आंबेडकर ने राजनीति में भक्ति या नायक पूजा के प्रति क्यों चेताया था?

03:14 pm May 10, 2024 | रविकान्त

2024 का लोकसभा चुनाव आज़ादी के बाद का सबसे महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण चुनाव है। यह प्रजातंत्र और संविधान को बचाने का चुनाव है। पिछले 10 साल में हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी सत्ता ने भारत की अस्मिता और उसकी सांस्कृतिक विरासत को लहूलुहान किया है। आरएसएस और उसके हजारों हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपने भाषणों और कृत्यों से भारत की आत्मा को कुचल डाला है। आज़ादी के समय देश की जो परिस्थितियां थीं, आज वही स्थितियां बना दी गई हैं। स्वाधीनता आंदोलन में हिंदू महासभा के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत और मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति ने ऐसे हालात पैदा कर दिए थे कि आजादी के साथ भारत को विभाजन झेलना पड़ा। विभाजन के दरमियान हुई सांप्रदायिक हिंसा और अमानवीयता ने भारत की स्वतंत्रता पर ही सवाल खड़े कर दिए थे। चर्चिल जैसे यूरोपीय नेता नवनिर्मित भारतीय राष्ट्र के टूटने की भविष्यवाणी कर रहे थे। लेकिन गांधी के मार्गदर्शन, नेहरू के दूरदर्शी चिंतन और डॉ. आंबेडकर के सामाजिक न्याय ने देश की नींव को मज़बूत बनाकर खड़ा किया। तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए वैचारिक दरारों के बावजूद अगर भारत आज भी मज़बूती से खड़ा हुआ है तो उसकी बुनियाद भारत का संविधान है।

मोदी सरकार के 10 सालों में भारत के संविधान पर सबसे ज्यादा हमला किया गया। डॉ. आंबेडकर भारतीय राष्ट्र और संविधान की चुनौतियों से अवगत थे। बाबा साहब संविधान निर्माण से लेकर अपने जीवन के अंतिम समय तक लगातार लोकतंत्र और संविधान की चिंता करते रहे। उन्होंने संविधान सभा के अंतिम भाषण में उन चुनौतियों और आशंकाओं को सूत्रबद्ध किया। संविधान सभा में क़रीब 50 मिनट तक दिए गए इस भाषण की तमाम खूबियां हैं। दुर्योग से इस भाषण की चर्चा अगले 50 साल तक लगभग न के बराबर हुई।

25 नंबर 1949 को संविधान सभा में दिया गया डॉ. आंबेडकर का यह भाषण 20वीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण, बौद्धिक और भावी चेतावनियों से भरपूर भाषण है। जिस तरह नेहरू द्वारा 15 अगस्त 1947 की अर्धरात्रि को दिया गया भाषण 'नियति से साक्षात्कार' की चर्चा भारत की गरीबी, बदहाली की चुनौतियों से निपटने और भारत के निर्माण के विषय में है, उसी तरह डॉ. आंबेडकर का यह भाषण वैचारिक और सामाजिक-राजनीतिक चुनौतियों से भरा हुआ है। लेकिन जहाँ नेहरू के भाषण की चर्चा हमेशा की जाती रही, वहीं आंबेडकर के विचार और व्यक्तित्व की तरह उनके भाषण को भी भुला दिया गया। अगर उस भाषण को आने वाली कांग्रेसी सरकारों और उस समय के बुद्धिजीवियों ने ध्यान से पढ़ा और परखा होता तो शायद हिंदुत्ववाद के ये दुर्दिन नहीं देखने पड़ते।

संविधान निर्माण से लेकर उसके पारित होने और उसके बाद दशकों तक हिंदुत्ववादी संविधान के खिलाफ खड़े रहे। आरएसएस, हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद, जनसंघ और भाजपा के नेता गाहे-बगाहे भारतीय संविधान को औपनिवेशिक दासता का प्रतीक और विदेशी बताते रहे। उनका लक्ष्य एक ऐसे संविधान का निर्माण करना था जो भारतीयता के नाम पर मनुस्मृति पर आधारित हो। भारतीय संविधान की अप्रासंगिकता और असफलता को हिंदुत्ववादियों द्वारा बार-बार दोहराया गया। डॉ. आंबेडकर अपने भाषण में कहते हैं कि, "संविधान चाहे कितना ही अच्छा क्यों ना हो, बुरा साबित होगा अगर उसके अनुसरण करने वाले लोग बुरे होंगे।" 

