जो किया जाए लेकिन अभी की व्यवस्था में ही बेईमानी का मामला हो तो मोदी-शाह किसी से कमजोर नहीं बैठेंगे।
और जानकारों का मानना है कि साथ चुनाव क्षेत्र और कमजोर दलों का सफाया कर देंगे। जब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते हैं तो मतदाता एक ही दल को दोनों स्तर पर पसन्द करता है। और एक साथ क्यों, लोकसभा चुनाव के साल छह महीने बाद होने वाले चुनावों में भी उस राष्ट्रीय दल को काफ़ी लाभ मिल जाता है जो लोकसभा चुनाव जीता होता है। बल्कि मुम्बई स्थित आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि दिन ब दिन मतदाता का रुझान लोकसभा में वोट देने वाले दल को विधानसभा में भी वोट देने के प्रति बढ़ रहा है। उसने 1999 से अध्ययन किया है और इस बीच दोनों चुनाव के एक ही दल को पसन्द करने वालों का अनुपात 69 फीसदी से बढ़कर 86 फीसदी तक आ गया है। जिस तरह राष्ट्रपति प्रणाली भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज के उचित प्रतिनिधित्व से मेल नहीं खाती और एक बड़े नेता, दमदार और साधन सम्पन्न चुनाव अभियान चलाने वाले दल को लाभ दे सकती है, उसी तरह एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी बड़े, ताक़तवर और साधन सम्पन्न दल को अतिरिक्त लाभ देंगे और छोटे दलों की परेशानी बढ़ेगी। और नए दलों-नेताओं के लिए तो अवसर समाप्त ही हो जाएंगे। इसलिए मांग चाहे जिस स्तर से उठी हो, कदम चाहे जहाँ तक बढ़े हों, इसके सारे गुण-दोष देखकर ही फ़ैसला होना चाहिए।