90 साल के स्वाधीनता आंदोलन और लाखों कुर्बानियों के बाद प्राप्त आजादी को लेकर आंबेडकर बेहद चिंतित थे। भारत के भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए आंबेडकर ने कहा था कि "26 जनवरी 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या फिर उसे खो देगा?" सदियों से सामन्तवाद और ब्राह्मणवाद पर आधारित समाज स्वतंत्रता के बाद कैसा होगा? वर्चस्व और वंचित में विभाजित समाज एकसाथ कैसे रहेगा? भारत की जनता कैसा आचरण करेगी? डॉ. आंबेडकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों को लेकर भी आशंकाग्रस्त थे। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, "यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश के ऊपर रखेंगी तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी। संभवतया वह हमेशा के लिए खो जाए। हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है।" जाहिर तौर पर भारतीय जनता पार्टी आरएसएस के एजेंडे पर काम करती है। उसके लिए भारत का विचार ही हिंदुत्व है, समावेशी राष्ट्र नहीं। 

राष्ट्रवाद के नाम पर उसने हिंदुत्व को पोसा और अब खुले तौर पर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की मुनादी की जा रही है। भारतीय राष्ट्र के लिए आरएसएस के विचार बेहद खतरनाक थे और आज उससे भी ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं।

भारत ने प्रजातंत्र को अपनाया। भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य कैसा है? इसकी क्या चुनौतियां हैं? प्रजातांत्रिक प्रणाली में डॉ. आंबेडकर को तानाशाही का खतरा महसूस हो रहा था। उनकी आशंका थी कि कोई राजनीतिक दल अगर बड़ा बहुमत हासिल करता है तो यह खतरा और भी ज्यादा बढ़ जाता है। अपने भाषण में आंबेडकर ने कहा कि "इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिल्कुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो। चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है।" 

इस लोकसभा चुनाव में खुले तौर पर 'अबकी बार 400 पार' का नारा दिया जा रहा है। 400 सीटें जीतने का एजेंडा भी भाजपा के नेताओं ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें संविधान बदलने के लिए दो तिहाई से अधिक बहुमत चाहिए। आम्बेडकर को इसकी आशंका थी। वे कहते हैं कि "प्रजातांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह उसे बनाए रखेगा या फिर से खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह दूसरा विचार है और यह भी पहले विचार जितना ही चिंताजनक है।"

बाबा साहब की सबसे बड़ी चिंता स्वतंत्रता खो देने की थी। दरअसल, आजादी के बाद पूरे देश में नेहरू की लोकप्रियता सिर चढ़कर बोल रही थी। भारत के कोने-कोने में नेहरू को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। आंबेडकर नेहरू जैसे लोकप्रिय नेता के तानाशाह बनने की आशंका से घिरे हुए थे। जान स्टुअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए चेतावनी भरे अंदाज में उन्होंने कहा, "अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।" पिछले 10 साल में यही हुआ है। कारपोरेट मीडिया और थ्री डी इमेज के जरिए नरेंद्र मोदी की महानायक की छवि गढ़ी गई। मोदी ने तमाम संवैधानिक संस्थाओं को नख दंत विहीन बना दिया। 

मीडिया के जरिए विपक्ष को अप्रसांगिक बना दिया गया। मीडिया सरकार के कामों की समीक्षा करने और ग़लत नीतियों की आलोचना करने के बजाय मोदी का स्तुतिगान करने में मगन है। मीडिया ने नागरिकों के सवालों को उठाना बंद कर दिया है। उसने सरकार के काम को दायित्व नहीं बल्कि कृपा बना दिया है। हिन्दुत्ववादी तंत्र और मीडिया द्वारा लोगों को सरकार के प्रति कृतज्ञ होना सिखाया जा रहा है। जबकि आंबेडकर ने आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कोमेल को उद्धृत करके चेतावनी के तौर पर कहा था "कोई पुरुष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।" 

वे आगे कहते हैं, "यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिमाण के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता।" भारत एक अत्यंत आस्थावान देश है। यहां भक्ति और आध्यात्मिकता की एक लंबी परंपरा है। राजनीति में यह भाव लोकतंत्र के लिए खतरा है। आंबेडकर ने आगाह करते हुए कहा था कि "धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंततः तानाशाही का सीधा रास्ता है।" यह खतरा आज हम सबके सामने है। क्या भारत के लोग इस चुनाव में तानाशाही को पराजित करके संविधान और लोकतंत्र को बचाने जा रहे हैं?

(लेखक दलित चिंतक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)